भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ करने की इतनी जल्दी में है कि वे छह माह पहले कांग्रेस से भाजपा में आए नेता को मुख्यमंत्री बना दे रहे हैं. ऐसे दूसरे बहुत से नेता मंत्रिपद हासिल कर ले रहे हैं. आखिर इस तरह के नेताओं के सहारे मिली जीत भाजपा के लिए कितनी फायदेमंद होगी?
पूर्वोत्तर के मणिपुर में एन बीरेन सिंह के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही पहली बार भाजपा की सरकार बन गई है. मजे की बात यह है कि बीरेन कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली सरकार में मंत्री पद संभाल चुके हैं. वे पिछले साल अक्टूबर में ही कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा से जुड़े थे.
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह लगभग अपनी हर रैली में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे को दोहराते हैं. उनका दावा है कि वह पूरे देश से कांग्रेस के शासन को उखाड़ फेकेंगे. लेकिन अगर गौर से देखें तो मणिपुर में बीरेन सिंह तो एक उदाहरण है. पूरे देश में भाजपा कांग्रेसियों के सहारे जीत हासिल कर रही है यानी ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के चक्कर में ‘कांग्रेस युक्त भाजपा’ बनती जा रही है.
अगर हम उन राज्यों पर निगाह डालें जहां हाल ही में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए हैं तो यह बात और स्पष्ट हो जाएगी. उत्तराखंड में कांग्रेसी रहे सतपाल महाराज, उनकी पत्नी अमृता रावत, पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष यशपाल आर्य, पूर्व मंत्री हरकसिंह रावत, सुबोध उनियाल, प्रणव सिंह, केदार सिंह रावत, प्रदीप बत्रा, रेखा आर्य भाजपा में शामिल हो गए हैं.
उत्तराखंड सरकार के नौ सदस्यीय मंत्रिमंडल में कांग्रेस से आए सतपाल महाराज, यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल और रेखा आर्य को जगह दी गई हैं.
ये सभी कांग्रेस के बड़े नेता रहे हैं. चुनाव से पहले ये सब भाजपा में शामिल हो गए. उत्तराखंड में भाजपा की जीत के बाद सोशल मीडिया पर एक चुटकुला भी चला कि जीत तो कांग्रेसियों को मिली है, बस चुनाव चिह्न बदल गया है.
ऐसे ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में लंबे समय तक रह नारायण दत्त तिवारी, रीता बहुगुणा जोशी, अमरपाल त्यागी, धीरेंद्र सिंह, रवि किशन समेत कई अन्य नेता भाजपा में शामिल हो गए. इनमें से कई नेताओं को विधानसभा में टिकट मिला और उन्होंने जीत भी हासिल की है. रीता बहुगुणा जोशी को तो मंत्रिमंडल में भी शामिल किया है.
गोवा में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस विधायक विजय पाई खोट, प्रवीण ज्यांते और पांडुरंग मदकाईकर भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा ने इन सभी नेताओं को विधानसभा का टिकट भी दे दिया. इसे लेकर पार्टी को आंतरिक विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ बनाने के चक्कर इसे नजरअंदाज़ कर दिया गया.
अगर हम इससे पहले की बात करें तो अरुणाचल का उदाहरण सबसे क्लासिक है. यहां 2014 में विधानसभा चुनाव होने के बाद 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के 42 विधायक जीतकर आए थे. आज वहां भाजपा का शासन है. उसके पास 47 विधायक हैं. इसमें से ज्यादातर कांग्रेस से आए हैं.
पेमा खांडू ने पिछले साल सितंबर में कांग्रेस छोड़कर पीपुल्स पार्टी आॅफ अरुणाचल ज्वाइन किया और फिर दिसंबर में वे भाजपा में शामिल हुए. उनके पिता दोरजी खांडू कांग्रेस से प्रदेश से मुख्यमंत्री रहे चुके है. अब वे अरुणाचल में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं.
कुछ ऐसा ही हाल असम का भी है. असम भाजपा में कांग्रेस के हेमंत विश्वशर्मा, पल्लब लोचन दास, जयंत मल्ल बरुआ, पीयूष हजारिका, राजन बोरठाकुर, अबु ताहिर बेपारी, बिनादा सैकिया, बोलिन चेतिया, प्रदान बरुआ और कृपानाथ मल्ल जैसे नेता शामिल हुए हैं.
हेमंत विश्वशर्मा, पल्लब लोचन दास असम की भाजपा सरकार में मंत्री है. हालांकि असम में भाजपा की जीत के पीछे करीब 15 साल कांग्रेस में रहने वाले हेमंत विश्वशर्मा का हाथ माना जाता है. अभी पार्टी ने उत्तर पूर्व में भाजपा को जोर-शोर से आगे बढ़ाने का काम उन्हें सौंप रखा है.
2014 लोकसभा चुनाव की बात करते हैं. तब चौधरी वीरेंद्र सिंह, राव इंद्रजीत सिंह, जगदंबिका पाल, डी पुरंदेश्वरी, कृष्णा तीरथ समेत ढेर सारे कांग्रेसी नेता भाजपा में शामिल हुए थे. इसमें से कई आज मंत्री भी बने हैं.
फिलहाल कभी ‘पार्टी विद डिफरेंस’ का नारा देने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आज ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के लिए इतना बेक़रार है कि उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ रहा है कि इससे पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर क्या फर्क पड़ रहा है.
कुछ समय पहले के एन गोविंदाचार्य ने कहा, ‘राजनीतिक दल आज सत्ता पाने का गिरोह बन कर रह गए हैं. दल-बदल इसी कुत्सित संस्कृति का रुप है.’ गोविंदाचार्य का जिक्र इसलिए यह ज़रूरी है क्योंकि वह लंबे समय तक भाजपा के थिंक टैंक माने जाते रहे हैं.
वैसे जिस तरह से भाजपा में कांग्रेस के नेता शामिल हो रहे हैं उससे यह कलई भी खुलती है कि भाजपा कैडर आधारित पार्टी है और संघ इसके लिए नेता तैयार करता है. इसके अलावा भाजपा सदस्यता के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है लेकिन जीत के लिए उसे कांग्रेस से नेता उधार लेने पड़ रहे हैं. यानी संघ भाजपा के लिए उतने तेज़ी से नेता नहीं तैयार कर पा रहा है जितना कि कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के लिए ज़रूरी है.
फिलहाल अगर हम एक पार्टी के रूप में भाजपा पर इसके प्रभाव देखें तो इसका सबसे ज्यादा बुरा असर कार्यकर्ताओं पर पड़ता है. वे अपने आप को छला महसूस करता है. उन्हें लगता है कि लंबे समय तक पार्टी के लिए मेहनत वो करें और दूसरी पार्टी से कोई भी नेता आकर चुनाव जीत जाएगा, मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री की कुर्सी भी पा लेगा.
इसके अलावा भले ही कई राज्यों में पार्टी की सरकार तो बन जाएगी लेकिन संगठन तैयार नहीं हो पाएगा क्योंकि भाजपा ने सत्ता ऐसे नेताओं के सहारे प्राप्त की है जिनका जुड़ाव संगठन के साथ लंबे समय से नहीं है.
हालांकि संघ विचारक राकेश सिन्हा इससे अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘राजनीतिक दल के रूप में आप इतनी शुद्धता का पालन नहीं कर सकते हैं. दूसरी पार्टी से जो भी नेता हमारे दल में आते हैं वो हमारे संगठन, हमारी विचारधारा में विश्वास जताते हैं. राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है. जनसंघ के जमाने में भी कांग्रेस छोड़कर कुछ नेता पार्टी में आए थे.’
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘किसी भी राजनीतिक दल को दो तरह से ग्रोथ मिलती है. पहला तरीका है आॅर्गेनिक ग्रोथ का. दस-बीस साल कार्यकर्ता तैयार करो, वे पार्टी के विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री और अध्यक्ष बनें. दूसरा तरीका है अनआर्गेनिक ग्रोथ का. यानी आप दूसरे दलों से तैयार नेता लेकर आए. आपकी पार्टी का मूमेंटम बना हुआ है. उनके सहारे जीत हासिल करिए. पूरी दुनिया में किसी भी राजनीतिक दल के विकास में ऐसी चीजें होती रहती है. यह पहली बार नहीं हो रहा है. किसी ज़माने में कांग्रेस इस तरह से जीत हासिल करती थी. बाद में जनता दल-जनता पार्टी के साथ ऐसा हुआ. आज भाजपा के साथ यही हो रहा है. संसद में आपातकाल का विधेयक लाने वाले जगजीवन राम बाद में जनता सरकार में उपप्रधानमंत्री बने थे.’
प्रदीप सिंह आगे कहते हैं,‘जहां तक बात कार्यकर्ताओं के मनोबल की है, तो मणिपुर का उदाहरण देखिए. 15-20 सालों से मणिपुर के भाजपा कार्यकर्ता एक विधायक नहीं जितवा पा रहे थे. अब अगर दूसरे दलों के नेताओं के जरिये भाजपा वहां सरकार बना रही है तो कार्यकर्ताओं को खुशी ही मिलेगी. नहीं तो ऐसे अगले 15 साल वहां भाजपा की सरकार नहीं बनती और कार्यकर्ता लाठी खाते रहते. इस सबमें देखने वाली बात सिर्फ यह होती है कि इससे कहीं पार्टी की विचारधारा या सोच तो नहीं प्रभावित हो रही है. अगर ऐसा नहीं है तो फिर सही है.’
कुछ ऐसी ही राय वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी की भी है. वे कहती हैं, ‘भाजपा यह एक रणनीति के तहत कर रही है. जहां भाजपा खुद मज़बूत नहीं है, वहां कांग्रेस समेत दूसरे दलों के नेताओं को अपनी ओर खींच रही है. इससे दो फायदे होते हैं. एक तो भाजपा मज़बूत होती है. उनके पक्ष में माहौल बनता है. वहीं दूसरी विपक्षी पार्टियां और कमज़ोर होती हैं. जहां तक बात कार्यकर्ताओं की है तो उनमें थोड़ी नाराज़गी होती है लेकिन अभी नरेंद्र मोदी के लहर के चलते जो भी नेता कांग्रेस या दूसरे दलों से आ रहे हैं, उनके पास किसी और दल में शामिल होने का विकल्प नहीं है.’
दूसरी ओर वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार अपने ब्लॉग पर लिखते हैं, ‘संघ को भी लगता होगा कि हिंदू राष्ट्र के लिए कब तक इंतज़ार करें. उधार के उम्मीदवारों को लेकर लर्निंग लाइसेंस की तरह लर्निंग हिंदू राष्ट्र बना लेते हैं. बाद में परमानेंट का देखेंगे. मैं गंभीर होकर लिख रहा हूं मगर आप चाहें तो हंस सकते हैं. हंसेंगे तो मुझे ज़्यादा खुशी होगी. बीजेपी के भीतर कांग्रेस, सपाई और बसपाई मिलते होंगे तो कैसे मिलते होंगे. क्या कहते होंगे ? यह सोच कर हंसी आती हैं. क्या बीजेपी बैंक है? पांच सौ हज़ार के पुराने नोट की तरह दूसरे दलों से नेता बीजेपी में आए और नए नोट में बदल गए. अभी तक सब कहते थे कि कांग्रेस में भी भाजपाई है. पहली बार हो रहा है जब लोग कह सकते हैं कि भाजपा में भी कांग्रेसी हैं.’