मज़दूर दिवस पर विशेष: कहां तो कार्ल मार्क्स ने ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’ का नारा दिया और कहा था कि उनके पास खोने को सिर्फ बेड़ियां हैं जबकि जीतने को सारी दुनिया और कहां उन्मत्त पूंजी दुनिया भर में उपलब्ध सस्ते श्रम के शोषण का नया इतिहास रचने पर आमादा है.
दुनिया के कई देशों में भूमंडलीकरण व्यापने के बावजूद मजदूर दिवस सरकारी छुट्टी का दिन है लेकिन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के संस्थापक सदस्य भारत में ऐसा नहीं है. और तो और, इस देश में ऐसी कोई परंपरा भी नहीं बन पाई है जिससे मजदूरों के संदेशों को दूसरी नहीं तो कम से कम उनकी अपनी जमातों तक पहुंचाया जा सके.
ऐसे दुर्दिन में मजदूर दिवस पर कोई भी सार्थक बातचीत उसके सामान्य परिचय के बिना नहीं हो सकती. तथ्यों के अनुसार उन्नीसवी शताब्दी के नौवें दशक तक मजदूर अत्यंत अल्प और अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह घंटे काम करने को अभिशप्त थे.
1810 के आसपास ब्रिटेन में उनके सोशलिस्ट संगठन ‘न्यू लेनार्क’ ने राबर्ट ओवेन की अगुआई में अधिकतम दस घंटे काम की मांग उठाई और उसके छह-सात सालों बाद आठ घंटे काम पर जोर देना शुरू किया तो नारा था-आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम.
उसके संघर्षों के बावजूद 1847 तक मजदूरों की राह सिर्फ इतनी आसान हो पाई थी कि इंग्लैंड के महिला व बाल मजदूरों को अधिकतम दस घंटे काम की स्वीकृति मिल गई थी.
आॅस्ट्रेलिया में 21 अप्रैल, 1856 को स्टोनमेंशन और मेलबर्न के आसपास के बिल्डिंग कर्मचारियों ने आठ घंटे काम की मांग को लेकर हड़ताल और मेलबर्न विश्वविद्यालय से पार्लियामेंट हाउस तक प्रदर्शन किया तो 1866 में जेनेवा कन्वेंशन में इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोसिएशन ने भी इस हेतु अपनी आवाज बुलंद की.
लेकिन निर्णायक घड़ी एक मई, 1886 को आई जब अमेरिका के शिकागो में हड़ताली मजदूरों ने विराट प्रदर्शन किया और वहां की पुलिस, नेशनल गार्ड व घुड़सवार दस्ते उनके ऐसे बर्बर दमन पर उतर आये कि शिकागो की धरती रक्त से लाल हो गई. तभी से उस संघर्ष की याद में हर साल एक मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है.
इस रूप में यह दिन श्रम को पूंजी की सत्ता से मुक्ति दिलाने, उसकी गरिमा को पुनर्स्थापित करने और शोषण के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जगाने का है. बताना गैरजरूरी है कि इसके मूल में कार्लमार्क्स व फ्रेडरिक एंगेल्स का वह दर्शन है, जिसमें श्रम को मानव समाज के निर्माण की मूल प्रेरणा व संचालक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है और उसके व्यक्तिगत के बजाय सामाजिक स्वरूप पर जोर दिया जाता हैै.
चूंकि इस वक्त मजदूरों के साथ इस दर्शन का भी हाल बुरा है, कुछ उसके पैरोकारों द्वारा स्थितियों के आकलन में की गई गलतियों और कुछ आत्मावलोकन से परहेज के चलते, इसलिए इस देश में भूमंडलीकरण के चोले में आई नवउपनिवेशवादी नीतियों के ‘सफल’ पच्चीस सालों बाद सयाने लोग कहते हैं कि अब जब पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के एकजुट प्रत्याक्रमण ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं कि मजदूरों के पुराने कौशल बेकार हो गये, न वे श्रमिक रहे, न वह श्रमिक एकता और कथित रूप से कुछ ज्यादा ही कुशल श्रमिकों का एक हिस्सा अपनी निजी उपलब्धियों व महत्वाकांक्षाओं के फेर में पड़कर योग्यता व प्रतिस्पर्धा में नाम पर मजदूर आंदोलन के मूल्यों से गद्दारी पर आमादा है, इस दिवस का क्या औचित्य है?
कहां तो कार्ल मार्क्स ने ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा दिया और कहा था कि उनके पास खोने को सिर्फ बेड़ियां हैं जबकि जीतने को सारी दुनिया और कहां उन्मत्त पूंजी दुनिया भर में उपलब्ध सस्ते श्रम के शोषण का नया इतिहास रचने पर आमादा है.
विश्वव्यापी नवऔपनिवेशिक व्यवस्था के आधारस्तम्भों-विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व व्यापार संगठन के बढ़ते दबावों के बीच अनेक पिछड़े देशों की लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आने और लोकप्रिय होने का दावा करने वाली सरकारें भी उस उदारीकरण की राह पर चल पड़ी हैं, जो मुनाफाखोर कंपनियों को छोड़ हर किसी के लिए अनुदार है.
अब ये सरकारें अपने मेहनतकश नागरिकों की अनदेखी करके आर्थिक सुधारों के नाम पर श्रमिक हितों के बंटाधार और निवेशकों कोे अंधाधुंध सहूलियतों वाली आर्थिक नीतियों की निर्लज्ज अनुगामिनी बन गई हैं.
भारत की नरेंद्र मोदी सरकार इसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है. इतना ही नहीं, श्रमिक एकता तोड़ने के लिए दुनिया भर में व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए ही श्रम करने पर जोर है और उस सोच को सिरे से खत्म किया जा रहा है, जो समाज के लिए श्रम करने और सामूहिकता की प्रवृत्ति के विकास में सहायक हो.
इस आईने में देखें तो मजदूर आंदोलनों के विपर्यय और अवसान के अंदेशे बहुत परेशान करते हैं. उनके नेतृत्वों की समझदारी और रणनीतिक व सांगठनिक कौशलों पर सवाल उठाने का भी मन होता है. लेकिन कोई यह कहे कि इस एक पराजय से मजदूरों की एकता या उनके आंदोलनों की प्रासंगिकता ही खत्म हो गयी है तो उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता.
क्योंकि आज भी न वर्गसंघर्षों का इतिहास बदला है, न श्रम, उत्पादन व पूंजी का मूल संबंध. आज जब अनेकानेक विभाजनों से मजदूरों की एकता तोड़कर उन्हें नए अत्याचारों व असुरक्षाओं के हवाले किया जा रहा है, प्रगतिशील और क्रांतिकारी मजदूर आंदोलनों की पहले से ज्यादा आवश्यकता है.
अगर कोई पूछता है कि क्या जुल्मतों के दौर में भी गीत गाये जायेंगे, तो उसे जवाब भी सुन लेना चाहिए कि-हां, जुल्मतों के दौर में ही गीत गाये जायेंगे.
अलबत्ता, इस वक्त मजदूर आंदोलनों को आत्मावलोकन की बहुत सख्त जरूरत है. समझने की कि उनसे सबसे बड़ी गलती यह हुई है कि उन्होंने समाजवादी दर्शन की उन उम्मीदों को नाउम्मीद कर डाला है जिनके तहत समझा गया था कि मजदूर संगठन क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तनों की अगुआई करने वाले हिरावल दस्ते के रूप में काम करेंगे.
इसके उलट उन्होंने खुद को मजदूरों, खासकर संगठित मजदूरों की चिंता तक सीमित कर लिया और उसी दृष्टि से अपनी उपलब्धियों का आकलन करने लगे. यह तक देखने की दूरंदेशी नहीं अपनाई कि लगातार विकसित की जा रही टेक्नाॅलाजी आगे चलकर उत्पादन में विशिष्ट श्रम की भूमिका घटा या बदल देने वाली है.
जाहिर है कि मजदूरों व उनके आंदोलनों दोनों का भविष्य इस पर निर्भर होगा कि वे अपनी पुरानी गलतियों से सबक सीखेंगे या नहीं? सबक सीखना हो तो शंकरगुहा नियोगी की यह सीख तो उन्हें माननी ही चाहिए कि मजदूर संगठन सिर्फ आठ नहीं, चौबीस घंटों के लिए होने चाहिए.
प्रसंगवश, नियोगी ने अपने संगठन के 17 विभाग बनाये थे-ट्रेड यूनियन, किसान, शिक्षा, बचत, स्वास्थ्य, खेलकूद, नशाबंदी, संस्कृति, मुहल्ला सुधार, महिला, मेस, कानून, पुस्तकालय, पर्चा वितरण, वालंटियर, फालबैक वेजेज और भवन निर्माण.
मजदूरों की ऐसी बहुआयामी सक्रियता के बगैर यह वस्तुस्थिति बदलने वाली नहीं कि अभी भी अनेक कंपनियां दस-दस बारह-बारह घंटे काम के टाइमटेबल पर चल रही हैं और बड़े संघर्षों से हासिल सुरक्षाएं गंवाकर बर्खास्तगी व छंटनी आदि से डरे मजदूर उन्हें झेल रहे हैं.
कही ठेके पर मजदूरी को मजबूर हैं और कहीं वीआरएस लेकर घर बैठ जाने को. ऐसा इसलिए है कि निरंकुश बड़ी पूंजी के एकतरफा भूमंडलीकरण जहां अपने देयर इज नो आल्टरनेटिव (यानी उसका कोई विकल्प नहीं है) के प्रचार के सहारे अपनी जड़ें लगातार गहरी करता जा रहा है, वहीं उसके इतने सालों बाद भी श्रम के भूमंडलीकरण की कोई चर्चा ही नहीं है.
मजदूर संगठन हैं कि समझ ही नहीं पा रहे कि निर्बंध पूंजी के बरक्स निर्बंध श्रम की मांग के लिए यही सबसे उपयुक्त समय है. हम देख रहे हैं कि पूंजी के भूमंडलीकरण के प्रवर्तक और सबसे बड़े लाभार्थी अमेरिका तक का मन अब, अपने ज्ञात-अज्ञात अंतर्विरोधों के ही कारण सही, उससे उचट हो रहा है और उसके राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा दे रहे हैं.
दुनिया भर में श्रमिकों की संरक्षक नीतियों के उन्मूलन के बाद अमेरिका द्वारा अमेरिकियों को इस संरक्षण को ठीक से समझें तो इसके पीछे उसका अचानक उभर आया राष्ट्रवाद ही नहीं, आज नहीं तो कल संभव हो जाने वाले श्रम के भूमंडलीकरण के अंदेशों से डरा हुआ अमेरिकी मन ही है.
ठीक इसी समय उससे पूछा जाना चाहिए कि भूमंडलीकरण के नाम पर बड़ी पूंजी के निर्बंध प्रवाह के लिए राष्ट्रों व राज्यों की पुरानी सीमाओं व सत्ताओं के अतिक्रमणों का दौर चलाने के बाद श्रम को निर्बंध होने से रोकने की लड़ाई वह ‘पुराने हथियारों’ से ही कैसे जीतेगा? युयुत्सावाद के प्रवर्तक कवि शलभ श्रीराम सिंह कह गये हैं कि युद्ध कभी भी कमजोर घोड़ों पर बैठकर नहीं जीते गए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)