मोदी के हर क़दम ने हमें अचंभित किया है. यहां तक कि जब वे ज़हर उगलते रहे, तब भी हमारी प्रतिक्रिया ऐसी ही रही. हम मोदी के हर कृत्य को वैधानिकता प्रदान करने के लिए उत्सुक थे, तत्पर थे. योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी उनकी नयी पेशकश है. जो किया जा चुका है उसमें ख़ूबी तलाशना ही अब हमारा कर्तव्य रह गया है.
2017, 2014 के बाद ही आ सकता है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए योगी आदित्यनाथ के मनोनयन पर जिस तरह से अविश्वास और आघात लगने के भाव का प्रदर्शन किया गया, वह सबसे पहले हमारे समय के टिप्पणीकारों के बारे में काफ़ी कुछ कहता है. इस प्रतिक्रिया से मालूम होता है कि हमारे अधिकतर टिप्पणीकार या तो राजनीतिक रूप से अभी भोले हैं या भाजपा के पिछले कई वर्षों के आचरण को लेकर अपने पूर्वाग्रहों और पक्षपात को छिपाना चाहते हैं.
यह सही है कि उत्तर प्रदेश के नये मुख्यमंत्री कोई सामान्य नेता नहीं हैं. ठीक उसी तर्ज पर जिस तरह से गुजरात के मुख्यमंत्री, जो कि अब देश के प्रधानमंत्री हैं, सामान्य नेता नहीं थे. लेकिन जब हम हम शख्सियतों की योग्यताओं के विकास के बारे में बात करते हैं या उनमें छिपी ख़ूबियों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं, तब हम भूल जाते हैं कि वे सब भाजपा के सच्चे सपूत थे और भाजपा ख़ुद कोई सामान्य पार्टी नहीं थी.
हम इस बात का मातम मनाते रहे कि किसी ज़माने में जिस पार्टी का नेता एक उदारहृदय कवि हुआ करता था, वह एक लौह-पुरुष पर आश्रित होती जा रही है. वह लौह पुरुष जो टोयोटा से बनाए गए रथ पर चला करता था. जिसने हिंदुओं को बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने का आह्वान किया और जिसके रथ के पीछे और अपने पीछे ख़ून और आग के निशान रह गए.
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इसका सीधा सा मतलब यह है कि हमें न तो ठीक से कविता की समझ थी, न राजनीति की. हम एक तुकबंदी करने वाले को कवि कह कर सिर पर बिठाते रहे. यह शिक्षित समुदाय के सौंदर्यबोध में भारी गिरावट का प्रतीक था. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी को समावेशी कहना और भी बदतर था. संसद के भीतर और बाहर अटल बिहारी वाजपेयी का रिकॉर्ड यह दिखाता है कि वे बेहद शातिर तरीक़े से अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति को साधारण-इच्छुक लोगों के लिए स्वीकार्य बनाते थे.
उनके पीछे लौह पुरुष का आगमन हुआ. लालकृष्ण आडवाणी की तुलना लगातार सरदार पटेल से की जाती रही और आख़िरकार उन्हें एक राजनेता में रूपांतरित कर दिया गया. और किसी ने नहीं, नीतीश कुमार जैसे घाघ नेता ने 2013 में आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मांग की थी. नीतीश कुमार ने 17 वर्षों तक गठबंधन में रहने के बाद अपने पुराने साथी को तब अलविदा कहने का फ़ैसला किया जब भाजपा ने वृद्ध आडवाणी को रद्दी की टोकरी में डालकर उनकी जगह एक ज़्यादा निर्णायक और प्रतिबद्ध विकासवादी में अपनी आस्था जता दी.
उस व्यक्ति की मुस्लिम विरोधी टिप्पणियों और 2002 की मुस्लिम विरोधी हिंसा को लेकर उससे बनने वाले सवालों को गैरज़रूरी क़रार दिया गया. सिर्फ़ भाजपा ही नहीं, बल्कि शिक्षित हिंदुओं का जनसमूह भी उसका स्वागत करने के लिए तैयार था. इन दोनों में से किसी ने अपनी राजनीति नहीं बदली थी. इन दोनों में से किसी ने यह नहीं कहा था कि वे अपनी पार्टी की विचारधारा में, जो और कुछ नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा है, यक़ीन नहीं करते.
भाजपा एक साधारण पार्टी नहीं है, यह बात इसके समाजवादी मित्रों को 1977 में तब समझ में आयी जब उन्होंने यह मांग की कि जनता पार्टी का सदस्य एक साथ जनता पार्टी और आरएसएस की दोहरी सदस्यता नहीं रख सकता. जनता पार्टी का गठन देश में आपातकाल लगाए जाने के बाद इंदिरा गांधी से मुक़ाबला करने के लिए किया गया था. इसके गठन के लिए इंदिरा विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने अपना अस्तित्व समाप्त कर दिया.
इनमें परंपरावादी और समाजवादी दोनों तरह की पार्टियां शामिल थीं. आरएसएस की राजनीतिक शाखा जनसंघ ने भी ख़ुद को भंग करके दूसरे दलों की तरह जनता पार्टी में विलय का फ़ैसला किया. कुछ समय बाद यह मांग उठी कि जनता पार्टी के सदस्यों को आरएसएस के साथ अपना संबंध-विच्छेद कर लेना चाहिए. लेकिन, इस मांग ने जनता पार्टी का ही विघटन कर दिया. जनसंघ के सदस्यों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अपने रिश्ते को नयी गठित लोकतांत्रिक पार्टी के ऊपर तरजीह दी.
वैसे लोगों को भी, जो यह यक़ीन नहीं करना चाहते थे, यह साफ़ हो गया कि जनसंघ का अस्तित्व आरएसएस से है. जनसंघ की काया छोड़कर भारतीय जनता पार्टी की काया ग्रहण करना, महज नाम का परिवर्तन था.
आरएसएस के प्रति शिक्षित समुदाय के रवैये में धीरे-धीरे बदलाव आया. पूर्व जनसंघ में ऐसा काफ़ी कुछ था, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता था कि यह सिर्फ़ भारत के लोगों की तरफ़ से और उनके लिए बोल रही है. इसके नारे- ‘हर हाथ को काम दो, हर खेत को पानी’ में एक आर्थिक संदेश पैबस्त था और इसके नेताओं के सार्वजनिक उद्गारों में ऐसा कुछ नहीं था जिसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जा सके.
भाजपा सिर्फ़ आरएसएस की एक शाखा है, जिसका उद्देश्य आरएसएस को जनता की कल्पना में वैधानिकता प्रदान करना-स्वीकार्य बनाना है. ऐसा करते हुए यह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के आरएसएस के मूलभूत लक्ष्य के साथ किसी क़िस्म का समझौता नहीं करती. इस प्रोजेक्ट का माॅडल हिंदुओं पर प्रभुत्व कायम करके अल्पसंख्यकों पर अपना वर्चस्व जमाना है.
कांग्रेस के भीतर पहले से एक ऐसा धड़ा था, जो आरएसएस को फलता-फूलता देखना चाहता था. सरदार पटेल को संघ पर प्रतिबंध लगाने पर मजबूर होना पड़ा क्योंकि वे 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के लिए उकसाने वाले अभियान में आरएसएस की संलिप्तता की अनदेखी या उपेक्षा नहीं कर सकते थे. लेकिन, आरएसएस को लेकर उनकी कटुता उसके आदर्शों के प्रति उनकी सहानुभूति के सामने कमज़ोर पड़ गई. उन्होंने आरएसएस को एक बार फिर इस शर्त के साथ जनता के बीच सार्वजनिक तौर पर काम करने की अनुमति दे दी कि वह भारत के संविधान के प्रति अपनी आस्था की घोषणा कर दे.
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इस तथ्य को सुविधाजनक तरीक़े से नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि आरएसएस ने अपने चरम लक्ष्य- भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के सपने- का त्याग नहीं किया है. संसद में पदार्पण और इसके सहारे राज्य के संस्थागत ढांचे में सेंध लगाना, आरएसएस की रणनीति थी. योजना यह थी कि इस तरह से सत्ता पर कब्ज़ा क़ायम किया जाएगा और इसके संवैधानिक कर्तव्यों को संवैधानिक तरीक़ों से ही धता बता दिया जाएगा.
भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री ने संविधान के प्रति प्रतिबद्धता की मांग का मज़ाक तब उड़ाया था, जब उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए एक हाथी पर संविधान की एक बड़ी प्रतिकृति रख कर उसके फेरे लगवाए थे.
पहली वफ़ादारी संघ और उसके लक्ष्यों के प्रति
आरएसएस के साथ नाभिनालबद्ध संबंध भाजपा की अस्वाभाविक प्रकृति का मूल कारण है. भाजपा के सभी नेताओं ने आरएसएस के प्रति अपनी प्राथमिक वफ़ादारी का ऐलान गर्व के साथ किया है. यहां तक कि उदारवादियों के चहेते वाजपेयी ने सबका दिल यह कहते हुए तोड़ दिया था कि वे सबसे पहले ‘स्वयंसेवक’ थे. उन्होंने यह इसलिए निगल लिया क्योंकि वे भगवा ब्रिगेड की स्वाभाविक असभ्यता का सामना नहीं चाहते थे. वाजपेयी और उनके बाद आडवाणी ने उन्हें हताश नहीं किया.
इन दोनों के बाद एक ऐसा शख़्स आया जिसने अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति को मिशनरी कट्टरता के साथ परवान चढ़ाया. हमने देखा है कि किस तरह से हमारा मीडिया और बुद्धिजीवी समाज उनके पीछे सिर्फ़ इस छोटी सी याचना के साथ दौड़ता रहा कि वे 2002 में उनकी निगरानी में गुजरात के मुस्लिमों के साथ जो किया गया, उसके लिए माफ़ी का एक छोटा सा शब्द उचार दें. लेकिन, उन्होंने दृढ़ता के साथ ऐसी याचनाओं का ठुकरा दिया. याचना करने वालों ने अपने कदम पीछे खींच लिए . उनके पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं था कि वे पीड़ितों को भविष्य की ओर देखने और इस पीड़ा के भाव से बाहर निकलने को कहें.
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इसके बाद वह व्यक्ति नेता बन गया. उसकी हर चाल से हमारी आंखें फटी रह गईं. संवैधानिक विचारों की धज्जियां उड़ाते हुए अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने की उसकी क्षमता ने उसके प्रति हमारे अचंभे को और बढ़ाया. हम उसके हर कृत्य को वैधानिक बनाने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा उत्सुक, ज़रूरत से ज़्यादा तत्पर थे. और अब उसने नयी चाल चल दी है. अब मीडिया और उदारवादियों के सामने लक्ष्य होगा कि वह इस नये कृत्य की ख़ूबियों की तलाश करे.
अगर आप अख़बारों और यू-ट्यूब के आर्काइव को खंगाल कर उन बयानों को (जो अभी भी उपला रहे हैं) सामने लाएं, जिसमें मुस्लिम महिलाओं को क़ब्रों से निकालकर उनके साथ बलात्कार करने का आह्वान किया जा रहा है, एक के बदले सौ मुसलमानों का सफाया करने की धमकी दी जा रही है, मुसलमानों को दोपाया जानवर कहकर उनका निपटारा करने को कहा जा रहा है, तो आपको विकास विरोधी कहा जाएगा. जो भी इस गलीज सत्य को उजागर करेगा, उसे हताश पराजित कह कर पुकारा जाएगा.
एक मित्र ने कहा है, यूपी के नये मुख्यमंत्री की सफ़ेदी करने के अभियान का पहला आदर्श वाक्य यह हो सकता है: वह भ्रष्ट नहीं है, समर्पित और नेकनीयत है.
(अपूर्वानंद दिल्ली यूनिवर्सिटी में अध्यापक हैं.)