मंटो की कहानियां सभ्यता के गाल पर तमाचा मारती हैं

यह विडंबना है कि ज़िंदगी भर अपने लिखे हुए के लिए कोर्ट के चक्कर लगाने वाला, मुफ़लिसी में जीने और समाज की नफ़रत झेलने वाला मंटो आज ख़ूब चर्चा में है. इसी मंटो ने लिखा था कि मैं ऐसे समाज पर हज़ार लानत भेजता हूं जहां यह उसूल हो कि मरने के बाद हर शख़्स के किरदार को लॉन्ड्री में भेज दिया जाए जहां से वो धुल-धुलाकर आए.

यह विडंबना है कि ज़िंदगी भर अपने लिखे हुए के लिए कोर्ट के चक्कर लगाने वाला, मुफ़लिसी में जीने और समाज की नफ़रत झेलने वाला मंटो आज ख़ूब चर्चा में है. इसी मंटो ने लिखा था कि मैं ऐसे समाज पर हज़ार लानत भेजता हूं जहां यह उसूल हो कि मरने के बाद हर शख़्स के किरदार को लॉन्ड्री में भेज दिया जाए जहां से वो धुल-धुलाकर आए.

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सआदत हसन मंटो (जन्म: 11 मई 1912 – अवसान: 18 जनवरी 1955) (फोटो साभार: विकिपीडिया)

अमूमन लेखक खासतौर पर कोई बड़ा और महान लेखक मशहूर हुआ करता है लेकिन सआदत हसन मंटो बड़ा और महान लेखक होकर भी एक ‘बदनाम’ लेखक हुआ. समझा गया कि मंटो को उनकी कहानियों ने ही एक बदनाम लेखक का खिताब दिया.

उनकी बदनाम कहानियों पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया. बार-बार उनकी उन पांच कहानियों धुंआ, बू, ठंडा गोश्त, काली सलवार और ऊपर, नीचे और दरमियां का जिक्र किया गया जिसकी वजह से उनपर अश्लीलता फैलाने का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया.

इनमें से चार मुकदमें अंग्रेजों के शासन काल में हुए तो एक मुकदमा देश के बंटवारे के बाद के पाकिस्तान में हुआ. लेकिन जरा सोचिए कि अगर मंटो बदनाम लेखक न होते तो फिर उर्दू के एक आम अफसानानिगार ही तो होते.

उन्होंने शोहरत की तरह ही बदनामी कमाई थी और यही उनकी रचनात्मक विलक्षणता की वास्तविक कमाई थी. उन्होंने इंसानी मनोविज्ञान का जैसा नंगा चित्रण अपनी कहानियों में बयां किया अगर वो बदनाम न होते तो यह उनकी नाकामयाबी मानी जाती.

उनकी कहानियों में मानो लगता है कि सभ्यता और इंसान की बिल्कुल पाश्विक प्रवृत्तियों के बीच जो द्वंद है, उसे उघाड़कर रख दिया गया है. सभ्यता का नकाब ओढ़े इंसानी समाज को चुनौती देती उनकी कहानियां बहुत वाजिब थी कि उसके लेखक को कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगवाए.

लेकिन दिलचस्प है कि किसी भी मामले में मंटो को सज़ा नहीं हुई. सिर्फ एक मामले में पाकिस्तान की अदालत ने उन पर जुर्माना लगाया था. इसे भी एक विडंबना ही कहिए कि मंटो सभ्यता और संस्कृति के ठेकेदारों की नज़र में जहां एक तरफ समाज के मुजरिम थे तो वही इसी सभ्य समाज की बनाई गई अदालतों में वो सिर्फ समाज की नंगी सच्चाइयों पर लिखने वाले एक कहानीकार थे.

मंटो अपने वक्त के खोखलेपन और विसंगतियों को बखूबी पहचानते थे. तभी तो वो कहते थे, ‘मुझमें जो बुराइयां हैं दरअसल वो इस युग की बुराइयां हैं. मेरे लिखने में कोई कमी नहीं. जिस कमी को मेरी कमी बताया जाता है वह मौजूदा व्यवस्था की कमी है. मैं हंगामापसंद नहीं हूं. मैं उस सभ्यता, समाज और संस्कृति की चोली क्या उतारुंगा जो है ही नंगी.’

अक्सर लोग कहा करते हैं कि मंटो अपने वक्त से आगे के लेखक थे लेकिन सच पूछिए तो मंटो बिल्कुल अपने वक्त के ही कहानीकार थे. उनकी अहमियत को बस वाजिब तरीके से पहचाना और मान देना शुरू किया गया है पिछले एक दशक में.

यह उस वक्त की परेशानी थी जहां मंटो को समझा नहीं जा रहा था या फिर समझने की कोशिश नहीं की जा रही थी. लेकिन यह भी सच है कि उन्हें कभी नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सका.

इसकी वजह है उनकी कहानी के वो विषय जो उस दौर में मौंजू तो थे लेकिन अब आकर कहीं ज्यादा प्रासंगिक लगने लगे हैं. औरत-मर्द के रिश्ते, दंगे और भारत-पाकिस्तान का बंटवारा जैसे मसले एक अलग ही अंदाज़ में उनकी कहानियों में मौजूद होते थे.

उनकी कहानियों की वो औरतें जो उस वक्त भले कितनी ही अजीब लगे लेकिन वे वैसी ही थी जैसी एक औरत सिर्फ एक इंसान के तौर पर हो सकती है. मौजूदा दौर में जब अब स्त्रीवादी लेखन और विचार के कई नए आयाम सामने आ रहे हैं तब मंटो की उन औरतों की खूब याद आ रही है और इसी बहाने मंटो की भी. लेकिन इसके बावजूद मंटो की औरतों को किसी खांचे में फिट करना मुश्किल होगा.

अपनी कहानी की औरतों के बारे में खुद मंटो कहते हैं, ‘मेरे पड़ोस में अगर कोई महिला हर दिन अपने पति से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए जरा भी हमदर्दी पैदा नहीं होती. लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई महिला अपने पति से लड़कर और आत्महत्या की धमकी दे कर सिनेमा देखने चली जाती है और पति को दो घंटे परेशानी में देखता हूं तो मुझे हमदर्दी होती है.’

मंटो जिस बारीकी के साथ औरत-मर्द के रिश्ते के मनोविज्ञान को समझते थे उससे लगता था कि उनके अंदर एक मर्द के साथ एक औरत भी ज़िंदा है. उनकी कहानियां जुगुप्साएं पैदा करती हैं और अंत में एक करारा तमाचा मारती है और फिर आप पानी-पानी हो जाते हैं.

उनकी एक कहानी है ‘मोज़ील’. यह एक यहूदी औरत (मोज़ील) की कहानी है. उसके पड़ोस में रहने वाले एक सिख आदमी त्रिलोचन को उससे मोहब्बत हो जाती है. वो उससे शादी करना चाहता है लेकिन वो यहूदी औरत उससे शादी नहीं करती. उसे लगता है कि वो सिख उसके हिसाब से खुले मिजाज का नहीं और मजहबी है.

उस सिख को एक दूसरी लड़की अपनी ही बिरादरी की मिल जाती है और वो उससे सगाई कर लेता है. तभी दंगा भड़कता है और उसकी मंगेतर दंगे में फंस जाती है. जिस मोहल्ले में वो रह रही होती है वहां दंगे के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया है.

मोज़ील उसे लेकर उसकी मंगेतर को बचाने उस मोहल्ले में जाती है. वो अपना गाउन उसके मंगेतर को पहना देती है ताकि उसकी मंगेतर एक यहूदी जान पड़े और उन दोनों को वहां से भागने को कहती है.

वो ख़ुद दंगाइयों की भीड़ के सामने बिना कपड़ों के नंगे आ जाती है ताकि दंगाइयों का ध्यान उसकी तरफ हो जाए. तभी वो सीढ़ियों से गिर जाती है और लहूलुहान हो जाती है. सरदार अपनी पगड़ी से उसके नंगे जिस्म को ढकने की कोशिश करता है लेकिन मोज़ील उसकी पगड़ी को फेंकते हुए कहती है कि ‘ले जाओ इस को…अपने इस मजहब को.’

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बेटी के साथ मंटो (फोटो साभार: सिटीज़न आर्काइव ऑफ पाकिस्तान/ट्विटर)

सआदत हसन मंटो की रचना यात्रा उनकी कहानियों की तरह ही बड़ी ही विचित्रता से भरी हुई है. एक कहानीकार जो जालियांवाला बाग कांड से उद्वेलित होकर पहली बार अपनी कहानी लिखने बैठता है वो औरत-मर्द के रिश्तों की उन परतों को उघाड़ने लगता है जहां से पूरा समाज ही नंगा दिखने लगता है.

मंटो ने ताउम्र मजहबी कट्टरता के खिलाफ लिखा, मजहबी दंगे की वीभत्सता को अपनी कहानियों में यूं पेश किया कि आप सन्न रह जाए. उनके लिए मजहब से ज्यादा कीमत इंसानियत की थी.

मंटो ने लिखा, ‘मत कहिए कि हज़ारों हिंदू मारे गए या फिर हज़ारों मुसलमान मारे गए. सिर्फ ये कहिए कि हज़ारों इंसान मारे गए और ये भी इतनी बड़ी त्रासदी नहीं है कि हज़ारों लोग मारे गए. सबसे बड़ी त्रासदी तो ये है कि हज़ारों लोग बेवजह मारे गए.

हज़ार हिंदुओं को मारकर मुसलमान समझते हैं कि हिंदू धर्म ख़त्म हो गया लेकिन ये अभी भी ज़िंदा है और आगे भी रहेगा. उसी तरह हज़ार मुसलमानों को मारकर हिंदू इस बात का जश्न मनाते हैं कि इस्लाम ख़त्म हो चुका. लेकिन सच्चाई आपके सामने है. सिर्फ मूर्ख ही ये सोच सकते हैं कि मजहब को बंदूक से मार गिराया जा सकता है.’

बिल्कुल अपनी कहानियों की औरतों की तरह ही मंटो को भी किसी खांचे में फिट करना एक बेहद मुश्किल काम है. उस वक्त कृश्न चंदर, राजिन्दर सिंह बेदी, अहमद नदीम क़ासमी, इस्मत चुग़ताई और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे लेखकों के होते हुए भी मंटो तो अकेला ही था.

बंटवारे का दर्द हमेशा उन्हें सालता रहा. 1948 में पाकिस्तान जाने के बाद वो वहां सिर्फ सात साल ही जी सके और 1912 में भारत के पूर्वी पंजाब के समराला में पैदा हुए मंटो 1955 में पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब के लाहौर में दफन हो गए.

कैसी विडंबना है कि मंटो के जाने के इतने सालों बाद ज़िंदगी भर कोर्ट के चक्कर लगाने वाला, मुफलिसी में जीने वाला, समाज की नफरत झेलने वाला मंटो आज खूब चर्चा में है. उन पर फिल्में बन रही हैं. उनके लेखों को खंगाला जा रहा है. अभी कुछ सालों पहले ही मंटो के लेखों का एक संग्रह ‘व्हाई आई राइट’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद कर निकाला गया है.

लेकिन मंटो अपनी किताब गंजे फरिश्ते  में लिखते हैं कि मैं ऐसे समाज पर हज़ार लानत भेजता हूं जहां यह उसूल हो कि मरने के बाद हर शख्स के किरदार को लॉन्ड्री में भेज दिया जाए जहां से वो धुल-धुलाकर आए.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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