कुछेक अपवाद छोड़ दिए जाएं तो संविधान लागू होने के बाद से आज तक किसी भी राज्य के राज्यपाल ने पांचवीं अनुसूची के तहत मिले अपने अधिकारों और दायित्वों का निर्वहन आदिवासियों के पक्ष में करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है.
झारखंड के ‘खूंटी क्षेत्र’ से मोदी युग की मीडिया में सुर्खियों में आया पत्थलगड़ी का आंदोलन पांचवीं अनुसूची यानी आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में तेजी से पनप रही परिघटना है. इसके ऐतिहासिक संदर्भ और अलग-अलग तरह के सांस्कृतिक आयाम हैं जिन पर बात किए बगैर आज के संदर्भों में इसे समझना मुश्किल होगा.
झारखंड के मामले में इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं और ब्रिटिशकालीन भारत की विशिष्ट परिस्थितियों की उपज हैं. जहां से हाल में इस आंदोलन को गति मिली है उसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य यही है कि इस क्षेत्र के 156 गांवों में किसी के पास जमीन व जंगल की व्यक्तिगत मालिकी नहीं बल्कि वंशज मालिकी है जिसे अंग्रेजी में ‘प्रोपराईटीशिप’ कहा गया है. इसके और भी अन्य संदर्भ हैं पर इस लेख में हमारी कोशिश है कि इसे केवल एक उभरती हुई परिघटना के रूप में समझा जाए.
निश्चित तौर पर संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले इन क्षेत्रों में पत्थलगड़ी या गांव गणराज्य की अवधारणा व आदिवासी समाज द्वारा की जा रहीं कार्यवाहियां नजरंदाज किए जाने लायक नहीं हैं. प्राकृतिक संसाधनों और आदिवासी सरोकारों से जुड़े लोगों का ध्यान इन पर रहा है.
जरूर इन हालिया कार्रवाईयों को लेकर बहुत स्पष्टता नहीं रही पर जब से मीडिया ने इन्हें एक तरह से गैर कानूनी, आपराधिक व देशद्रोह जैसी कार्रवाईयों के तौर पर व्यापक समाज के सामने पेश करने लगी है, तब से इन्हें लेकर एक बड़े वर्ग में जिज्ञासा भी बनी है और अपना पक्ष स्पष्ट करने की जरूरत भी पैदा हुई है.
हालांकि देश का राजनैतिक माहौल यह बनाया जा चुका है कि आपको हर कार्रवाई के दो ही पहलू दिखाए जाएंगें और या तो आप इस तरफ होंगे या उस तरफ और ऐसे में अगर अवधारणा और कार्रवाई दोनों ही पहलुओं पर इस परिघटना को राष्ट्रद्रोह, गैर कानूनी या गैर संवैधानिक बता दिया जाएगा तो प्रचार के दूसरी तरफ खड़े होना अलग तरह के साहस की मांग करता है.
हम देख रहे हैं कि विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों में स्वत: स्फूर्त आंदोलनों के उभार का दौर चल रहा है. 2 अप्रैल के भारत बंद ने सभी को स्तब्ध किया. ये आंदोलन अभी किसी परिपाटी से संचालित नहीं हो रहे हैं बल्कि एक मौलिक और त्वरित उभार इनमें है.
ऐसे में ‘पत्थलगड़ी’ या ‘गांव गणराज्य’ के उभार को हम तात्कालिक तौर पर इस श्रेणी में भी रख सकते हैं पर इनके पीछे बहुत तार्किक और ठोस ऐतिहासिक, संवैधानिक और जनतांत्रिक आधार हैं जिन्हें केवल तात्कालिकता के दबाव में नजरंदाज नहीं किया जा सकता?
इस रूप में यह स्वत: स्फूर्त भी हैं और आज के राजनैतिक देश काल में स्वाभाविक परिणति के तौर पर देखे जा सकते हैं. इस और इस तरह के तमाम आंदोलनों की पृष्ठभूमि में राज सत्ता का दमन और लोगों के संविधान प्रदत्त हक हुकूकों का अतिक्रमण, शोषण और उपेक्षा तो खैर है ही.
संविधान की पांचवीं अनुसूची, संविधान का अनिवार्य हिस्सा है. इसके बिना संविधान पूरा नहीं होता. इस बात पर इसलिए भी जोर देकर कहने की जरूरत है क्योंकि इसे लेकर तथाकथित ‘मुख्य धारा’ के समाज में कई तरह की भ्रांतियां हैं.
पांचवी अनुसूची जो दरअसल केवल राज्यपाल की शक्तियों, कर्तव्यों और इस संस्था की संवैधानिक भूमिका को निभाने का कायदा व दिग्दर्शिका है. राज्यपाल और राजभवन जैसी संस्थाओं को पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के अभिभावक के तौर पर देखा गया है और जो भारतीय गणराज्य का प्रतिनिधि है और देश के संघीय (फेडरल) ढांचे में इन क्षेत्रों से संवाद का प्रत्यक्ष जरिया है.
पांचवीं अनूसूची में राज्यपाल को यह अधिकार प्रदान किए हैं कि वो एक आदिवासी मंत्रणा परिषद का गठन करेंगे जो उनके द्वारा मांगे जाने पर अपनी सिफारिशें देगी और राज्यपाल उन सिफारिशों के आधार पर अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए एक अभिभावक होने के नाते उनके हित में संघीय सरकार को किसी भी मामले में अपनी राय देंगे और यहां तक कि तमाम कानूनों में स्थानीय व परंपराओं के आधार पर संगठित समाज के आलोक में संशोधन करेंगे और उन कानूनों को लागू करने या नहीं करने संबंधी निर्णय भी लेंगे जो विधि द्वारा मान्य होंगे.
पांचवीं अनूसूची वास्तव में इससे ज्यादा कुछ है नहीं और राज्यपाल जैसी संस्था को लेकर ही इसकी पूरी विषय वस्तु है.
ये और बात है और जो बहुत उल्लेखनीय है कि संविधान लागू होने के बाद से आज तक किसी भी राज्य के राज्यपाल ने अपने इन दायित्वों का निर्वहन करने में कोई रूचि नहीं दिखाई, कुछेक अपवाद हैं जैसे संयुक्त मध्य प्रदेश में राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने इसका अनुकरण करते हुए आदिवासी मंत्रणा परिषद का गठन भी किया और उनसे सिफारिशें भी मांगीं और आगे की संविधान प्रदत्त कार्यवाहियां कीं, इतना ही नहीं उन्होंने राजभवन के अंदर आदिवासी मंत्रणा परिषद का औपचारिक दफ्तर स्थापित करने की भी सैद्धांतिक पहल की, पर ऐसे उदाहरण बिरले ही हैं.
कुछ और राज्यों में भी शायद यह हुआ होगा पर प्राय: इस मामले में राज्यपालों की भूमिका उल्लेखनीय नहीं रही. इसके उलट आज अधिकांश राज्यों में आदिवासी मंत्रणा परिषद, मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में राज्य सरकार के आदेशों पर काम कर रही है.
यहां सरकार के अधीन होने से भी ज्यादा आपत्तिजनक बात यह है कि ये परिषदें एक राजनैतिक दल की अनुगामी हो गईं हैं और जो हश्र जन प्रतिनिधि के तौर पर किसी विधायक या सांसद का हुआ है वह इनमें शामिल प्रतिनिधियों का भी है जो स्वयं आदिवासी हैं और आदिवासी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं पर अंतत: अपनी प्रतिबद्धतता केवल पार्टी अनुशासन के प्रति जताते हैं या उन्हें ऐसा ही करना पड़ता है.
ऐसे में यह उभार आदिवासी जनता का उनके हितों के लिए बनायी गईं संस्थाओं के अवमूल्यन से पैदा हुई हताशा और प्रतिक्रया के रूप में भी देखा जा सकता है. यह उनके लिए बनाई गयी व्यवस्था को मजाक बना दिए जाने के खिलाफ संविधान की मूल व्यवस्था को लागू किए जाने के आग्रह से भी पैदा हुई है.
अब ऐसे में अगर पत्थलगड़ी या गांव गणराज्य आंदोलन अतिरेक में यह घोषणा करता है कि ‘सावधान आप पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में हैं’ और बाकी सैद्धांतिक बातें वही कहता है जो पांचवीं अनूसूची में लिखीं गयीं हैं तो यह केवल अतिरेक हो सकता है पर यह गैर संवैधानिक या गैर कानूनी नहीं हो सकता.
फर्ज करें अगर राजभवन अपने प्रदत्त अधिकारों के माध्यम से ठीक ऐसे ही बोर्ड इन क्षेत्रों में लगाता और जो लगाए जा सकते हैं, तब भी क्या यह इसी तरह देखा जाता?
इसके बाद संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची का जिक्र करना यहां जरूरी है और जो भी संविधान का अनिवार्य हिस्सा है और जिसके बिना भी भारत का संविधान पूरा नहीं होता उसमें भी गांव सभाओं को तमाम अधिकार दिए गए हैं. कुल 29 विषय ऐसे हैं जिन पर निर्णय लेने का अधिकार गांव सभाओं का है.
हमें नहीं भूलना चाहिए कि संघीय गणराज्य का ढांचा अधिकतम स्तर तक विकेंद्रीकृत ही होगा. यानी भारतीय गणराज्य केवल कई राज्यों का संघ नहीं है बल्कि एक-एक राज्य कई विविध इकाइयों का समुच्चय भी है. तो ग्यारहवीं अनुसूची में जब एक गांव को अपनी राजकीय व प्रशासनिक व्यवस्था, नियोजन और एक्जीक्यूशन के लिए सक्षम इकाई के तौर पर मान्यता दी गयी तो उसमें स्वायतत्ता का पूरा ख्याल रखा गया और उन्हें वो तमाम शक्तियां दी गयीं जो एक स्वायत्त इकाई को हर स्तर पर सक्षम बनाए.
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि गांव इस देश की बुनियादी, मौलिक और सबसे पुरानी इकाइयां हैं और भारत के संविधान में इन्हें उनके इन्हीं स्वरूपों के साथ अंगीकार किया गया और उससे भी ज्यादा बड़ी बात यह है कि इन इकाइयों ने संविधान को अंगीकार किया, न कि संविधान का ढांचा उन पर थोपा गया.
जरूर इनके लिए एक सक्षम व्यवस्था बनाने में बहुत वक्त लगा और 73वें व 74वें संशोधनों में इन्हें समुचित स्थान मिल सका. अब ऐसे में अगर ये दोनों आंदोलन यह कहते हैं कि बाहर से आये गैर आदिवासी ठेकेदारों या व्यापारियों का निर्बाध अतिक्रमण नहीं होने दिया जाएगा तो इसके पीछे यही स्वायत्तता की बुनियाद है.
जरूर यह घोषणा अतिरेक पूर्ण है और यह शायद इसलिए भी क्योंकि दूसरे को स्वायत्तता देने की अवधारणा देश के मुख्यधारा के समाज की संस्कृति कभी रही नहीं. अगर इसकी शुरुआत परिवार नामक इकाई से होती है तो वहां भी यह अवधारणा हमारी संस्कृति का हिस्सा बन ही नहीं पाया है.
आदिवासी समाज इसके मायने समझता है और स्वायत्तता से जुड़े मूल्यों को जीता आया है. इसलिए वह इस स्वायत्तता की मांग कर सकता है जो संवैधानिक मांग है. तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले समाज को भी इसका समर्थन करना चाहिए विशेष रूप में इस दौर में जहां हम तमाम संस्थाओं मसलन विश्वविद्यालयों, सीबीआई, आरबीआई, चुनाव आयोग, मीडिया आदि-आदि के अतिक्रमणों को लेकर चिंता व्यक्त कर रहे है, इन पर सरकारी नियंत्रण के परिणाम देख रहे हैं. ऐसे में पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के ये आंदोलन हमें दिशा दे रहे हैं, सरकार के अवैध नियंत्रण के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं, लामबंद हो रहे हैं. हमें इनका समर्थन करना चाहिए.
इसके बाद पेसा कानून का जिक्र करना बेहद जरूरी हो जाता है, जिसे लेकर डॉ. बीडी शर्मा यह कहते थे और लिखते रहे कि यह मात्र एक केंद्रीय कानून नहीं बल्कि यह भी संविधान का ही हिस्सा है क्योंकि यह कानून पांचवीं अनुसूची के तहत राजयपाल को दिए गए दायित्वों का जमीनी स्तर पर प्रशासनिक व्यवस्था निर्माण करने का कानून है जिसमें इन इलाकों की स्वायत्तता व परंपरा, रूढ़ियों व विशिष्ट सांस्कृतिक आचरणों के सन्दर्भों में राजनैतिक व प्रशासनिक व्यवस्था के गठन का मार्ग प्रशस्त करता है.
इस कानून में भी गांव सभा व ‘स्व-विधि’ यानी सदियों से चली आ रही समुदायों की अपनी पद्धति को सर्वोपरि मानते हुए लोक कल्याणकारी राज्य के साथ अपना सामंजस्य स्थापित करेगी. स्व-विधि को लेकर भी राज्यपाल व मंत्रणा परिषद की अहम भूमिका है जिसे लेकर भी अभी तक किसी राज्य में, किसी भी स्तर पर कोई पहलकदमी नहीं हुई है सिवाय मध्य प्रदेश के जहां रामेश्वर ठाकुर ने इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाये थे पर वो किसी अंजाम तक पहुंच नहीं सके.
हम देखते हैं कि पेसा कानून बड़े स्तर पर पहले से स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था व रीति-नीति के खिलाफ एक नई तरह की व्यवस्था का आगाज था. अब ऐसे में अगर 1996 के बाद से इस कानून को लागू करने के लिए नियमावली नहीं बनायी गयी या किसी भी राज्य ने इसे लागू करने में कोई रुचि नहीं ली और एक तरह से यथास्थिति बनाए रखने के लिए निष्क्रियता बरती तो क्या यह भी गैर कानूनी व असंवैधानिक नहीं था?
आज ये दोनों आंदोलन क्या कह रह रहे हैं कि हमारे क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधन बिना हमारी ग्राम सभा की सहमति के किसी भी उद्देश्य के लिए नहीं लिए जा सकते तो यह अपनी भाषा में, 1996 में ही सर्वोच्च न्यायालय के समता जजमेंट और पेसा कानून के बारे में ही तो बता रहे हैं.
जब 2006 में वन अधिकार मान्यता कानून वजूद में आया तो उसमें भी प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व, प्रबंधन और पुनरुत्पादन संबंधी तमाम अधिकार ग्राम सभा को ही दिए गए. वन अधिकार मान्यता कानून ने अपनी प्रस्तावना में ही इन गलतियों को जंगल में निवास कर रहे समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय की पदावली में स्वीकार किया जो ऊपर क्रमबद्ध तरीके से लिखीं गयीं जिनमें राज्यपाल व राजभवन की निष्क्रियता, ग्यारहवीं अनुसूची की उपेक्षा, समता निर्णय व पेसा कानून को लागू नहीं करना सब कुछ शामिल है.
वन अधिकार कानून को अमल में आए दस वर्ष बीत चुके हैं और आदिवासियों के व्यक्तिगत व सामुदायिक अधिकारों की दिशा में ठीक से एक कदम भी यह कानून नहीं चल पाया. जो अधिकार इस कानून में केवल मान्य होने थे यानी अधिकार दिए जा चुके हैं, वन विभाग व राजस्व विभाग में वो दर्ज हैं, उन्हें देने की प्रक्रिया ऐसी बना दी गई है कि आज आदिवासी समाज फिर एक बार गुनाहगार की तरह देखा जा रहा है.
अब ऐसे में अगर ये दोनों आंदोलन इस कानून की मूल भावना को अंगीकार कर अपने संसाधनों पर अपने नियंत्रण की बात कर रहे हैं तो यह अवैधानिक कैसे है? बल्कि इसके अलावा कुछ भी और कहा जाना अवैधानिक होना चाहिए. इससे ज्यादा वैधानिक क्या हो सकता है?
इन कानूनी पक्षों के अलावा इन आंदोलनों के सांस्कृतिक पक्ष हैं और जो बहुत ठोस व तार्किक हैं. हमने देखा है कि बार-बार संविधान के तहत आदिवासी हितों के लिए संसद व न्यायालय ने पहल ली है.
अगर आज की मीडिया के अनुसार इनकी वैधानिकता पर सवाल उठायें तो सबसे पहले हमें सर्वोच्च न्यायालय के उस समता जजमेंट को ही अवैधानिक कहना पड़ेगा जिसके अनुसार यह व्यवस्था दी गयी कि ‘आदिवासी समुदाय के संसाधन किसी गैर आदिवासी इकाई को नहीं दिए जा सकते और यहां तक कि भारत सरकार को भी गैर आदिवासी करार दिया गया’.
इतना रेडिकल निर्णय किसी सांवैधानिक व्यवस्था पर आधारित नहीं होगा यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है?
आदिवासी समाज का उद्वेलन इस मनुवादी व ब्राहमणवादी व्यवस्था के बढ़ते असर के प्रभाव में भी देखा जाना चाहिए. ये आंदोलन इस दौर में हिंदूत्ववादी वर्चस्व के खिलाफ एक बिगुल है और यह कोई नई घटना नहीं है. कई इलाकों में आदिवासी समाज खुद को हिंदू कहे जाने के खिलाफ प्रतिकार करते आया है.
जनगणना के दौरान चाहे सरना धर्म जोड़े जाने का सवाल हो या खुद को प्रकृति पूजक लिखवाये जाने की मुहिम रही हो व्यापक तौर पर यह हिंदू वर्चस्व के खिलाफ अपने सांवैधानिक अधिकारों के अभ्यास की ही परिघटनाएं हैं. आज अधिकांश भाजपा शाषित राज्यों में ये आंदोलन अगर मुखर हो रहे हैं तो इनके पीछे के कारणों को समझना कठिन नहीं है?
कहा जा रहा है कि इन पर माओवादी संगठनों का प्रभाव है पर अगर यह वाकई है तो हमें इस बात से तसल्ली मिल सकती है कि आज के दौर का माओवाद संविधान में आस्था रखते हुए आगे बढ़ेगा और हो सकता है निकट भविष्य में वह आंदोलन भी राज्य व संघीय गणराज्य को इसी रूप में स्वीकार कर लेगा.
अगर ऐसा है तो हमें जरूर इस नए आंदोलन का स्वागत करना चाहिए. हालांकि जो बात माओवाद या नक्सलवाद के सन्दर्भ में प्राय: अनुत्तरित है वो यह है कि जमींदारों व मालगुजारों के खिलाफ शुरू हुआ यह आंदोलन अन्तत: आदिवासी व प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध क्षेत्रों में कैसे पंहुचा? और अभी तक बना हुआ है?
इस विषय पर अगर समझदारी से बात हो तो शायद आज के इन आंदोलनों को भी सहृदयता के साथ समझा जा सकता है. हालांकि माओवादी व नक्सलवादी आंदोलनों का समर्थन एक परिपक्व लोकतंत्र में किया नहीं जा सकता क्योंकि वो हिंसा को अनिवार्य रास्ता मानते हैं तब केवल इस डर से कि पत्थलगड़ी या गांव गणराज्य आंदोलनों के ऊपर सरकार का दमन होना अवश्यंभावी है.
हम इस अहिंसक आंदोलन को समर्थन नहीं दे रहे और प्रकारान्तर से राज्य की तयशुदा हिंसा के सामने न केवल समर्पण कर रहे हैं बल्कि उसका समर्थन भी कर रहे हैं.
एक बात जो सिविल सोसायटी व अन्य स्थापित जन आदोलनों की तरफ से आ रही है वो यह कि यह आंदोलन चूंकि आदिवासी परम्पराओं को ही सर्वोपरी मान रहे हैं अत: इनमें संकीर्णता है और यह अलग-थलग पड़ रहे हैं और गैर आदिवासियों को लेकर नकारात्मक नजरिया विकसित हो रहा है या कई मामलों में इनकी रूढ़ियां संविधान के मूल्यों व बुनियादी प्रस्तावनाओं से न केवल भिन्न हैं बल्कि खिलाफ हैं इसलिए इनको लेकर स्पष्ट समर्थन नहीं दिया जा सकता?
इस मामले में केवल यह कहा जा सकता है कि आदिवासी समाज शुरू से ही पृथक रहा है और उसे संकीर्णता कहना उचित नहीं होगा, उसे विशिष्टता कहा जाए तो ज्यादा गरिमाममय होगा. हिंदुस्तान के जन आंदोलनों में कुछ नारे बहुत सामान्य हैं जिनमें एक नारा यह भी है-जिसकी लड़ाई, उसकी अगुवाई.
अब अगर आदिवासी समाज अपने अंदर नेतृत्व पैदा कर रहा है और अपनी लड़ाई की अगुवाई करने तैयार हो रहा है तो यह एक स्वागत योग्य पहल है. इसमें संकीर्णता नहीं है.
उस समाज के भी तजुर्बे हैं कि जन आंदोलनों की विकसित प्रणाली में गैर आदिवासी नेतृत्व के सहारे उन्हें वो सफलता नहीं मिल सकीं जो अपेक्षित थीं तो ऐसे में वो अपना रास्ता खुद बना रहे हैं. वो शायद इस बात से वाकिफ हैं कि राज काज की भाषा में उनकी पकड़ नहीं है या वो दक्षताएं नहीं है कि वो रांची/रायपुर सचिवालय या दिल्ली के मंत्रालयों में अर्जियों की भाषा लिख सकें पर उनकी लड़ाई स्थानीय स्व शासन की है जो संविधान प्रदत्त है तो ठीक है वो उसी भाषा में लड़ेंगे जो उन्हें आती है.
उनके रदीफ़ काफिये हम नहीं समझ पा रहे हैं या ‘दे आर नोट लाईक अस’ सिंड्रोम हमें व्यथित कर रहा है तो बात और है.
और अंत में हम इस दौर में इन आंदोलनों को लेकर अस्पष्ट हैं जब तमाम दबे कुचले वर्गों और समुदायों को यह सत्ता संरचना समझ आई गयी हो. हाल ही में मध्य प्रदेश में एक किसान आत्महत्या करता है वो अपने अंतिम नोट में देश के प्रधानमंत्री को अपनी हत्या का दोषी कहता है, वह स्थानीय साहूकार या बैंक का नाम नहीं लिखता है जिसके कर्ज से वह मरा है.
जब देश की संसद ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ जैसा कानून लाती है और उसमें लिखती है कि जहां यह क्षेत्र बनेगा उसे ‘विदेशी भूमि’ के तौर पर देखा जाएगा और उस क्षेत्र में कोई स्थानीय निकाय नहीं काम करेगा. कंपनी की अपनी सुरक्षा-व्यवस्था होगी और राज्य की पुलिस वहां जा नहीं सकेगी.
जिला प्रशासन की कोई भूमिका नहीं होगी, केवल एक कमिश्नर होगा जो हर मामले के लिए माध्यम का काम करेगा. तो क्या यह संविधान व कानून का उल्लंघन नहीं है लेकिन अगर आदिवासी ऊपर वर्णित तमाम कानूनों का हवाला देकर अपनी अभिव्यक्ति करता है, अतिरेक में ही सही तो वह गैर कानूनी व असंवैधानिक होगा?
तमाम शहरों में गेटेड कालोनियों, प्रतिष्ठानों, दफ्तरों आदि को देखने के हम अभ्यस्त हैं जिनमें आपका प्रवेश उनकी सहमति के बिना नहीं हो सकता तब हमारे मन में यह सवाल क्यों नहीं उठता कि यह गैर कानूनी है?
(सत्यम श्रीवास्तव सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं. यह आलेख एडवोकेट अनिल गर्ग के साथ हुई बातचीत के आधार पर लिखा गया है. अनिल जंगल, जमीन और आदिवासी क्षेत्रों पर पिछले तीन दशकों से शोध व अध्ययन के लिए जाने जाते हैं.)