प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी नेपाल यात्रा के दौरान दोनों देश के मध्य विश्वास को बढ़ाते नज़र नहीं आए. वे नेपालियों से ज़्यादा भारतवासियों, उनसे भी ज़्यादा कर्नाटक के मतदाताओं और सबसे ज़्यादा हिंदुओं को संबोधित करते दिखे.
अवध की एक पुरानी कहावत का अर्थ है-एक हाथ से दो तरबूज नहीं उठा करते, लेकिन अपने व्यक्तिगत पराक्रम को, जो शुरू से ही वास्तविक कम और आभासी ज्यादा रहा है, सच्चाई की जमीन पर ही नहीं, लोगों की नजरों में भी बरकरार रखने की चुनौती झेल रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जरूरत से ज्यादा तरबूजों का मोह उन्हें ऐसी कोशिशों से बाज नहीं आने देता.
सो, उनकी गत शुक्रवार-शनिवार की नेपाल यात्रा भी इसकी अपवाद नहीं ही सिद्ध हो पाई. लेकिन चूंकि विगत में वे कई बार एक तीर से दो-दो, तीन-तीन और चार-चार शिकार कर चुके हैं (उनके पराक्रम का बखान करने वाले तो उनके ऐसे शिकारों की संख्या और भी बढ़ाकर बताते हैं), इसलिए उन्हें इस यात्रा के तीर से कई निशाने साधते देख किसी को भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ. न उनके समर्थकों को और न ही विरोधियों को.
चार साल के उनके प्रधानमंत्रित्व में तीसरी बार हुई उनकी इस नेपाल यात्रा का घोषित उद्देश्य तो खैर दोनों देशों के संबंधों को सामान्य बनाने के प्रयास करना ही था, जिनके तहत कुख्यात नाकेबंदी के कारण नेपाली जनता में भारत के खिलाफ पैदा हुई कड़वाहट को दूर करने और भारत के सहयोग से वहां चल रही महत्वाकांक्षी परियोजनाओं का क्रियान्वयन तेज करने के जतन भी शामिल थे.
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कोई महीने भर पहले अपनी पहली भारतयात्रा पर नई दिल्ली आए थे तो उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री को एक बार फिर अपने देश आने का न्यौता दिया था, जिसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया था.
याद रखना चाहिए कि ओली ने 2015 में अपने देश के संविधान लेखन में जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उसे भारत का यथा अवसर समर्थन नहीं मिल सका था और उसके बाद गैर-आधिकारिक गतिरोध की स्थिति बनी रही थी. सो भारत की ओर से इस यात्रा को ‘भूल-चूक, लेनी-देनी’ के तौर पर भी लिया जा रहा था.
इसलिए और भी कि आज की तारीख में नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जिसे रोकने का एक ही तरीका है कि नेपाल को पुराने जख्म भरने और भविष्य में नए न देने का भरोसा दिलाया जाये. शायद इसीलिए इस मांग को दफना देने में ही भलाई समझी गई कि भारत भारतीय मूल के मधेसी समुदाय की मांग के अनुसार नेपाल के संविधान में संशोधन की मांग करे.
अब सरकारी तौर पर इस यात्रा को बेहद सफल बताया जा रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि ‘पड़ोसी प्रथम’ का नया जुमला उछालने के बावजूद इस दौरान प्रधानमंत्री की पिछली दो यात्राओं जैसी गर्मजोशी नहीं दिखी.
सोशल मीडिया पर तो लोग यह कहकर नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत विरोध तक पर उतर आये कि उनके विरोध को भारत का विरोध न समझा जाये. अगर इसका अर्थ यह है कि प्रधानमंत्री की रीति-नीति से जैसे भारत के लोगों का मोहभंग हो रहा है, पड़ोसी देशों में भी उनका इकबाल पहले जैसा नहीं रहा, तो यह न प्रधानमंत्री के 56 इंच के सीने को और फुलाने वाला है और न ही उस विश्वास को बढ़ाने वाला, जो दो पड़ोसी देशों के बीच प्रगाढ़ रिश्तों की अनिवार्य शर्त होता है.
यों, सच कहें तो इस विश्वास के न बढ़ने से भी ज्यादा दुखद यह है कि प्रधानमंत्री अपनी यात्रा के एक भी दिन इसे बढ़ाने के प्रति गंभीर नहीं दिखे. वे नेपालियों से ज्यादा भारतवासियों, उनसे भी ज्यादा कर्नाटक के मतदाताओं और सबसे ज्यादा हिंदुओं को संबोधित करते दिखे.
‘भव्य’ स्वागत से अभिभूत हुए तो भी यह नहीं ही कहा कि भारत व नेपाल के संबंध ऐसी ठोस सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व प्राकृतिक सच्चाइयों और जरूरतों पर आधारित हैं, जिन्हें बदला नहीं जा सकता. अपने भाषण में संस्कृति की थोड़ी चर्चा की भी तो वैसे ही संकीर्ण संदर्भों से जोड़कर, जिनसे जोड़कर उसे संकीर्ण या कट्टर बनाने के लिए उनके ‘परिजन’ कुख्यात है.
बहुप्रचारित रामायण सर्किट के केंद्रों को जोड़ने वाली जनकपुर अयोध्या मैत्री बस को हरी झंडी दिखाने के बाद प्रधानमंत्री बात को देव संस्कृति तक खींच ले गये और ‘नेपाल के बगैर हमारे राम और धाम अधूरे’ कहकर दोनों देशों के नागरिकों के बजाय सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं को संबोधित करने लगे.
अकारण नहीं कि इसके तुरंत बाद पूछा जाने लगा कि क्या उनका भी अपने किये-धरे के बूते अगला चुनाव जीतने का विश्वास खत्म होने लगा है? अगर नहीं तो ‘विकास के महानायक’ को हिंदुत्व के कार्ड की जरूरत क्यों पड़ गयी है?
क्या वे भी यह समझने की गलती कर रहे हैं कि देश के हिंदू 2019 में वोट देने जायेंगे तो इमोशनल अत्याचार के तौर पर जनकपुर से अयोध्या तक चलाई गई एक डीलक्स बस के झांसे में आकर रोजी-रोटी संबंधी वे समस्त परेशानियां भूल जायेंगे जो उन्होंने पिछले चार साल में झेली हैं और जिनकी जिम्मेदारी लेने से बचने के लिए प्रधानमंत्री को कांग्रेस को लगातार कोसते रहना ही एकमात्र उपाय नजर आता हैं?
क्या पता प्रधानमंत्री ने अयोध्या में अपने मुख्यमंत्री द्वारा उस डीलक्स बस की बेहद जनविरल अगवानी के वीडियो वगैरह देखे या नहीं? देखे होंगे तो समझ गये होंगे कि अब आम हिंदुओं ने ऐसे इमोशनल अत्याचारों को नकारना शुरू कर दिया है. वे इस जमीनी हकीकत से वाकिफ हो गये हैं कि इस बस के, अयोध्या में जिसके रुकने के लिए बसस्टैंड तक नहीं है, चलने से पहले भी लोग बेरोकटोक अयोध्या से जनकपुर और जनकपुर से अयोध्या आते-जाते रहे हैं.
वैसे भी नेपाल की स्थिति पाकिस्तान जैसी नहीं है, जहां से आवागमन के लिए यात्री ऐसी मैत्री बसों के मोहताज हों. दूसरे पहलू पर जायें तो जो अयोध्या अपने अतीत में सीता को उनकी वांछित जगह और सम्मान नहीं दे सकी, केवल राम की होकर रह गई, वह उनके मायके से आने वाली बस को लेकर क्योंकर उत्साहित होेगी?
भले ही इस बहाने प्रधानमंत्री, जो अपने चार सालों में एक बार भी अयोध्या नहीं आये, पहली बार जनकपुर जा पहुंचे हों और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भारत व नेपाल को ‘दो शरीर, एक आत्मा’ बता रहे हों.
जाहिर है कि प्रधानमंत्री द्वारा नेपाल से कर्नाटक और हिंदुत्व को साधने की ‘साधना’ के सफल हो जाने की भी फिलहाल कोई गारंटी नहीं है. पक्का नहीं है कि प्रधानमंत्री एक हाथ से दो तरबूज उठा ही लेंगे. आगामी लोकसभा चुनावों के संदर्भ में देश की विदेश नीति के साथ धर्म, आस्था और अपनी पार्टी के हितों के घालमेल का जो सिलसिला उन्होंने अपनी पिछली विदेश यात्रा के दौरान लंदन में प्रसून जोशी के साथ प्रायोजित बातचीत से शुरू किया था, उसे नेपाल से कर्नाटक के वोटरों से अपील तक लाकर भले ही वे कोई और रिकॉर्ड बनाना चाह रहे हों, एग्जिट पोल उसके बावजूद कर्नाटक में उनकी पार्टी को बहुमत तक नहीं ही पहुंचा रहे.
अगर इसमें कोई संकेत छिपा है तो भले ही उन्होंने 2014 में देश के विकास के आकांक्षियों और कट्टरपंथियों दोनों को एक साथ साध लिया था, यह कैसे कह सकते हैं कि उसमें काठ की हांडी के बार-बार न चढ़ सकने का संदेश नहीं है?
यकीनन, अपने प्रधानमंत्रित्व की चौथी साल गिरह की देहरी पर खड़े होकर सीता की जन्मस्थली जनकपुर और साथ ही ‘हमारे राम’ को याद कर प्रधानमंत्री ने अपनी नीयत की झलक दिखला ही है. 2014 से पहले यही दिन थे ,जब वे अपनी संकीर्ण सांप्रदायिक या कि हिंदू छवि से निजात पाने के लिए ‘विकास के महानायक’ का चोला ओढ़ने निकले थे.
तब वह चोला उनके लिए बहुत मुफीद भी सिद्ध हुआ था. कौन जाने, अब उनको फिर चोलाबदल की जरूरत महसूस हो रही हो और नया उपलब्ध न होने की हालत में 2014 की उतरन से ही काम चलाना चाहते हों. ऐसा है तो देश को उनके नए राजनीतिक चमत्कारों, पढ़िए फरेबों, के लिए तैयार रहना चाहिए. हां, अंजाम के लिए भी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)