शिवाजी और औरंगज़ेब के बीच चले लंबे संघर्ष का हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष से कोई संबंध नहीं है. यह शुद्ध रूप से राजनीतिक सत्ता के लिए लड़ाई थी, वरना शिवाजी की सेना और प्रशासन में भी मुसलमानों की कमी नहीं थी.
विचित्र विसंगति है कि हमें मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब के बारे में तो बहुत कुछ पता है लेकिन उस व्यक्ति औरंगज़ेब के बारे में हम बहुत कम जानते हैं जिसने लगभग आधी सदी तक तक़रीबन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर हुक़ूमत की. उसके साम्राज्य की सीमाएं अशोक और अकबर के साम्राज्य की सीमाओं से भी अधिक विस्तृत थीं और पहली बार लगभग पूरा उपमहाद्वीप एक शासन के तहत आया था. औपनिवेशिक इतिहासलेखन में औरंगज़ेब को लगभग एक खलनायक की छवि वाले शासक की तरह पेश किया गया है और उन पर सर्वाधिक विस्तृत और महत्वपूर्ण शोध करने वाले मूर्धन्य इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार की पुस्तकें भी दुर्भाग्य से इसी छवि को पुष्ट करती हैं.
यह छवि एक ऐसे कट्टर, धर्मांध और क्रूर शासक की है जिसने हिंदुओं पर भारी अत्याचार किए, उनके पूजास्थलों को तोड़ा, अकबर द्वारा समाप्त किए गए जज़िया टैक्स को दुबारा थोपा और लाखों हिंदुओं को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाया. इसी के साथ राणा प्रताप और शिवाजी को हिन्दू नायकों के रूप में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि जुड़ी है और अकबर-प्रताप तथा औरंगज़ेब-शिवाजी के संघर्ष को अत्याचारी मुस्लिम शासन के ख़िलाफ़ हिन्दू प्रतिरोध की तरह प्रस्तुत किया जाता है. जनता और आम शिक्षित जनों के बीच यही छवि सर्वाधिक लोकप्रिय है. यही कारण है कि अगस्त 2015 में राजधानी नई दिल्ली में स्थित औरंगज़ेब मार्ग का नाम बदल कर ए पी जे अब्दुल कलाम मार्ग किया गया.
इस संदर्भ में लोग भूल जाते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने और वैमनस्य पैदा करने की औपनिवेशिक नीति के तहत मुग़ल बादशाहों के ख़िलाफ़ हिन्दू राजाओं के युद्ध को विदेशी मुस्लिम शासकों और देशी हिन्दू राजाओं के बीच धार्मिक आधार पर हुए संघर्ष में तब्दील कर दिया गया है. वरना हक़ीक़त यह है कि औरंगज़ेब और शिवाजी के बीच संघर्ष शुद्ध राजनीतिक सत्ता और वर्चस्व का संघर्ष था, हिन्दू-मुसलमान का सांप्रदायिक संघर्ष नहीं. उस समय के शासक, चाहे वे मुसलमान हों या हिन्दू, बहुत-से ऐसे काम करते थे जो आज की आधुनिक मूल्यदृष्टि के अनुसार अनुचित और क्रूर माने जाएंगे लेकिन उस समय उन्हें सामान्य माना जाता था.
इतिहासकार ऑड्रे ट्रुश्के ने अपनी पुस्तक ‘औरंगज़ेब: द मैन एंड द मिथ’ में औरंगज़ेब को आज की आधुनिक दृष्टि और मूल्यों के माध्यम से नहीं, बल्कि औरंगज़ेब के समय की दृष्टि और मूल्यों के आधार पर समझने और विश्लेषित करने की कोशिश की है, और उनकी यह कोशिश क़ामयाब रही है. इसके पहले उनकी पुस्तक ‘कल्चर ऑफ एन्काउंटर्स: संस्कृत एट द मुग़ल कोर्ट’ ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट कराया था कि विभिन्न मुग़ल बादशाहों के दरबार में लगातार सांस्कृतिक संश्लेषण की प्रक्रिया जारी थी और संस्कृत विद्वानों को महत्व दिया जाता था.
औरंगज़ेब के बड़े भाई दारा शिकोह ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, इसलिए अक्सर दोनों के बीच तुलना की जाती है और दारा को सहिष्णु, धार्मिक एवं सांस्कृतिक संश्लेषण का समर्थक और दयालु माना जाता है जबकि औरंगज़ेब की छवि कट्टर, हिन्दूविरोधी और क्रूर व्यक्ति की है क्योंकि उन्होंने सिंहासन पाने के लिए अपने भाइयों की हत्या की थी और पिता को क़ैद में डाल दिया था. लेकिन हक़ीक़त इतनी सरल नहीं थी. मुग़लों में हिंदुओं की तरह सबसे बड़े बेटे को उत्तराधिकारी मानने की परंपरा नहीं थी. इसलिए हर पीढ़ी में उत्तराधिकार के लिए लड़ाई होती थी और ‘ताबूत या तख़्त’ उस समय का आदर्श वाक्य था.
औरंगज़ेब ने अपने भाइयों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया और उनकी हत्या करवा दी, लेकिन ऐसा करना उस समय अपवाद नहीं था. ट्रुश्के ने इतालवी यात्री निक्कोलि मानुच्ची को उद्धृत करते हुए जानकारी दी है कि जिस दिन दारा शिकोह को मृत्युदंड दिया जाना था, उस दिन औरंगज़ेब ने उनसे पूछा कि यदि दारा की जीत हुई होती तो वे उनके साथ क्या सुलूक करते? इस पर दारा ने कहा कि उन्होंने औरंगज़ेब के शरीर के चार टुकड़े करवाकर उन्हें दिल्ली के चार प्रमुख दरवाज़ों पर लटकवा दिया होता.
खैर, औरंगज़ेब ने दारा की लाश को अपने पूर्वज हुमायूं के मक़बरे में दफ़नाया. इसी के साथ यह भी सही है कि दारा से अपने को बिल्कुल अलग दर्शाने के लिए उन्होंने दारा की बौद्धिक और सांस्कृतिक परियोजनाओं को तत्काल बंद कर दिया. लेकिन इसी के साथ यह भी एक तथ्य है कि औरंगज़ेब के मामा शायस्ता खान स्वयं संस्कृत में कविता करते थे.
औरंगज़ेब फ़ैसले लेते समय हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से नहीं, बल्कि एक शासक के चश्मे से देखते थे. उनके फ़ैसलों का आधार हिंदुओं पर अत्याचार करना नहीं, बल्कि अपनी सत्ता के वर्चस्व को बनाए रखना था. जहां भी उनकी सत्ता को चुनौती मिली, उन्होंने दमन का सहारा लिया और इस क्रम में मंदिर भी तोड़े गए. लेकिन उन्होंने मंदिरों को जागीरें भी दान में दीं. अधिकांश मंदिर उत्तर भारत में तोड़े गए जबकि दक्षिण भारत में मंदिरों की बहुलता है और वहां औरंगज़ेब के जीवन के अंतिम बीस वर्ष बीते थे. ऑड्रे ट्रुश्के का कहना है कि औरंगज़ेब ने कुल मिलाकर कुछेक दर्जन मंदिर ही तोड़े. अगर उन्होंने सिख गुरु तेग़बहादुर को मृत्युदंड दिया तो सूफ़ी मुक्तचिंतक सरमद का भी सिर उतरवाया क्योंकि वह दारा का समर्थक था.
शिवाजी के साथ संघर्ष भी उनके हिन्दू होने के कारण नहीं था. तथ्य यह है कि पिछले किसी भी मुग़ल बादशाह के मुक़ाबले औरंगज़ेब के दरबार और प्रशासन में उच्च पदों पर आसीन हिंदुओं की संख्या कहीं अधिक थी. शिवाजी ने भी पहले औरंगज़ेब की अधीनता स्वीकार कर ली थी और मई 1666 में वे उनके दरबार में मनसबदार बन कर पेश भी हुए थे और उन्होंने दस्तूर के मुताबिक बादशाह को भेंट आदि भी दी थीं. लेकिन शिवाजी बहुत अधिक दिन इस नई भूमिका में न रह सके और विद्रोह कर गए. उनके साथ चले लंबे संघर्ष का हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष से कोई संबंध नहीं है. यह शुद्ध रूप से राजनीतिक सत्ता के लिए लड़ाई थी, वरना शिवाजी की सेना और प्रशासन में भी मुसलमानों की कमी नहीं थी.
औरंगज़ेब की कट्टरता का एक प्रमाण यह माना जाता है कि उन्होंने अपने साम्राज्य में संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन ट्रुश्के ने एक अन्य इतिहासकार कैथरीन बटलर स्कोफील्ड के शोध के हवाले से बताया है कि औरंगज़ेब स्वयं कुशल संगीतज्ञ थे और संगीत के जानकार रसिक थे. अपने जीवन के अंतिम दशकों में उन्होंने केवल दरबार में गाने-बजाने पर रोक लगाई थी क्योंकि वे इस तरह अपने आप को एक ऐसी चीज़ से वंचित रख रहे थे जिसे वह बहुत पसंद करते थे. लेकिन दरबार के बाहर संगीत पर प्रतिबंध नहीं था. औरंगज़ेब के शासनकाल में फ़ारसी में भारतीय संगीत पर जितनी पुस्तकें लिखी गईं, उनकी संख्या उससे पहले के पांच सौ सालों में लिखी गई पुस्तकों से भी अधिक है.
ट्रुश्के ने विस्तार से बताया है कि औरंगज़ेब के काम न्याय के उनके आदर्शों, राजनीतिक और नैतिक आचरण के लिए प्रतिबद्धता और राजनीतिक आवश्यकताओं द्वारा निर्धारित होते थे और वे अपने समय के मनुष्य थे, हमारे समय के नहीं. उनकी विश्वदृष्टि के गठन में उनकी मुग़ल सांस्कृतिक विरासत और स्वयं की धार्मिकता का विशेष योगदान था. लेकिन उनका उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम फ़साद पैदा करना नहीं था.
अंत तक उन्हें इस बात का अफसोस रहा कि मक्का के शेरिफ़ ने उन सात सालों के उनके शासन को इस्लाम की दृष्टि से वैध नहीं माना जिनके दौरान उनके पिता शाहजहां क़ैद में रहे. साम्राज्य का विस्तार उन्होंने ऐसा किया जैसा भारत के इतिहास में किसी ने भी नहीं किया था. लेकिन जीवन के अंतिम वर्षों में उनके सामने विफलता मुंह बाये खड़ी थी. मरने से कुछ दिन पहले एक पत्र में उन्होंने लिखा: ‘मैं एक अजनबी की तरह आया, और अजनबी की तरह ही चला जाऊंगा.’