इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब महामहिमों का विवेक लोकतंत्र को चोटिल होने से नहीं बचा पाया.
नई दिल्ली: कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से कांग्रेस, भाजपा और जेडीएस सभी सरकार बनाने के दावे कर रहे हैं. त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में राज्यपाल की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो गई है.
अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हुई हैं कि कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला सरकार बनाने के लिए किसको बुलाएंगे. राज्यपाल के पास अभी दो विकल्प हैं, पहला ये कि वे सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को पहले बुलाएं और बहुमत साबित करने के लिए कहें या फिर जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन को सरकार बनाने के लिए न्यौता दें, जोकि बहुमत का दावा कर रहे हैं.
ऐसे में दोनों धड़े राज्यपाल को अपने-अपने तरीके से संवैधानिक और नैतिक मूल्यों की याद दिला रहे हैं. कानून के जानकारों में इस बात पर आम सहमति है कि ऐसे स्थिति में राज्यपाल को फैसला लेने में अपने विवेक और विशेषाधिकार का इस्तेमाल करने की पूरी छूट है.
लेकिन राज्यपाल के ‘विवेक’ पर कितना भरोसा किया जा सकता है? इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब महामहिमों का विवेक लोकतंत्र को चोटिल होने से नहीं बचा पाया है.
अभी कांग्रेस समेत विपक्षी दल के कई नेता हाल ही में गोवा, मेघालय और मणिपुर में राज्यपालों के ‘विवेक’ पर लिए गए फैसले के आधार पर कर्नाटक का फैसला लेने की अपील कर रहे हैं.
कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने कहा है कि गोवा, मेघालय और मणिपुर में जो राज्यपाल के संवैधानिक अधिकार थे वही कर्नाटक में भी लागू होना चाहिए. उन्होंने एक पुराने न्यूज रिपोर्ट को जिक्र किया है जिसमें जेटली ने कहा था अगर त्रिशंकु विधानसभा हो तो राज्यपाल बहुमत मिलने वाले गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकता है. ये संवैधानिक रूप से सही है.
Arun Jaitley ji, on what is constitutionally the right thing to do for the governor.
Same applies for Karnataka too, dear BJP. https://t.co/usVty6V6Rf
— Priyanka Chaturvedi (@priyankac19) May 15, 2018
कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने भी कहा कि चुनाव बाद गठबंधन को सरकार गठन के लिए सबसे पहले आमंत्रित करने में हाल के कई उदाहरण हैं. पिछले साल मार्च में 40 सदस्यीय गोवा में 18 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन राज्यपाल ने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को आमंत्रित किया.
सुरजेवाला ने कहा कि मार्च 2017 में 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा में कांग्रेस के 28 विधायक जीते और भाजपा के 21 विधायक जीते, लेकिन राज्यपाल ने चुनाव बाद गठबंधन के आधार पर भाजपा नीत गठबंधन को सरकार बनाने का न्योता दिया और वहां सरकार बनी. मेघालय में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन सरकार बनाने के लिए भाजपा और उसके साथी दलों को बुलाया गया.
Same ‘rules’ followed when state govts were formed in Goa, Manipur and Bihar recently, must be followed now. Sauce for the goose must be sauce for the gander! JD(S)-Congress are together, past the majority mark & must be called to form the govt and take the floor test #Karnataka
— Sitaram Yechury (@SitaramYechury) May 15, 2018
माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने भी जेटली के ट्वीट का हवाला देते हुए लिखा है, ‘भाजपा सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने गोवा, मणिपुर और मेघालय में सरकार बनाने के लिए सबसे बड़ी पार्टी को आमंत्रित नहीं किया था. केंद्रीय मंत्री ने उन्हें समर्थन देने वाले तर्क दिए थे. उम्मीद है कि कर्नाटक में भी इसका पालन किया जाएगा.’
गौरतलब है कि परंपरा यह रही है कि राज्यपाल त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में सबसे बड़े दल या चुनाव पूर्व बने सबसे बड़े गठबंधन को सरकार बनाने का न्यौता देते हैं. लेकिन बहुत बार ऐसा नहीं हुआ है, क्योंकि सरकार बनाने के लिए न्यौता देने का अधिकार राज्यपाल के विवेक पर छोड़ा गया है.
अभी सभी विपक्षी दल अरुण जेटली का हवाला दे रहे हैं जिन्होंने सबसे ज्यादा समर्थन वाले गठबंधन को सही ठहराया था. गोवा में सरकार बनने के समय उन्होंने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने इस मसले के पहले राज्यपालों के ‘विवेक’ पर लिए गए निर्णय को आधार बनाया है.
‘मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में 21 विधायकों के समर्थन की स्थिति में राज्यपाल 17 विधायकों के अल्पमत वाले दल (कांग्रेस) को सरकार बनाने के लिए नहीं बुला सकते थे. राज्यपाल के इस फैसले को सही ठहराने के कई पूर्व आधार हैं. वर्ष 2005 में बीजेपी ने झारखंड की 81 में से 30 सीटें जीतीं. जेएमएम नेता शिबू सोरेन जिनके पास उनके दल के 17 विधायक और अन्य विधायकों का समर्थन था, उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया.जम्मू कश्मीर में 2002 में नेशनल कांफ्रेंस के 28 विधायक जीते, लेकिन राज्यपाल ने पीडीपी और कांग्रेस के 15 और 21 विधायकों वाले गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया. दिल्ली में 2013 में बीजेपी ने 31 सीटें जीतीं, लेकिन 28 विधायकों वाली आप पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया.इस तरह के अन्य मामलों में 1952 में मद्रास, 1967 में राजस्थान और 1982 में हरियाणा में सरकार बनाने के लिए की गई प्रक्रिया भी शामिल है.’
यानी कि कांग्रेस और अरुण जेटली ऐसे तमाम उदाहरण दे रहे हैं जब राज्यपालों के ‘विवेक’ से लिए गए फैसले नैतिकता और शुचिता से भरे नहीं रहे हैं.
अगर हम गौर करें तो ऐसे कई और उदाहरण हमारे सामने आते हैं. 1982 में हरियाणा की 90 सदस्यों वाली विधानसभा के चुनाव हुए थे और नतीजे आए तो त्रिशंकु विधानसभा अस्तित्व में आई. कांग्रेस-आई को 35 सीटें मिलीं और लोकदल को 31 सीटें. छह सीटें लोकदल की सहयोगी भाजपा को मिलीं.
राज्य में सरकार बनाने की दावेदारी दोनों ही दलों ने रख दी. कांग्रेस के भजनलाल और लोकदल की तरफ से देवीलाल. लेकिन राज्यपाल गणपति देव तपासे ने कांग्रेस के भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. कहा जाता है कि इस बात से गुस्साये देवीलाल ने राज्यपाल तपासे को थप्पड़ मार दिया था.
इसी तरह 1983 से 1984 के बीच आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे ठाकुर रामलाल ने बहुमत हासिल कर चुकी एनटी रामाराव की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. उन्होंने सरकार के वित्त मंत्री एन भास्कर राव को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया. बाद में राष्ट्रपति के दखल से ही एनटी रामाराव आंध्र की सत्ता दोबारा हासिल कर पाए थे. तत्कालीन केंद्र सरकार को शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बनाना पड़ा.
कर्नाटक में तो इसका इतिहास रहा है. 80 के दशक में कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने जनता पार्टी के एसआर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. बोम्मई ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. फैसला बोम्मई के पक्ष में हुआ और उन्होंने फिर से वहां सरकार बनाई.
इसी तरह कर्नाटक में राज्यपाल के हस्तक्षेप का एक मामला 2009 में देखने को मिला था जब राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने बीएस येदियुरप्पा वाली तत्कालीन भाजपा सरकार को बर्खास्त कर दिया था. राज्यपाल ने सरकार पर विधानसभा में गलत तरीके से बहुमत हासिल करने का आरोप लगाया और उसे दोबारा साबित करने को कहा था.
उत्तर प्रदेश में भी 1998 में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी. बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार दिया. जगदंबिका पाल दो दिनों तक ही मुख्यमंत्री रह पाए और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
बिहार में ऐसा करते हुए 22 मई, 2005 की मध्यरात्रि को राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दी. उस साल फरवरी में हुए चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ था. बूटा सिंह ने तब राज्य में लोकतंत्र की रक्षा करने और विधायकों की खरीद फरोख्त रोकने की बात कह कर विधानसभा भंग करने का फैसला किया था. लेकिन इसके खिलाफ दायर याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह के फैसले को असंवैधानिक बताया था.
यह लिस्ट लंबी है. 1959 में केरल में ईएमएस नंबूदिरीपाद के नेतृत्व वाली बहुमत की सरकार को कांग्रेस नीत केंद्र सरकार द्वारा राज्यपाल की सिफारिश पर भंग किया गया था.
1967 में विपक्षी सरकारों को राज्यपाल द्वारा भंग कराया गया था. 1977 में जनता पार्टी की मोरारजी सरकार द्वारा कांग्रेस की राज्य सरकारों को राज्यपालों को मोहरा बनाकर भंग कराया गया था. 1980 में कांग्रेस की इंदिरा सरकार ने जनता पार्टी की राज्य सरकारों को भंग कर दिया था.
यानी कि देश के राजनीतिक इतिहास में त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में राजनीतिक दलों ने सारी नैतिकता को ताक पर रखकर सत्ता हथियाने की कोशिशें की हैं और राज्यपाल लोकतंत्र के रक्षक बनने के बजाय केंद्र में सत्तारूढ़ दल के प्रहरी की भूमिका निभाते हुए दिखे हैं.