जयंती विशेष: राममोहन ‘राजा’ शब्द के प्रचलित अर्थों में राजा नहीं थे. उनके नाम के साथ यह शब्द तब जुड़ा जब दिल्ली के तत्कालीन मुग़ल शासक बादशाह अकबर द्वितीय ने उन्हें राजा की उपाधि दी.
राजा राममोहन राय को हम आमतौर पर भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और अपने समय के अप्रतिम समाज सुधारक के रूप में जानते हैं. दारुणतम सती प्रथा व बाल विवाह समेत पांरपरिक हिंदू धर्म व संस्कृति की अनेक रूढ़ियों के उन्मूलन, महिलाओं के उत्थान और पारिवारिक संपत्ति व विरासत में अधिकार के लिए उन्होंने अपनी ओर से कोई भी संभव प्रयत्न उठा नहीं रखा.
उनकी बाबत कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा है, ‘राममोहन राय के युग में भारत में कालरात्रि-सी उतरी हुई थी. लोग भय व आतंक के साये में जी रहे थे. मनुष्य और मनुष्य के बीच भेदभाव बनाये रखने के लिए उन्हें अलग-अलग खानों में बांट दिया गया था. उस कालरात्रि में राममोहन ने अभय-मंत्र का उच्चारण किया और प्रतिबंधों को तोड़ फेंकने की कोशिश की.’
22 मई, 1772 को हुगली के राधानगर गांव के एक बंगाली हिंदू परिवार में जन्में राममोहन के पिता रमाकांत राय वैष्णव थे तो उनकी माता तारिणी देवी शैव. आगे के जीवन में राममोहन क्या बनें, इसे लेकर उन दोनों में गहरे मतभेद थे.
कहते हैं कि उपनिषदों के वेदांतदर्शन की शिक्षाओं व सिद्धांतों के गहरे तक प्रभावित राममोहन के मन में एक समय साधु बनने की इच्छा प्रबल हुई तो वह मां के प्रेम के कारण ही उसे पूरी करने की दिशा में प्रवृत्त नहीं हो पाए. यह बात और है कि उपनिषद व वेदांत के विशद अध्ययन का उनपर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे ही पूरे जीवन उनके चिंतन की दिशा तय करते रहे.
पिता रमाकांत बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराजउद्दौला के राजकाज चलाने वाले अधिकारियों में से एक थे और चूंकि परिवार में कोई आर्थिक समस्या नहीं थी, इसलिए वे चाहते थे कि राममोहन की सुचारु व सर्वोत्कृष्ट शिक्षा-दीक्षा के रास्ते में कतई कोई बाधा न आये.
गंभीर सोच-विचार के बाद उन्होंने उनको छुटपन में ही फारसी व अरबी की पढ़ाई के लिए पटना भेज दिया और संस्कृत की शिक्षा उसके उन दिनों के सबसे बड़े केंद्र वाराणसी में दिलायी. शिक्षा पूरी होने के थोड़े ही दिनों बाद, 1803 में अपने डिगबी नाम के एक अंग्रेज मित्र की अनुकंपा से, जो अधिकारी थे, राममोहन ईस्ट इंडिया कंपनी में मुंशी बन गये और अगले बारह वर्षोे तक उसका हुक्म बजाते रहे.
अलबत्ता, इस दौरान उन्होंने कभी भी अपने स्वाभिमान, अस्मिता और निडरता से समझौता नहीं किया. इसकी एक मिसाल 1808 व 1809 के बीच उनकी भागलपुर में तैनाती के समय घटी घटना भी है, जिसमें उन्होंने भागलपुर के अंग्रेज कलेक्टर सर फ्रेडरिक हैमिल्टन द्वारा अपने साथ की गई बदतमीजी की गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो से विस्तार से शिकायत की थी और तभी माने थे जब गवर्नर जनरल ने कलेक्टर को कड़ी फटकार लगाकर उनके किए की माकूल सजा दी थी.
वाकया यों है कि एक दिन जब राममोहन पालकी पर सवार होकर गंगाघाट से भागलपुर शहर की ओर जा रहे थे तो घोड़े पर सैर के लिए निकले कलेक्टर सामने आ गए. पालकी में लगे परदे के कारण राममोहन उनको देख नहीं सके और यथोचित आदर, अभिवादन व शिष्टाचार से चूक गए.
उन दिनों किसी भी भारतीय को किसी अंग्रेज अधिकारी के आगे घोड़े या वाहन पर सवार होकर गुजरने की इजाजत नहीं थी और आमना-सामना होने पर उतरकर अभिवादन करना अनिवार्य था. इस ‘गुस्ताखी’ पर कलेक्टर आग बबूला हो उठे तो राममोहन ने उन्हें यथासंभव सफाई दी लेकिन अंग्रेजियत के रौब में वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुए.
राममोहन ने देखा कि विनम्रता काम नहीं आ रही तो हुज्जत पर आमादा कलेक्टर के सामने ही फिर से पालकी पर चढ़े और आगे चले गए. कोई और होता तो वह इस मामले को भुला देने में ही भलाई समझता.
कलेक्टर से पंगा लेने की हिम्मत तो आज के आजाद भारत में भी बिरले ही कर पाते हैं लेकिन राममोहन ने 12 अप्रैल, 1809 को गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो को कलेक्टर की करतूत से अपने अपमान का विस्तृत विवरण देकर लिखा कि किसी अंग्रेज अधिकारी द्वारा, उसकी नाराजगी का कारण जो भी हो, किसी देसी प्रतिष्ठित सज्जन को इस प्रकार बेइज्जत करना असहनीय यातना है और इस प्रकार का दुर्व्यवहार बेलगाम स्वेच्छाचार ही कहा जाएगा.
गवर्नर जनरल ने उनकी शिकायत को गंभीरता से लिया और कलेक्टर से रिपोर्ट तलब की. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में राममोहन की शिकायत को झूठी बताया तो उस पर एतबार न करके अलग से जांच कराई, जिसके बाद अपने न्यायिक सचिव की मार्फत कलेक्टर को फटकार लगाकर आगाह करवाया कि वे भविष्य में देसी लोगों से बेवजह के वाद-विवाद में न फंसें.
देश के सौभाग्य से आगे राममोहन को जल्दी ही पता चल गया कि उनकी शिक्षा-दीक्षा की सार्थकता ईस्ट इंडिया कंपनी की मुंशीगीरी करते हुए ऐसी व्यक्तिगत लड़ाइयों में उलझने में नहीं समाज में चारो ओर फैली पक्षपात, भेदभाव व दमन की मानसिकता और उससे पैदा हुई जड़ताओं से लड़ने और उनके पीड़ितों को निजात दिलाने में है.
उन्होंने 1815 में कोलकाता में आत्मीय सभा और 1828 में द्वारिकानाथ टैगोर के साथ मिलकर ब्रह्म समाज की स्थापना की. 1829 में उन्होंने अंग्रेजी, बंगला व पर्शियन के साथ हिंदी में भी ‘बंगदूत’ नामक पत्र का प्रकाशन किया.
इसी बीच उन्होंने अपनी भाभी के सती होने का जो भयावह वाकया देखा और झेला, उससे विचलित होकर 1818 में इस क्रूरप्रथा के विरुद्ध जागरूकता व संघर्ष की मशाल न सिर्फ जलाई बल्कि उसे तब तक बुझने नहीं दिया जब तक गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सती होने या सती करने को अवैध नहीं घोषित कर दिया.
भारतीय इतिहास में युग परिवर्तन की दृष्टि से मील का पत्थर सिद्ध हुए बैटिंक के इस फैसले के लिए राममोहन को कोई ग्यारह वर्षों तक जबरदस्त मुहिम चलानी पड़ी. देश में शैक्षिक सुधारों के लिए भी उन्होंने लंबे-लंबे संघर्ष किए.
कम ही लोग जानते हैं कि राममोहन ‘राजा’ शब्द के प्रचलित अर्थों में राजा नहीं थे. उनके नाम के साथ यह शब्द तब जुड़ा जब दिल्ली के तत्कालीन मुगल शासक बादशाह अकबर द्वितीय (1806-1837) ने उन्हें राजा की उपाधि दी.
अकबर द्वितीय ने ही 1830 में उन्हें अपना दूत बनाकर इंग्लैंड भेजा. इसके पीछे उनका उद्देश्य इंग्लैंड को भारत में जनकल्याण के कार्यों के लिए राजी करना और जताना था कि बैंटिक के सती होने पर रोक संबंधी फैसले को सकारात्मक रूप में ग्रहण किया गया है.
1833 में 27 सिंतबर को इंग्लैंड के ब्रिस्टल में ही मेनेंजाइटिस से पीड़ित होने के बाद राममोहन की मुत्यु हो गई. उनका वहीं अंतिम संस्कार कर दिया गया.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)