तकरीबन 150 विज्ञापन फिल्में बना चुके ऐड मेकर देब मेढ़ेकर से उनकी पहली फिल्म बाइस्कोपवाला को लेकर प्रशांत वर्मा की बातचीत.
रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी काबुलीवाला पर आधारित अपनी फिल्म को आपने बाइस्कोपवाला नाम क्यों दिया?
मेरी फिल्म की कहानी रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ पर आधारित है. मेरी कोशिश ये रही है कि इस कहानी पर दो बार पहले भी फिल्में बन चुकी हैं और बड़े नामचीन निर्देशकों ने ये फिल्में बनाई हैं.
इस वजह से हमने दर्शकों को कुछ नया देने की कोशिश की है. ये ऐसी कोशिश है जिसमें कहानी की रूह को बरक़रार रखते हुए इसका एक नया संस्करण पेश किया गया है.
फिल्म के जो किरदार हैं वो लगभग वहीं हैं, पर उनके साथ होने वाला घटनाक्रम पूरी तरह से अलग है और जिस दुनिया में उन्हें रखा गया है वो दुनिया भी बिल्कुल अलग है. फिल्म की कहानी आज के ज़माने की है. 1990 में अफगानिस्तान का जो राजनीतिक माहौल था, उसे ही आधार बनाकर फिल्म बाइस्कोपवाला लिखी गई है.
टैगोर की कहानी में जहां मुख्य किरदार काबुलीवाला था, घर-घर जाकर वो अखरोट और किशमिश बेचा करता था, उसकी जगह मेरी फिल्म में वो बाइस्कोपवाला बना है, जो गली-गली जाकर बच्चों को बाइस्कोप पर फिल्में दिखाता है.
इसी वजह से उसकी और कोलकाता में रहने वाली छोटी बच्ची मिनी की दोस्ती होती है. इन दोनों किरदारों के बीच के रिश्ते की जो मासूमियत और पवित्रता है, उसे फिल्म में हमने बरक़रार रखी है.
हमने फिल्म में जिस तरह से कहानी कही है वो पूरी तरह से अलग है. टैगोर की कहानी में बच्ची का जो पिता होता है, उसके नज़रिये से कहानी कही गई है.
हमारी कहानी में वो बच्ची बड़ी हो चुकी है और वो धीरे-धीरे कहानी के अलग-अलग तारों को सुलझाते हुए उसे आगे बढ़ाती है. जैसे जासूसी फिल्मों का कथानक होता है, जिसमें धीरे-धीरे, अलग-अलग टुकड़ों को समेटते हुए जैसे कहानी प्रकट होती है, बाइस्कोपवाला का स्वरूप कुछ वैसा ही है.
आपने फिल्म की कहानी के कालखंड के रूप में 90 के दशक का अफगानिस्तान चुना है, जब वहां तालिबान विकसित हुआ था. यह कालखंड चुनने की वजह क्या है?
वह कालखंड इसलिए चुना गया, क्योंकि उस वक़्त के अफगानिस्तान में लोगों की आवाज़ कुचली जा रही थी. उस वक़्त हमारी कहानी का बाइस्कोपवाला भी कहीं न कहीं अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश में लगा हुआ था. इससे आगे फिल्म के बारे में कुछ नहीं बताऊंगा. उसके साथ आगे क्या होता है, ये जानने के लिए आपको सिनेमाघर आना पड़ेगा.
हालांकि ये फिल्म सिर्फ 1990 की कहानी नहीं है. ये उस ज़माने से और पीछे भी जाती है. उस वक़्त उस बाइस्कोपवाले के साथ क्या हुआ था, यही जानने की वो छोटी बच्ची जो हमारी कहानी में बड़ी हो चुकी है, कोशिश करती है. फिलहाल, इस बारे में बस इतना ही बोलना चाहूंगा.
फिल्म के विषय के रूप में रवींद्रनाथ टैगोर की लिखी कहानी ही क्यों चुनी?
इसका श्रेय वास्तव में सुनील का जाता है. सुनील दोशी हमारी फिल्म के प्रोड्यूसर हैं और फिल्म की कहानी हम दोनों लोगों ने मिलकर लिखी है.
ये इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें इस कहानी पर एक फिल्म अपने पिता और बेटे को समर्पित करनी थी. उनकी ख़्वाहिश थी कि एक ऐसी फिल्म बने जो टैगोर की कहानी काबुलीवाला को आज के ज़माने के हिसाब से पेश करे.
इस कहानी में काबुलीवाला को बाइस्कोपवाले के रूप में दिखाने का सारा श्रेय सुनील को जाता है. उसके बाद कहानी के साथ जो भी हमने किया वो स्क्रीनप्ले लेवल पर किया. उन्होंने पहले से ही ये प्रोजेक्ट तैयार करके रखा था कि मैं ऐसी ही फिल्म बनाऊंगा, जिसमें काबुलीवाला आज के ज़माने का संस्करण होगा.
जब कोई प्रोड्यूसर आपके पास आता है तो आपको वो फिल्म किसी अपने की तरह अपनाना पड़ता है. काबुलीवाला से मेरे जुड़ाव की बात करें तो हम लोग महाराष्ट्रियन हैं. मेरी मम्मी टैगोर से प्रभावित थीं. उन्होंने ख़ुद बंगाली भाषा सीखी, फिर टैगोर की कहानियों को बांग्ला में पढ़ा और मुझे वो कहानियां मेरे बचपन के दिनों में सुनाईं.
ऐसे में जब सुनील इस प्रोजेक्ट के साथ मेरे पास लाए तो मुझे लगा सही है यार, क्योंकि ये कहानी मेरे लिए भी मायने रखती है. टैगोर की कहानी को लेकर हम दोनों के दिल में जुनून था और जुनून के बिना कुछ बन नहीं सकता.
किसी की लिखी कहानी पर फिल्म बनाना आसान होता है या फिर ख़ुद अपने द्वारा लिखी कहानी पर.
मुझे लगता है कि दोनों ही सूरतों में चुनौतियां अलग-अलग तरह की होती हैं. मैं ख़ुद को वास्तव में एक लेखक समझता हूं. सेंट ज़ेवियर्स स्कूल में था, मैंने अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ा है. मेरे पास काफी स्क्रिप्ट हैं जो मैंने ख़ुद की लिखी हुई हैं.
किसी और की लिखी कहानी पर आधारित फिल्म बनाने में दबाव बहुत होता है. काबुलीवाला से प्रेरित होकर हमेंद्र गुप्ता ने बलराज साहनी के साथ काबुलीवाला फिल्म बनाई है. तपन सिन्हा ने बंगाली भाषा में इसी कहानी पर फिल्म बनाई है. ये दोनों बड़ी ही प्रसिद्ध फिल्में हैं. इसके बीच में टैगोर की लिखी कहानी है तो ऐसे में आप पर बहुत दबाव होता है.
और ये दबाव दो तरीके से काम कर सकता है. या तो इस दबाव में आकर आप टूटते हो या आप बोलते हो कि यार, मैं इस चुनौती के सामने खड़ा होकर कुछ नया रचूंगा. किसी और की लिखी कहानी पर फिल्म बनाने का सुख यही होता है. यह खुशी कुछ नया और कुछ अलग करने में होती है.
कहानी जैसी लिखी गई है वैसी ही फिल्म बना दी तो फिर निर्देशक की भूमिका क्या रही? हां, ये कहा जा सकता है कि जब आप ख़ुद अपनी लिखी कहानी पर फिल्म बनाते हैं तो थोड़ी सी राहत रहती है और जब किसी और की लिखी कहानी पर बनाते हो तो आप पर अतिरिक्त दबाव काम करता है.
फिल्म के लिए अभिनेता डैनी डेनजोंग्पा को चुनने की क्या कोई ख़ास वजह है?
सुनील दोशी जब मेरे पास इस फिल्म का प्रस्ताव लेकर आए थे तो मैंने उन्हें कहा था कि आप एक नाम दो, ताकि जब आप कहानी सुना रहे हो तो मैं उस कलाकार के हिसाब से कहानी को सोच सकूं. तो उन्होंने ही डैनी डेनजोंग्पा का नाम सुझाया था.
डैनी ने फिल्म ख़ुदा गवाह की है. इसमें वह एक अफ़गानी का किरदार निभा चुके हैं और कहीं न कहीं वो पूरे देश के अवचेतन में बसे हुए हैं. डैनी को लेकर फिल्म के बारे में कल्पना करने पर हमें आसानी भी महसूस हुई. कहानी सुनने के दौरान वो एक तरह से मेरे दिल और दिमाग में बैठ चुके थे, उसके बाद मैं किसी और के साथ काम नहीं करना चाहता था.
फिर हम लोगों ने बाइस्कोपवाला की स्क्रिप्ट बनाई और उनके पास गए. डैनी को स्क्रिप्ट देखकर बहुत खुशी हुई, उन्होंने बोल दिया कि हां, ज़रूर करेंगे.
उसके अलावा अगर आप सोचो तो अफ़गानिस्तान में दो क़ौम हैं- पश्तून और हाज़रा. पश्तून क़ौम वहां की प्रभावशाली क़ौम है. हज़ारा क़ौम वहां अल्पसंख्यक हैं. दोनों में शिया-सुन्नी का भी फ़र्क़ है. दोनों के बीच तनाव भी रहता है.
इस तनाव की भी कहानी मुझे बतानी थी. चंगेज़ ख़ान जब अफगानिस्तान पहुंचा था तो उसने अपने हज़ार सैनिक वहां छोड़ दिए थे. उन हज़ार सैनिकों से जो क़ौम निकली है, वो हाज़रा हैं.
चंगेज़ ख़ान मंगोलिया से थे और डैनी नॉर्थ ईस्ट से हैं. मंगोलियन और नॉर्थ ईस्ट के लोगों के लक्षण, चेहरे और विशेषताएं काफी मिलती-जुलती हैं. ज़िंदगीभर हमने डैनी को विलेन के बतौर देखा है. डैनी का ख़ुद का एक चार्म है. जब वो हंसते हैं न तो एक सेकेंड में आपका दिल जीत लेते हैं.
और मुझे ऐसे ही व्यक्ति की ज़रूरत थीं. जो बच्चों के साथ रहकर उनका दिल जीतते हुए अपने दर्द को अपने अंदर ही छिपा जाए. डैनी बहुत ही अच्छे एक्टर हैं. ये सारी बातें डैनी को इस किरदार के रूप में चुनने का कारण बनीं.
वो थोड़े ख़ुफिया किस्म के आदमी हैं, उनकी अपनी ही एक दुनिया है. वो हमारे साथ जुड़े और फिल्म शूट करने के बाद वापस सिक्किम चले गए.
आप ऐड फिल्ममेकर हैं, ऐसे में फीचर फिल्म बनाने का ख़्याल कैसे आया? दोनों ही विधाओं में आपने क्या अंतर पाया?
मुझे लगता है कि ये शायद सबके दिल में होता है कि अगर आप ऐड फिल्में बना चुके हैं तो एक फीचर फिल्म बनाना तो बनता ही है. मैं तकरीबन डेढ़ सौ ऐड फिल्में बना चुका हूं. तो दिल में था कि एक फिल्म तो बनानी ही है.
मैं सोचता था कि जिस तरह की फिल्म मुझे बनानी है शायद वैसी फिल्म बनाने को ही न मिले. हालांकि मुझे मिल गई वैसी ही फिल्म जैसी मुझे बनानी थी. इसलिए मैं बहुत ख़ुश हूं कि मैं बाइस्कोपवाला फिल्म बना पाया.
हालांकि ये इतना आसान भी नहीं है. ऐड फिल्में बनाने में एक अलग ही मज़ा है. ऐड ट्रेनिंग है फिल्म बनाने की. जब आप ऐड बनाते हो तो आपको 30 सेकेंड दिए जाते हैं संबंधित पात्रों को सच्चाई के साथ पेश करने के लिए और बीच में लोगों को खुशी देते हुए प्रोडक्ट के बारे में भी आपको प्रभावशाली तरीके से बता देना होता है.
ये बहुत अच्छी ट्रेनिंग होती है. ऐड के बाद जब आप फिल्में बनाते हो न तो आपका तरीका अलग हो जाता है. मेरा ख़्याल है कि ऐड फिल्में बनाने के बाद आपके अंदर एक अलग तरह की कुशलता आ जाती है.
मैं ये भी जानता हूं कि एक ऐड फिल्म मेकर के दिल में ये उम्मीद होती है कि वो ज़िंदगी में अपनी एक फिल्म बनाएगा.
फिल्म बाइस्कोपवाला से आपको क्या उम्मीद है? इसे दर्शकों को क्यों देखना चाहिए?
देखिए, उम्मीद की कोई सीमा नहीं होती है. मैं तो चाहूंगा कि देश का हर कोई आकर यह फिल्म देखे, पर ये उतना आसान नहीं होता. अब ये फिल्म लोगों के बीच में, लोग तय करेंगे कि उनको इसके बारे में क्या लगता है.
अब वो तय करेंगे कि फिल्म देखने थियेटर जाना है या नहीं. ये जाना या न जाना आपके हाथ में नहीं होता है. अपने हाथ में होता है कि आप सच्चे रहो और सच्चाई के साथ फिल्म बनाओ. जितना आप उसमें ख़ून-पसीना डालोगे, उतना लोग फिल्म देखने आएंगे.
ऐसा इसलिए क्योंकि लोग अच्छी विषयवस्तु और कहानियों के भूखे हैं और माउथ पब्लिसिटी भी मायने रखती है. मुझे अच्छा रिव्यू मिला तो लोग देखने आएंगे ज़रूर. आज ज़माना ऐसा है कि बड़े नामों या हीरो-हीरोइन के बिना भी फिल्में बन रही हैं. उन्हें लोग देख भी रहे हैं.
मुझे मेरी फिल्म से आशाएं तो बहुत हैं, लेकिन मैं अपने आपको इससे अलग रख रहा हूं. मैं ख़ुद को ये याद दिला रहा हूं कि मैंने फिल्म बनाते हुए ईमानदारी रखी, मेरे लिए इसके अलावा और कुछ भी अहमियत नहीं रखता.
अब जहां तक इस फिल्म को देखने का सवाल है तो इसे इसलिए देखो क्योंकि आज के समय में हम बहुत सारी चीज़ें या घटनाएं बिना उनके बारे में सोच-समझे पीछे छोड़ते चले जा रहे हैं.
जो हमने ज़िंदगी में पीछे छोड़ा है वो हमारे लिए बहुत महत्व रखता था. कहीं पर जो नॉस्टैलिया (अतीतानुराग) है या अतीत के बारे में सोचने की योग्यता है वो खूबी सिर्फ़ इंसानों में है. ये हम लोगों को भूलनी नहीं चाहिए.
कई बार जो चीज़ें हम पीछे छोड़ देते हैं उनकी अहमियत हमें तब पता चलती है जब वो हमारे साथ आज नहीं हैं. ये कोई व्यक्ति हो सकता है, आपका पुराना घर हो सकता है या आपका स्कूल या कोई घटना हो सकती है.
मुझे लगता है कि अगर लोग इस फिल्म को देखने आएंगे तो लोगों को इन चीज़ों की अहमियत पता चलेगी. एक तरह से इस फिल्म के ज़रिये वो अपना बचपन जी सकेंगे. इसके लिए भी इस फिल्म को देखना चाहिए. नॉस्टैलिया के लिए देखनी चाहिए.
आप अपने बारे में बताइए. विज्ञापन फिल्में बनाने की शुरुआत कैसे हुई?
मैं सेंट ज़ेवियर्स स्कूल से पासआउट हूं. पास होते ही मैं चाहता था कि मैं बाहर जाकर फिल्म की पढ़ाई करूं. मुझे बोला गया था कि फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट आॅफ इंडिया (एफटीआईआई) में सेलेक्ट होना बहुत मुश्किल है, हालांकि पहले ही प्रयास में मेरा सेलेक्शन हो गया और यहां मुझे मज़ा आने लगा.
यहां मैंने तमाम विदेशी फिल्में देखीं, फिल्में बनाने को मिलीं, जो मैंने सीखा. यहां मुझे पता चला कि ज़िंदगी में मुझे यही करना है. एफटीआईआई से पासआउट होने के बाद मैंने कई म्यूज़िक वीडियो बनाए.
इन्हें लोगों को दिखाते हुए मैं राम माधवानी के पास पहुंचा. उन्होंने ही फिल्म नीरजा बनाई है. ये शायद 2010 की बात है. उसी साल मैंने राम की कंपनी इक्यूनॉक्स को जॉइन किया. तब से अब तक तकरीबन 150 ऐड फिल्में कीं. अलग किस्म के विज्ञापन बनाने को लेकर थोड़ा नाम बनाया.
‘मारुति कितना देती है’ का तीसरा संस्करण मैंने बनाया था. चैंपियंस लीग की ‘वो रातें भी क्या रातें थीं’ मेरा बनाया ऐड है. ओनीडा एसी का डेविल वाला ऐड भी मेरा ही है. इस साल ये काफी चर्चित भी रही है.
ये सब करते-करते यहां तक पहुंच गया. सुनील दोशी और राम दोस्त हैं तो इसकी भी एक भूमिका है. वास्तव में मैं इन दोनों लोगों का शुक्रगुज़ार हूं.