देश को बदलते-बदलते प्रधानमंत्री ख़ुद बदलकर मौनमोदी हो गए हैं. कथित गोरक्षक किसी को मार डालें, कोई बच्ची बलात्कारियों की वहशत का शिकार हो जाए या डीजल-पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी रिकॉर्ड तोड़ दे, वे अपना मौन तभी तोड़ते हैं, जब उन्हें अपने मन की बात कहनी होती है.
टोस्ट टी एंड टुबैको टुगेदर विद टेरेलिन ट्रांजिस्टर एंड टेलीविजन. टाॅपलेस ऐंड टियरलेस टेरर ऐंड टंकार आॅफ टाटा. टेक टू टेन ऐंड ट्वैंटी ट्विस्ट!
चौंकिए नहीं, बहुत संभव है कि जब तक आप ये पंक्तियां पढ़ें, हमारे ‘पराक्रमी’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार के चार साल का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए आपको ऐसे ही किसी नए अनुप्रास की सौगात देते नजर आ चुके हों.
चार साल के उनके प्रधानमंत्रित्वकाल से दो-चार हो चुके इस देश में अब कौन भकुआ है जो मौके-बेमौके हिंदी या अंग्रेजी के एक ही अक्षर से शुरू होने वाले कई-कई शब्दों के घालमेल से इस तरह के अनुप्रास बनाने और उनमें उलझाने की उनकी महारत से इनकार करे?
खासकर जब वे ‘ब्रांड इंडिया’ यानी भारत को ब्रांड बनाने की बात कहते हुए भी लोगों पर लोकलुभावन ‘फाइव टी’ अनुप्रास दे मारने का इतिहास बना चुके हैं: टैलेंट, ट्रेडीशन, टूरिज्म, ट्रेड और टेेक्नोलॉजी यानी प्रतिभा, परंपरा, पर्यटन, व्यापार और तकनीक.
गौर कीजिए, देश को इतने अनुप्रास भाजपा के कवि-प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने अपने छह सालों के प्रधानमंत्रित्व में भी नहीं दिए. कारण यह कि वे जानते थे कि देश की समस्याएं तुक्कड़ कवियों की शैली में गढ़े गए ऐसे अनुप्रासों की मार्फत उनका सरलीकरण करके नहीं सुलझाई जा सकतीं और वास्तविक समाधान के लिए उनकी गंभीर आर्थिक, सामाजिक व कभी-कभी दार्शनिक मीमांसाओं की भी जरूरत पड़ती है लेकिन नरेंद्र मोदी समर्थकों के इस दावे पर जायें कि महापराक्रमी मोदी जी भी अंततः कविहृदय हैं यानी अटल जी जैसे ही संवेदनशील और उन्होंने भी कुछ कविताएं वगैरह ‘रची’ हैं तो वाकई उनकी कवि प्रतिभा से इनकार नहीं ही किया जा सकता.
कवि प्रतिभा न होती तो प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने की सुविचारित जुगत में लगने के समय यानी 2014 के पहले से ही उन्होंने ऐसे अनुप्रासों की जो झड़ी लगा रखी है, वह इतने लंबे वक्त तक कैसे लगाये रख पाते? हम जानते हैं कि कई बार वे यह झड़ी महज चमत्कार पैदा करने के लिए भी लगा देते हैं, जबकि कई बार लोगों को लुभानेे और अपनी ‘बौद्धिकता’ का लोहा मनवाने के लिए लगाते हैं.
इधर की बात करें तो कई बार ऐसा करते हुए वे इसका ध्यान भी नहीं रख पा रहे कि पुराने अनुप्रासों को संदर्भ बदलकर पेश करने के चक्कर में अलंकारिकता का द्रविड़ प्राणायाम करते हुए खासे बेमतलब और हास्यास्पद हुए जा रहे हैं. अकारण नहीं कि अब उनके कई पुराने अनुप्रास उन पर बादलों की तरह फटने लगे हैं. खासकर, ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ वाला.
याद कीजिए, लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान उन्होंने अपनी इसी शैली में तीन एके का हवाला दिया और कहा था: पाकिस्तान में तीन एके की प्रशंसा होती है-एक एके-47, दूसरा एके-एंटनी और तीसरा एके-49. एके एंटनी तब देश के रक्षामंत्री थे और एके-49 से उनका मतलब 49 दिनों में ही दिल्ली के मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़ देने वाले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल से था.
अपनी सरकार के सौ दिनों के पहले ही वे जापान यात्रा पर गये तो उन्होंने ‘थ्रीडी’ के साथ भी इस ‘एके’ जैसा ही सलूक किया था. जिस ‘थ्रीडी’ से कभी हमारा पहला परिचय त्रिआयामी फिल्मों ने कराया और हम जिनके सिलसिले में उसे इस्तेमाल करते आ रहे थे, उससे बहुत दूर ले जाकर दूर की कौड़ी ले आये थे वे: ‘थ्रीडी यानी डेमोग्राफिक डिवीडेंड, डेमोक्रेसी और डिमांड. ये तीनों भारत में हैं और एशिया में केवल भारत में ही हैं. हमें यह बात दुनिया भर में निवेश के इच्छुकों को बतानी है.’
फिर नेपाल यात्रा के वक्त उस पड़ोसी देश की मदद का उनके पास ‘नाम में भी हिट और काम में भी हिट’ फार्मूला थाः हिट हाइवेज, इनफॉरमेशन टेक्नाॅलाजी और ट्रांसमिशन लाइंस. लेकिन वहां भीषण भूकंप आया तो जानें क्यों उन्हें इसकी याद नहीं आयी!
खैर, उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले जिस एफडीआई का उनकी पार्टी प्राणप्रण से विरोध करती थी, अभी उन्हें पदभार संभाले तीन महीने भी नहीं हुए थे कि उनके एक लाजवाब अनुप्रास ने उसका अर्थ बदलकर फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट से फर्स्ट डेवलप इंडिया कर दिया! तब लोग समझ नहीं पाये थे कि इसे गजब का अनुप्रास कहें या अनुप्रास का ढाया गजब!
10 जुलाई, 2014 को अपनी सरकार के पहले बजट की प्रशंसा करते हुए उन्होंने उसे ‘थ्री एस’ बताया. इस ‘थ्री एस’ के तीन शब्द थे: समावेशक, सर्वदेशक और सर्वदर्शी. बाद के आम बजटों के लिए उनके मुंह से ऐसे फूल नहीं झड़े या उन्होंने जानबूझकर नहीं झाड़े तो इसके लिए दुःखी होने के बजाय आप चाहें तो इस बात को लेकर खुश हो सकते हैं कि ये तीनों शब्द हिंदी के हैं.
भले ही इनके लिए तीन स कहने के बजाय उन्होंने ‘थ्री एस’ कहा. हां, वे चाहते तो इन तीन की जगह एक ही शब्द समावेशक से काम चला सकते थे और उससे मिलते-जुलते और लगभग वैसी ही अर्थव्याप्ति वाले तीन शब्दों के बेवजह प्रयोग से जानकारों की निगाह में पुनरुक्ति के दोषी बनने से भी बच सकते थे.
संभव है, उन्हें याद न रह गया हो कि इससे पहले नौ जून को भी उन्होंने देशवासियों को चीन से प्रतियोगिता के लिए ‘थ्री एस’ का ही मंत्र दिया था. अलबत्ता वे तीनों एस अंग्रेजी के थे-स्किल, स्केल और स्पीड. चीन के राष्ट्रपति भारत यात्रा पर आए तो उनके साथ झूला-झूलते हुए वे नया मंत्र बुदबुदाये थे: इंचमाइल्स यानी इंडोचाइनामिलेनियम आफ एक्सेप्शनल सिनर्जी.
पहले की सरकारें पीपीपी को प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप के अर्थ में लेती थीं. अनुप्रासप्रेमी मोदी को सुशासन के लिए उसमें एक और पी जोड़कर उसे फोर पी-पीपुल प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप-बनाये बिना चैन नहीं आया! शब्दानुशासन बिगाड़ने वाले उनके इस जोड़ से इस शब्द समूह के अर्थ में नया क्या जुड़ा, आप सोचते रहिए.
फिलहाल, लेह व लद्दाख के लिए उनके ‘थ्री पी’ भी प्रकाश में आ चुके हैं: प्रकाश, पर्यावरण और पर्यटन. वस्त्र उद्योग के लिए उनके पास ‘फाइव एफ’ का ऐसा तुरत-फुरत मंत्र है जिसकी लय सुनने में बहुत मजेदार है: फार्म से फाइबर, फाइबर से फैब्रिक, फैैब्रिक से फैशन और फैशन से फारेन! यानी सारी समस्याएं चुटकियों में हल. है न चमत्कार! काश, यह चमत्कार पिछले चार सालों में कहीं जमीनी हकीकत में बदल सका होता!
बहरहाल, इस चमत्कार को नमस्कार करते हुए लगे हाथ उनके कुछ और आनुप्रासिक मंत्र जान लीजिए: पीटूजीटू यानी प्रो पीपल गुड गवर्नेंस, रेड टेप नहीं, रेड कारपेट, स्कैम इंडिया से स्किल इंडिया, एक्ट ईस्ट, सबका साथ और सबका विकास, पहले शौचालय, फिर देवालय और एक्ट नहीं एक्शन! लेेकिन अफसोस कि भूमि अधिग्रहण के मामले में वे एक्ट से नहीं, आर्डिनेंस से एक्शन करते रहे.
तब उनके आर्डिनेंस राज पर राष्ट्रपति तक को एतराज जताना पड़ा. ऐसे में कौन कह सकता है कि वे प्रधानमंत्री कम और ज्यादा तुक्कड़ कवि नहीं हैं?
भुलावों का प्रताप और ढिंढोरचियों का रेला
लेकिन इन अनुप्रासों में निहित भुलावों का प्रताप कुछ ऐसा है कि उनकी सरकार के चार साल पूरे होने से पहले से ही देश तो देश लंदन तक में प्रायोजित-गैरप्रायोजित बहस-मुबाहिसों का रेला चल निकला है.
जो बुद्धिजीवी और पत्रकार इस रेले में ‘बह’ रहे हैं, उनका तो खैर सरकारी एक्शन प्लान के हिसाब से अगली दो शताब्दियों तक साफ न हो सकने वाली बहती गंगा में स्नान का भरपूर पुण्य कमा लेना तय है, लेकिन जो नहीं बह पा रहे, उनके लिए यह देखना किसी त्रास से कम नहीं है कि किस कदर उनके कई भाई अपने व सरकार के प्रतिनिधियों/प्रवक्ताओं के बीच की रेखा को मिटाये डाल रहे हैं!
कौन जाने, आगे चलकर सरकार के सूचना प्रदाताओं व प्रसारकों का सारा काम ये बुद्धिजीवी व पत्रकार बंधु ही कर दिया करें!
पिछले बरस एक ऐसी ही बहस में एक बड़े पत्रकार ‘मोदी जी’ के ‘विकासविरोधी और अड़ंगेबाज’ आलोचकों पर जमकर बरस चुके तो कहने लगे कि पांच साल के लिए चुनी गई सरकार के कार्यों को आलोचना से गुजारने के लिए तीन साल पर्याप्त नहीं होते. फिर खुद उनके धुआंधार स्तुतिगान पर उतर आये.
किसी ने पूछा कि भाई, जिन तीन सालों को आप आलोचना के लिए पर्याप्त नहीं मानते, वे स्तुतिगान के लिए क्योंकर पर्याप्त हो सकते हैं, तो नजरें चुराने लगे. उनके साथी बुद्धिजीवी ने प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी की शुरुआत को ‘बेहतरीन और तर्कसंगत’ बताया तो जानें क्यों, उनकी कार्यशैली से पैदा हो रहे सत्ता के केंद्रीकरण व अलोकतांत्रिक आधिपत्य के अंदेशों की ओर से नजरें नहीं फेर पाये.
लेकिन यह पूछे जाने पर कि सत्ता के केंद्रीकरण व अलोकतांत्रिक आधिपत्य के अंदेशे बढ़ाने वाली शुरुआत को बेहतरीन कैसे कहा जा सकता है, वे नाराज होकर पूछने वाले के अज्ञान की गहराई नापने पर उतर आये. उनके दुर्भाग्य से तभी एक अन्य भाई ने अपना एजेंडा स्पष्ट करके उसे उनके ‘ज्ञान-कीच’ के दल-दल में गहरे धंसने से बचा लिया.
इस भाई ने पहले तो मुसकराकर कहा कि सारे चुनावी वायदे कौन पूरे करता है, फिर राज खोला कि कांग्रेस जिस तरह रसातल में चली गई है, उसके मद्देनजर उसे पता नहीं कि मोदी जी का राज कितने बरसों तक रहे, फिर कोई उनसे बिगाड़ का खतरा क्यों उठाये?
वरना उसे भी मालूम है कि हवा बांधकर सत्ता में आई उनकी सरकार हवा के सहारे ही ‘मिनिमम/ मैक्सिमम’ कर रही है. हां, चूंकि पिछली सरकार एकदम नाकारा थी, सो, कई लोगों को उसके हवा बांधने के उपक्रमों में भी नयापन लग रहा है और वे उसे लेकर अभिभूत हो जा रहे है.
मुझे नहीं मालूम कि अब ये भाई लोग चार सालों को भी पांच साल के लिए आई सरकार की बाबत किसी आकलन के लिए पर्याप्त मानते हैं या नहीं, परंतु दो बातें याद आ रही हैं: पहली यह कि 2004 में अटल जी को दूसरा कार्यकाल मिल गया होता तो इन बुद्धिजीवियों व पत्रकारों का मूड तो तभी सत्ताओं के प्रतिरोध का अपना कर्तव्य भूल उनके राजग को ‘अपना’ बना लेने का था.
दूसरा, लियो टालस्टाय ने कहा था कभी कि सत्ता की हुकूमत जनता के अज्ञान में निहित होती है. लेकिन जनता के अज्ञान से पहले वस्तुस्थिति देख ली जाये. इंटरव्यू में और रैली में और चुनावसभाओं में और चुनाव के बाद और तथा भलाई व बुराई की एक जैसे अदाकार मोदी हमारे पहले प्रधानमंत्री हैं, जो जापान जाकर ऐलान कर चुके हैं कि वे नेता नहीं, व्यापारी हैं और चाहते हैं कि उसके निवेशक भारत आकर देखें कि हमने किस कदर उसे बदलकर उनके लिए गलीचे बिछा दिये हैं और नागरिकों की छाती पर चढ़कर उन्हें अपने ही देश में मजदूर या कि मजबूर बनाने व मुनाफा कमाने की सहूलियत संजो रखी है.
‘बोलता प्रधानमंत्री’ चुप और व्यापारी मौनमोदी मुखर
बाद में यही कहने के लिए वे अमेरिका भी गये. लेकिन अपनी बहुप्रचारित जनधन योजना को लेकर उनके पास इस सवाल तक का जवाब नहीं कि जन का धन यानी आमदनी नहीं बढ़ेगी तो बैंकों में खोले जा रहे खातों से उसको क्या हासिल होगा?
अगर कर्ज और सब्सिडी, तो बात इतनी ही तो नई होगी कि नई रियायतों के नाम पर वह कर्ज के नए फंदे में फंस जायेगा. हां, जिस अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने को लेकर अब एक बार फिर बहुत उल्लसित हुआ जा रहा है, मनमोहनकाल गवाह है कि मुनाफे के निजीकरण और संकटों के राष्ट्रीयकरण की नीतियों के रहते उसके बूम का फायदा भी गरीबों को नहीं मिलता.
इन नीतियों के कांग्रेस व मनमोहन से भी बड़े पैरोकार मोदी ने अपने पहले दिन संसद की भूमि को चूमा और अपनी सरकार को गरीबों के लिए समर्पित बताया था. पर अब लोग जान गये हैं कि वह सुखासीन उच्च और मध्यवर्गों के लिए समर्पित है. हो भी क्यों नहीं? हमारी संसद चार सौ अरब/खरबपतियों से सुशोभित हो चुकी है और ये चार सौ, गरीबों के प्रति समर्पित होकर अरब या खरबपति नहीं बने हैं.
शायद इससे वाकिफ होकर ही जो मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले दहाड़ते घूमते थे और जिनकी बाबत उनकी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह दावा करते नहीं थकते कि उन्होंने देश को एक ‘बोलता प्रधानमंत्री’ दिया है, देश को बदलते-बदलते वे खुद बदलकर मौनमोहन की ही तर्ज पर मौनमोदी हो गये हैं.
किसी को उनके गोरक्षक मार डालें, कोई बच्ची बलात्कारियों की वहशत की शिकार हो जाये या डीजल व पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी रिकॉर्ड तोड़ दे, वे अपना मौन तभी तोड़ते हैं, जब उन्हें अपने मन की बात कहनी होती है.
कोढ़ में खाज यह कि उनके अनुयायी और शुभचिंतक जब भी और जहां भी मन होता है, सांप्रदायिक उद्वेलनों की जमीन तैयार करते रहतेे हैं और उनके बार-बार बरजने पर भी नहीं मानते. विरोधी तोहमत लगाते हैं कि दोनों पक्षों में इसकी हिडेन अंडरस्टैंडिंग है: प्रधानमंत्री दुनिया को दिखाने भर के लिए बरजते हैं और उनके लोग उसका वास्तविक मंतव्य समझने में कतई गलती नहीं करते.
वरना क्या कारण है कि अपने मंत्रियों व मार्गदर्शकों को काबू करके देश की सत्ता पर अपने एकाधिकार की राह निष्कंटक कर लेने में सफल प्रधानमंत्री का अपने इन अनुयायियों पर वश ही न चले.
प्रधानमंत्री से ज्यादा कौन जानता है कि देश के जिस सुखासीन तबके ने ‘परमानंद’ की आस में अतिरिक्त उत्साह से उन्हें चुना या चुनवाया, यहां तक कि कॉरपोरेट की पसंद पर मोहर लगाने/लगवाने से भी गुरेज नहीं किया, उसे दूसरों के संतापों से ही खुशी मिलती है.
अकारण नहीं कि इन संतापों की सृष्टि के लिए वह रोजी-रोटी के सवालों से हलकान देशवासियों को सांस्कृतिक पहचान के सवाल में उलझा रहा है. सबको ‘अपने जैसा हिंदू’ बनाने को उतावला है और बिग मनी द्वारा हमारी राज्य सत्ता के अतिक्रमण से उसे कोई परेशानी नहीं है.
लेकिन ‘व्यापारी’ प्रधानमंत्री के पक्ष में बांधी जा रही हवा अब बंधी रहने को राजी नहीं है. देश का वातावरण बता रहा है कि वंचित तबके इतने अधीर हो चुके हैं और वे और प्रतीक्षा नहीं कर सकते. वे मोदी के छविनिर्माण की ‘शौचालयी’ कथाओं में उलझकर महंगाई, भ्रष्टाचार और कालेधन को भूलने वाले नहीं हैं.
वायदा खिलाफियों के बीच वे समझ चुके हैं कि एक मामूली चाय वाले का अभिनय करता यह शख्स अपने चुनाव अभियान में दस हजार करोड़ रुपये खर्च करने वालों की कृपा से प्रधानमंत्री बना है और उन्हीं का साथी है.
तभी तो ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ मोदी मुसलमानों को ‘सबक सिखाने’ के चक्कर में दलितों को और दलित और पिछड़ों को और पिछड़ा बना रहा है! फैजाबाद के एक चाय वाले ने तो इससे मोहभंग होते ही अपने ‘मोदी टी स्टाल’ का नाम बदलकर ‘गोल्डेन टी स्टाल’ कर दिया है.
सबसे बड़ी सुविधा बनाम सबसे बड़ी असुविधा
अलबत्ता, प्रधानमंत्री की यह सुविधा अभी भी बनी हुई है कि धुआंधार चुनाव प्रचार के बीच 2014 में हुई उनकी सैकड़ों चुनावपूर्व रैलियों में से उनका कोई एक भी ऐसा भाषण नहीं ढूंढ़ा जा सकता, जिसमें उन्होंने कहा हो कि वे सत्ता में आयेंगे तो मनमोहन सरकार की उस अर्थनीति को पलट देंगे, जिसे उस वक्त भ्रष्टाचार व महंगाई में लगातार वृद्धि और आम जनता की गम्भीर दुर्दशा का कारण माना जा रहा था.
आज की तारीख में दुनिया और देश दोनों जानते हैं कि कांग्रेस व भाजपा में जिसकी भी सत्ता रही हो, उनके बीच भूमंडलीकरण के अनर्थों से अपनापे को लेकर बहुत मामूली मतभेद रहे हैं. यह तो हमारी पिछड़ी हुई राजनीतिक व सामाजिक चेतना का अजूबा है कि हर लिहाज से एक जैसी रीति-नीति वाली ये दोनों पार्टियां खुद को एक दूजे के विकल्प की तरह प्रस्तुत करने में सफल हो जाती हैं और हम उनमें से एक को हटाकर दूसरी को लाते हैं तो बड़े परिवर्तनों की उम्मीद करने लगते और जल्दी ही नाउम्मीद होने लग जाते हैं.
लेकिन अब जब वे चुनाव वर्ष की दहलीज पर हैं और उन्हें फिर से जनादेश की दरकार है, उनकी सबसे बड़ी असुविधा यह है कि उन्होंने अपने चार साल अपने व्यक्तिगत पराक्रमों से जुड़े चमत्कार ‘सिद्ध’ करने की बेहिस व अंतर्विरोधी कवायदों में गुजार दिये हैं.
ऐसी तीन प्रमुख कवायदें हैं: पाकिस्तान के ‘सरप्राइज विजिट’ के बाद उसके विरुद्ध ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, ‘न्यू इंडिया’ के निर्माण के सुनहरे सपने के साथ गणेश की कथित प्लास्टिक सर्जरी का बखान और देश के तमाम प्रदेशों में भाजपा को जिताने और ऐसा करने में विफल रहने पर उसे जीतने वालों के साथ कर देने की सर्वथा गैरलोकतांत्रिक कारगुजारियां.
इन कारगुजारियों के चलते उनका 56 इंच का सीना उनके ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर ऐसा भारी पड़ा है कि वे देश तो क्या, अपनी पार्टी व परिवार के मार्गदर्शकमंडल के सदस्यों के साथ शत्रुघ्न सिन्हा व यशवंत सिन्हा जैसे विघ्नसंतोषियों को भी अपने साथ नहीं ले चल पा रहे.
कई लोग तो कहते हैं कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे को उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा के गत चुनाव के वक्त ही इलाहाबाद में गंगा-यमुना के संगम में विसर्जित कर दिया था और होली व ईद तथा कब्रिस्तान व श्मशान के भेदभावों पर उतर आये थे.
तिस पर वादों को निभाने की उनकी इस शैली पर कौन न मर जाये ऐ खुदा कि महात्मा गांधी को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का ब्रांड अंबेसडर बनाने के बाद बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर को ‘अपनाने’ की अजीबोगरीब कोशिशों के साथ उनके बनाये संविधान को संकटों की कई सौगातें दे डाली हैं. उनके मंत्री अनंतकुमार हेगड़े उसे बदलने की बात भी कहते हैं और उसी की शपथ लेकर मंत्री भी बने रहते हैं.
झांसे, फरेब, असुरक्षाएं और बदगुमानियां
प्रधानमंत्री ने किसानों को बिना आधारवर्ष बताये दुगुनी आय का झांसा दे रखा है तो युवाओं व बेरोजगारों को चाय, पकौड़े और पान तक के फरेब. उनके चार सालों में अल्पसंख्यकों को नाना प्रकार की असुरक्षाएं हाथ आई हैं तो बहुसंख्यकों में ढेर सारी बदगुमानियां फैली हैं.
कालेधन के उन्मूलन की उम्मीद लगाये बैठे देश को उन्होंने नोटबंदी के रूप में कालेधन के प्रमोशन की तदवीर से बावस्ता कर दिया है, सो अलग. उनकी गृहनीति का हाल यह है कि जम्मू कश्मीर की किस्मत नाना प्रकार के नए उलझावों के हवाले हो गई है, जबकि विदेशनीति का यह कि विदेशमंत्री से ज्यादा मदर टेरेसा के रोल में नजर आने वाली सुषमा स्वराज लम्बे अरसे तक इराक में आईएसआईएस के हत्थे चढ़े भारतीयों के सकुशल होने के झूठे आश्वासनों के बाद उनके पार्थिव अवशेष लाने को अभिशप्त हुई हैं.
अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया भर में इसी तरह भारत का इकबाल बुलंद कर रहे हैं तो उनका ऐसा न करना ही देश के हित में होगा.
याद रखना चाहिए कि नरेंद्र मोदी भाजपा को इंदिरा गांधी के समय की उस कांग्रेस के सांचे में ढाल कर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे हैं, जब कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ जैसों की निगाह में वे भारत की और भारत उनका पर्याय हो गया था.
अब ‘मोदी ही सरकार और सरकार ही मोदी’ का जाप भी इसी से प्रेरित है. अपने समय की नायकविहीनता से पीड़ित हमारी जनता को कुछ देर को यह बात अच्छी लग सकती है, लेकिन जिन दूषित चेतनाओं की बिना पर मोदी का आभामंडल पिछले चार साल खड़ा रहा है, अब लोग समझने लगे हैं कि वे न खुद किसी आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन की वाहक हो सकती हैं और न इसकी मांग करती हैं.
ऐसे में बेहतर हो कि मोदी अपने आखिरी साल में ही सही, यह समझने की ईमानदार कोशिश करें कि यह देश उनके सब्जबागों और सत्ता की लिप्सा से बहुत बड़ा है और इसे तमाम अभिव्यक्तियों को कुचलकर या असहिष्णुताओं को सींचकर नहीं संकीर्ण स्वार्थों तो छोड़ने की सदाशयता से ही सही दिशा में ले जाया जा सकता है.
अन्यथा तथाकथित लहर व लोकप्रियता की सवारी शेर की सवारी सिद्ध होती है और अन्ना हजारे जैसे हश्र को प्राप्त होना पड़ता है. तब जनता विपक्ष के दैन्य से भरे आत्मसमर्पण के बीच भी नया विकल्प तलाश लेती है. 1977 के लोकसभा चुनाव का इतिहास इसका सबसे बड़ा गवाह है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)