क्यों राजनीति ने उर्दू को मुसलमान बना दिया है?

आम जनमानस में उर्दू मुसलमानों की भाषा बना दी गई है, शायद यही वजह है कि रमज़ान की मुबारकबाद देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने उर्दू को चुना. सच यह है कि जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे कई मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उर्दू नहीं बोली जाती.

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आम जनमानस में उर्दू मुसलमानों की भाषा बना दी गई है, शायद यही वजह है कि रमज़ान की मुबारकबाद देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने उर्दू को चुना. सच यह है कि जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे कई मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उर्दू नहीं बोली जाती.

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नरेंद्र मोदी की अधिकारिक वेबसाइट का उर्दू वर्ज़न

क्या उर्दू इस्लाम की भाषा है? क्या उर्दू मुसलमान है? क्या उर्दू, इस्लाम और मुसलमान किसी राजनीतिक श्रृंखला या त्रिकोण का निर्माण करते हैं? इस बारे में कोई भी विचार व्यक्त करने से पहले मैं आपको दिल्ली के एक कॉलेज का क़िस्सा सुनाना चाहती हूं.

ये मेरी एक सहेली की आपबीती है, तो हुआ यूं कि पहले ही दिन जब वो क्लास में पढ़ाने गई तो उसकी ‘पहचान’ को उसके साथ जोड़ दिया गया और ख़ास तरह से उसकी स्टीरियो-टाइपिंग की गई. चूंकि वो हिजाब पहनती है इसलिए विद्यार्थियों ने पूर्वाग्रह में ये मान लिया कि मैडम को अंग्रेज़ी-वंग्रेज़ी कहां आती होगी, ये हमें क्या पढ़ाऐंगी…

मेरी सहेली ने ये प्रसंग सुनाते हुए उन विद्यार्थियों के हाव-भाव और शारीरिक-भाषा को ख़ास तौर पर चिह्नित करते हुए बताया कि बच्चे मानो सोच कर बैठे थे कि मैडम से उर्दू का शेर सुनेंगे, जैसे उन्हें अपने भविष्य की चिंता से ज़्यादा एक नए टीचर के उपहास की ख़ुशी थी.

मज़ेदार बात ये है कि मेरी सहेली हिंदी-पट्टी से नहीं आती. हिंदी-उर्दू से उसका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं. ख़ैर जब उसने अंग्रेज़ी बोलना शुरू किया और साफ़ तौर पर ये कहा कि उसको उर्दू नहीं आती तो जैसे कई बच्चों के एक्साइटमेंट से लबरेज प्लान और बदमाशियों पर ठंडा पानी पड़ गया.

हालांकि बाद में कुछ बच्चों ने उससे ये कहते हुए माफ़ी मांगी कि मैम आप के हिजाब के कारण हमने आपको गलत समझा. हमें लगा आपको उर्दू आती होगी, अंग्रेज़ी नहीं. ये बात बस एक उदाहरण है, उर्दू के मुसलमान होने की और मुसलमानों के उर्दू बन जाने की.

ऐसी कहानियां अब आम हो गई हैं. उर्दू और मुसलमान में कोई अंतर नहीं रहा और यही आज की सच्चाई है. जी, उर्दू मुसलमान है, शायद इसलिए भी अब ये एक मानसिकता बन चुकी है कि हर मुसलमान को उर्दू आनी चाहिए. उर्दू पढ़ने वाले अब मुसलमान ही समझे जाते हैं, और शायद होते भी हैं.

गोया मुसलमानों पर उर्दू पढ़ना फ़र्ज़ है. परिणामस्परूप उर्दू विभाग के अलावा भी अगर कोई पढ़ने-लिखने वाली लड़की हिजाब पहनती है तो ये मान लिया जाता है कि उसे उर्दू ज़रूर आती होगी, बेचारी मुसलमान जो ठहरी.

इस तरह जनमानस में उर्दू मुसलमानों की भाषा है, हालांकि ये सच्चाई नहीं, राजनीतिक सच्चाई है. इसकी ताज़ा-तरीन मिसाल हमारे प्रधानसेवक का उर्दू में किया गया ट्वीट है. अभी पिछले ही दिनों माननीय प्रधानमंत्री ने रमज़ान की शुभकमाना देते हुए उर्दू में ट्वीट किया था.

इससे पहले वो फ़ारसी,अरबी और दुनिया-भर की भाषाओं में ट्वीट कर चुके हैं. लेकिन ध्यान देने योग्य बात ये है कि उर्दू में ही रमज़ान की शुभकामना देने का विचार प्रधानमंत्री के ज़ेहन में या उनकी सोशल मीडिया टीम को क्यों आया? कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी जी अपने ट्वीट के माध्यम से भी अवाम को ये संदेश देना चाहते थे कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है ?

और क्या एक ख़ास तरह के अवसर पर मोदी जी के उर्दू का ‘प्रयोग’ किसी राजनीतिक चालाकी की दास्तान नहीं सुनाता? शुभकामना तो किसी भी भाषा में दी जा सकती थी, लेकिन ख़ास तौर पर उर्दू का चयन ये बताता है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा ही नहीं इस्लामी भाषा भी है.

इस तरह वज़ीर-ए-आज़म ने भी उर्दू की स्टीरियो-टाइपिंग में एक बड़ी भूमिका निभाई है. क्या प्रधानमंत्री इतने मासूम हैं, क्या उन्हें नहीं पता कि उनका ये ट्वीट जनमानस की मानसिकता को बल देगा?

वैसे सियासत मानसिकता के साथ अच्छी तरह खेलने को भी कहते हैं. और क्या हुआ जो पहले से ही लोग उर्दू को मुसलमानों की भाषा समझ कर उसके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं. और क्या हुआ जो सुषमा स्वराज पाकिस्तान में जाकर कहती हैं कि उर्दू तो हिंदुस्तान की भाषा है.

हमारी राजनीति ने उर्दू को मुसलमान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और अब प्रधानसेवक ने भी अपना काम कर दिया है, आप भले से राग अलापते रहिए कि उर्दू मुसलमानों की ज़बान नहीं है. जानने वाली बात ये भी है कि प्रधानमंत्री की पर्सनल वेबसाइट का उर्दू वर्ज़न मौजूद है, जहां अधिकतर तस्वीरें हिजाब और बुर्क़ा पहनने वाली औरतों और टोपी पहनने वाले मुसलमानों की नज़र आती हैं.

उस समय भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और अब प्रधानमंत्री की इस आधिकारिक वेबसाइट का विमोचन सलमान ख़ान के पिता और प्रख्यात पटकथा लेखक सलीम ख़ान ने किया था. 16 अप्रैल 2014 को शुरू हुई इस वेबसाइट पर भी इसकी जानकारी दी गई है और बताया गया है कि प्रधानमंत्री ने इसके लिए सलीम ख़ान का शुक्रिया अदा किया था.

मोदी जी के इस उर्दू प्रेम की पृष्ठभूमि पर दैनिक जागरण की एक ख़बर के अनुसार सलीम ख़ान ने कहा था, ‘मुझे भी उर्दू पसंद है. मैंने ही मोदीजी को वेबसाइट की सलाह दी थी और यह मुस्लिम वोटरों को आकर्षित करने के लिए भाजपा की रणनीति नहीं है.’

यहां मुस्लिम वोटरों के हवाले से वज़ाहत मानी-ख़ेज़ है. और ये मानी-ख़ेज़ इसलिए है कि वेबसाइट पर भी ये दर्ज है कि समाज के अलग-अलग लोगों तक मोदी जी की विचारधारा को पहुंचाने के लिए ये एक माध्यम है, लेकिन इसको देखकर साफ़ लगता है कि ये केवल मुसलमानों के लिए है. ऐसे में ये सिर्फ आरोप नहीं कि मोदी जी उर्दू के साथ मुसलमान को संयोगवश जोड़ रहे हैं. सलीम साहब के शब्दों में भले से ये भाजपा की रणनीति न हो.

वैसे ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि क्या प्रधानमंत्री ने पहले कभी उर्दू में कोई ट्वीट किया है, जिसमें मुसलमानों से जुड़ा न हो? अगर नहीं तो क्या उर्दू में उनका ये ट्वीट 2019 की तैयारी है. हालांकि ये सियासत को शायद हल्का करके देखने जैसा है. इसलिए अब ये पूछा जा सकता है कि क्या ट्वीट भी हिंदू-मुसलमान हो सकते हैं ?

ग़ौरतलब है कि मोदी जी ने उर्दू के बाद अंग्रेज़ी में भी रमज़ान की शुभकामना दी, हां उर्दू के बाद, लेकिन क्यों? ये सवाल शायद नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि राजनीति ने उर्दू का धर्म चुन लिया है और ये सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी ने नहीं किया बल्कि तुष्टिकरण की राजनीति में कांग्रेस के हाथ ज़्यादा मैले हैं.

मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में बैनर, पोस्टर और तमाम तरह की अपील उर्दू में क्यों नज़र आती है? अगर उर्दू मुसलमान नहीं है तो आम जगहों पर भी ये इश्तिहार-बाज़ी क्यों नहीं होती ? इस सवाल का राजनीतिक जवाब देकर कुछ मुसलमान ख़ुश हो सकते हैं, भारतीय नागरिक नहीं.

सवाल ये भी है कि क्या सोशल मीडिया इन बातों के लिए सही प्लेटफॉर्म है ? जहां तक भाजपा की रणनीति की बात है तो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी जी के नाम से उर्दू ट्विटर हैंडल भी मौजूद है. ये साफ़ तौर नहीं कहा जा सकता कि ये ट्विटर हैंडल मोदी जी का ऑफीशियल ट्विटर एकाउंट है, लेकिन वो ख़ुद इसको फॉलो करते हैं.

यहां सावरकर को लेकर उर्दू में किए गए ट्वीट भी देखे जा सकते हैं. शायद ये भी मुसलमानों को लुभाने की एक कोशिश है और सीएम से पीएम तक के कुर्सी की रणनीति भी.

अब देखिए न ये हैंडल 2014 की कहानी को उर्दू में बयान करता है और फिर चुप्पी साध लेता है. आपको याद हो कि 26 मई 2014 को मोदी जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी और 28 मई के सावरकर वाले ट्वीट के बाद से ये ट्विटर हैंडल ख़ामोश है.

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ये वही मोदी हैं जिन्होंने 2011 में एक सदभावना प्रोग्राम के तहत ‘टोपी’ पहनने से इनकार कर दिया था. जिसके स्पष्टीकरण में उन्होंने कहा था कि वो उन चीज़ों में हिस्सा लेना ज़रूरी नहीं समझते,जो उनकी आस्था से अलग हैं. फिर रमज़ान की शुभकामना भी क्यों और वो भी पैग़म्बर की शान में क़सीदा पढ़ते हुए.

क्या ये प्रतीकवाद या टोकनिज़्म की सियासत नहीं है ? इस सियासी हरबे से तो यही नतीजा निकलता है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और देश का प्रधानमंत्री ज़रुरत पड़ने पर मुसलमानों से उसी की भाषा में बात कर सकता है.

वैसे इन बातों के लिए सिर्फ़ मोदी जी को दोष क्यों दिया जाए. लिहाज़ा रमज़ान के महीने में उर्दू का कोई भी अख़बार उठा लीजिए. जुमा-मुबारक और रमज़ान के महिमामंडन से ओतप्रोत कई पन्ने मिल जाएंगे. बेचारे उर्दू अख़बारों के संपादक विशेष तौर पर रमज़ान में और जुमा के दिन ख़बरें छापने का काम नहीं बल्कि नेकियां कमाने का काम करते हैं.

इन विशेष दिनों में ये अख़बार कम धार्मिक पत्रिका ज़्यादा मालूम पड़ते हैं. हालांकि भारतीय मुसलमानों की समस्याएं और इस्लाम दो अलग बातें हैं. लेकिन जुमा-मुबारक और रमज़ान में ये करें, वो न करें टाइप की चीज़ों से पेज भरने वाले संपादक भला प्रधानसेवक को ग़लत साबित करने में क्यों रहें, इसलिए उन्होंने पहले से ज़मीन तैयार करके रखी है.

फिर हम और आप भी मान लेते हैं. मेरी इस बात पर नाक-भौंह चढ़ायी जा सकती है लेकिन सवाल वही है कि किसी अन्य भाषा के अख़बार में इस्लाम या और धर्मो से जुड़ी कितनी चीज़ें छपती हैं? अगर नहीं छपती हैं तो उर्दू अख़बारों ने ये ठेका क्यों ले रखा है. शायद जवाब भी वही है कि उर्दू मुसलमान है. कुछ इसी तरह की बातों की वजह से शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने भी उर्दू अख़बारों को मुसलमानों का अख़बार कहा था,

‘ज़मींदार और सियासत आदि मुसलमान-अख़बार में तो अरबी का ज़ोर रहता है, जिसे एक साधारण व्यक्ति समझ भी नहीं सकता. ऐसी दशा में उनका प्रचार कैसे किया जा सकता है?’

आज भगत सिंह होते तो पता नहीं क्या-क्या कहते कि अब उर्दू अख़बारों में गंगा-जमुनी तहज़ीब के कितने धारे बहते हैं? यूं देखें तो भाषा और साहित्य की तरक़्क़ी के लिए काम करने वाली उर्दू अकादमी की इफ़तार-पार्टी का मतलब भी समझ से परे है. इन संस्थानों में विशेष धर्म के सामाजिक व्यवहार को कैसे जायज़ ठहराया जा सकता है?

उर्दू के नाम पर सबसे ज़्यादा रोटी खाने वाली कांग्रेस ही वो पार्टी है जिसने इस तरह के आयोजनों को हमारे संस्थानों में जगह दी और अपने सेकुलर होने का ढोल पीटा. जो लोग इस तरह के आयोजनों में जाते रहे हैं वो जानते हैं कि निमंत्रण पर बाक़ायदा मुख्यमंत्री का नाम मोटे-मोटे शब्दों में लिखा होता है.

गोया राजनीतिक पार्टियों के चश्में से देखें तो उर्दू मुसलमान है और हर मुसलमान को उर्दू आनी चाहिए, चाहे वो मेरी ग़ैर हिंदी-पट्टी वाली सहेली ही क्यों न हो. आपको ये भी याद दिलाती चलूं कि आज भी मुल्क के मुस्लिम बहुल प्रदेश में उर्दू नहीं बोली जाती. जम्मू-कश्मीर, लक्षद्वीप, केरल, असम, पश्चिम बंगाल को ही देख लीजिए, जबकि मुसलमानों की एक बड़ी आबादी इन प्रदेशों में रहती है.

अब जी चाहे तो आप उनके मुसलमान होने पर भी सवाल उठा सकते हैं. रही बात मोदी जी की तो उनका ट्वीट भी इस समाज का दर्पण है और क्या? सदा अम्बालवी के शब्दों में कहें तो,

अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बां थी प्यारे

अब सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से

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