पत्रकारिता को स्टिंग ऑपरेशन से ज़्यादा ख़तरा ज़हर फैला रहे मीडिया से है

मीडिया मालिक अख़बारों और न्यूज़ चैनलों को सुधारने के लिए कुछ करें या न करें, लेकिन यह तो तय है कि जब तक हर रोज़, हर न्यूज़रूम में प्रतिरोध की आवाज़ें मौजूद रहेंगी, तब तक भारतीय पत्रकारिता बनी रहेगी.

/
(फोटो: रॉयटर्स)

मीडिया मालिक अख़बारों और न्यूज़ चैनलों को सुधारने के लिए कुछ करें या न करें, लेकिन यह तो तय है कि जब तक हर रोज़, हर न्यूज़रूम में प्रतिरोध की आवाज़ें मौजूद रहेंगी, तब तक भारतीय पत्रकारिता बनी रहेगी.

newspaper media reuters
(फोटो: रॉयटर्स)

कोबरापोस्ट की ओर से किए गए दो दर्जन से अधिक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मीडिया हाउस के ‘स्टिंग ऑपरेशन’ पर मीडिया उद्योग की ओर से कई तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. कोई चुप्पी साधे हुए है, तो कोई क़ानूनी कार्रवाई की धमकी दे रहा है तो कोई किसी भी तरह के गलत काम में संलिप्त होने से सीधा इनकार कर रहा है.

टाइम्स समूह की ओर से तो यहां तक भी दावा किया गया है कि उसके बड़े अधिकारी जो कैमरे के सामने आपत्तिजनक बयान देते हुए देखे जा रहे हैं दरअसल ‘रिवर्स स्टिंग’ कर रहे थे और कोबरापोस्ट के अंडरकवर रिपोर्टर को अपनी बातों में ‘फंसा’ रहे थे.

इस स्टिंग में फंसी कोई भी मीडिया संस्था ये बात मानने को तैयार नहीं है कि वे जिस तरह  से अपना व्यवसाय चला रहे हैं, उसमें कुछ भी गलत नहीं है. उनकी इस हिचक की वजह तो समझी जा सकती है लेकिन देश के दूसरे मीडिया संस्थानों की चुप्पी समझ से परे है.

कुछ मीडिया मालिकों ने स्टिंग ऑपरेशन की नैतिकता को लेकर सवाल खड़े किए हैं और कहा है कि उनके संस्थानों में इसकी इजाज़त नहीं है. नियम के मुताबिक पत्रकारों को किसी स्टोरी के कवरेज के दौरान अपनी ग़लत पहचान नहीं बतानी चाहिए. इस नियम में कभी-कभार थोड़ी-बहुत छूट ली जाती है लेकिन स्टिंग में तो सब कुछ पूरी तरह से गलत पहचान पर ही टिका होता है.

हालांकि संपादक कोई जज नहीं हैं, जो किसी सूचना को उसके गलत तरीके से निकाले जाने के आधार पर कोई फैसला करेंगे.  पत्रकारिता में ऐसा नहीं होता, यहां बस एक पैमाना होता है कि वह सूचना जनहित को किस तरह प्रभावित करती है.

‘सार्वजनिक हितों को तरजीह’

विकीलीक्स और एडवर्ड स्नोडेन ने गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक करके अमेरिकी क़ानून को तोड़ा. इसके बावजूद उस देश के कुछ बड़े अखबारों और समाचार चैनलों ने उन दस्तावेजों को दिखाने को लेकर अछूत जैसा व्यवहार नहीं किया.

उन्होंने उसे पढ़कर उसका मूल्यांकन किया और जितना संभव हो सकता था, उसकी जांच की और फिर उसे सार्वजनिक तौर पर सामने लाया. ऐसा उन्होंने सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए किया भले ही वो सूचनाएं ग़ैर-क़ानूनी तरीके से इकट्ठा की गई थी.

इस साल की शुरुआत में ब्रिटेन की एक सम्मानीय समाचार संस्था चैनल 4 ने कैंब्रिज एनालिटिका के ऊपर किए गए स्टिंग ऑपरेशन को सार्वजनिक किया था. बिल्कुल उसी तरह जैसे कोबरापोस्ट के स्टिंग में एक अंडरकवर रिपोर्टर को अपने पक्ष में चुनाव को प्रभावित करने के बदले में मीडिया संस्थानों को पैसे की पेशकश करते हुए दिखाया गया है.

भारत के किसी भी बड़े मीडिया संस्थान ने इस स्टिंग के बारे में न विस्तार से बताया है और न ही इसके निहितार्थों पर कोई चर्चा की है. इसमें वैसे मीडिया संस्थान भी शामिल हैं जो अचानक से स्टिंग की नैतिकता को लेकर अतिसंवेदनशील हो चुके हैं. पैसे के बलबूते पर राजनीतिक मुद्दों को भटकाना जनहित से समझौता करने से जुड़ा मुद्दा है. कोबरापोस्ट का स्टिंग इसी मुद्दे को लेकर था.

एक रिपोर्टर खुद को ‘आचार्य अटल’ के तौर पर कई मीडिया संस्थानों से रुबरू करवाता है और कहता है कि वो एक हिंदुत्ववादी संगठन का प्रतिनिधि है और जिसका मकसद मीडिया की मदद से हिंदुत्व की राजनीति को प्रमोट करने में है ताकि भारतीय जनता पार्टी को अगले चुनाव जीतने में मदद मिल सके. इसके लिए वो बड़ी रकम खर्च को तैयार था, जिससे वो बड़ी आसानी से एक दर्जन से भी अधिक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अखबारों और टीवी चैनलों के उच्च अधिकारी तक पहुंचने में कामयाब रहा.

गुप्त रूप से रिकॉर्ड किये गए वीडियो में उसने एक चरणबद्ध तरीके से हिंदुत्व के प्रौपगेंडा को फैलाने का प्रस्ताव रखा था. सबसे पहले उसने प्रस्ताव रखा कि धार्मिक विषय-वस्तु की बदौलत ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ को बढ़ावा दिया जाएगा ताकि ‘अनुकूल माहौल’ तैयार किया जा सके. फिर अगले चरण में भाजपा के प्रतिद्वंदियों का मजाक उड़ाने की योजना रखी और तीसरे चरण में चुनाव नजदीक आने पर ऐसी विषय-वस्तु डाली जाए जिससे कि ‘ध्रुवीकरण’ तेज़ हो.

वो तीन जघन्य अपराध

पत्रकारिता के सामान्य नैतिक मापदंडों का ख्याल रखने वाला कोई भी मीडिया हाउस ‘आचार्य अटल’ के जहरीले एजेंडे के बारे में पता चलते ही उसे बाहर का रास्ता दिखा देता.

कोबरापोस्ट के मुताबिक सिर्फ दो बंगाली अखबार बर्तमान और दैनिक संबाद ने ही सिर्फ ये रवैया अपनाया और ‘आचार्य अटल’ को कहा कि वो उनके साथ किसी तरह का कोई मतलब नहीं रखना चाहते हैं.

टाइम्स समूह का कहना है कि उनके मैनेजिंग डायरेक्टर जैसा कहते हुए वीडियो में नजर आ रहे हैं, उसे उस तौर पर नहीं लेना चाहिए. वो उल्टे उस रिपोर्टर की स्टिंग कर रहे थे.  उनका कहना है कि उनके पास इस बात के समर्थन में खुद की वीडियो क्लिप साक्ष्य के तौर पर है. इससे साफ पता चलता है कि जहां कहीं भी ‘आचार्य अटल’ गए उनका खुले दिल से स्वागत किया था. यह पहला अपराध था जो मीडिया संगठनों ने किया है.

इस तरह का कुकृत्य तब किया जाता है जब संपादकीय और प्रबंधन के बीच का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ गया होता है और वो प्रबंधन की तरफ उसका झुकाव रहता है. ऐसी हालत में कंपनी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भूल चुका होता है और दूसरी किसी भी चीज की तुलना में लाभ कमाना ही उद्देश्य रह जाता है.

‘आचार्य अटल’ ने उसी तरह का प्रस्ताव रखा था जिस तरह का प्रस्ताव मार्लबोरो मैन ने कभी अमेरिकी मीडिया हाउस के पदाधिकारियों के सामने रखा था. उसने अमेरिकी मीडिया के समाने धूम्रपान को बढ़ावा देने के एवज में लाखों डॉलर देने की पेशकश की थी.

हो सकता है कि बिग टोबैको के उन बुरे दिनों में उन्होंने कुछ उसे इस तरह से उबारा हो. 2018 में इसकी कोई गुंजाइश नहीं है. फिर भी भारत में सांप्रदायिकता के कैंसर को मीडिया के हाथों बेचने का आइडिया कौतूहल पैदा करने वाला है.

(फोटो साभार: ट्विटर)
(फोटो साभार: ट्विटर)

पहला अपराध कि पैसा ही सब कुछ है, ने दूसरे अपराध को जन्म दिया है. ये है कि एक मीडिया संस्थान अब अपने किसी क्लाइंट को सामान्य विज्ञापन से ज्यादा जगह देने की चाहत रखता है. ‘आचार्य अटल’ इसे लेकर स्पष्ट नहीं थे कि उन्हें वाकई किस रूप में अपने एजेंडे का प्रचार-प्रसार चाहिए. ये उन्होंने मीडिया संस्थानों के ऊपर छोड़ रखा था.

उन्हें जो ऑफर मिले, वो थे- एडवरटोरियल, ब्रांड प्रमोशन और पैसा लेकर लिखे जाने वाले फीचर्स जिनके बारे में पाठकों को पता नहीं होता कि वे पैसा लेकर लिखे गए हैं. कुछ संस्थानों ने तो खुलकर आपसी लाभ की बात की और माना कि विज्ञापनदाता अगर ज्यादा खर्च करते हैं तो संपादकीय उनके प्रति निश्चित तौर पर उदार रहेगा.

हिंदुस्तान टाइम्स के एक अधिकारी ने अंडरकवर रिपोर्टर से कहा, ‘अगर आप हमें आपको लेकर सकारात्मक रहने के लिए दो करोड़ रूपये देते हैं तो फिर स्वभाविक तौर पर हमारी संपादकीय नीति आपके प्रति ज्यादा नकारात्मक होने को लेकर दबाव में रहेगी.’ कुछ जगहों पर एड-सेल्स विभाग के कर्मियों और रेवेन्यू अधिकारियों ने पॉजिटिव न्यूज़ कवरेज करने की भी पेशकश की, जिसे पेड न्यूज़ कहते हैं.

वो क्या बात है जो कंपनी के अंदर बिजनेस से जुड़े हुए अधिकारियों को संपादकीय नीति को लेकर इतना आत्मविश्वास देता है? कुछ मामलों में हो सकता है कि कुछ मामलों में ऐसा सिर्फ कहने को या विज्ञापनदाता को प्रभावित करने के लिए कहा गया हो, लेकिन ज्यादातर अखबारों और टीवी चैनलों में इस तरह के वादे उस संस्था के वास्तविक चरित्र को दर्शाते हैं.

सच तो यह है कि कुछ सालों पहले मीडिया मालिकों ने अपने विज्ञापन और मार्केटिंग विभाग को किसी भी कीमत पर लाभ कमाने के लिए उन्हें अधिकार सौंप दिए थे चाहे भले ही इसके लिए संपादकीय नीति से भी क्यों न समझौता करना पड़े.

बड़े विज्ञापनदाता अपने पक्ष में मनमाफिक कवरेज की उम्मीद करते हैं और उन्हें ये मिलती भी है. इसका सबसे विषाक्त रूप अब मीडिया संस्थानों के द्वारा मार्केटिंग इवेंट के आयोजन के तौर पर दिख रहा है. इसमें बड़े-बड़े राजनेता वक्ता और कॉरपोरेट हाउस प्रायोजक के तौर पर शामिल होते हैं. ऐसे आयोजनों के कुछ महीने पहले और बाद में संपादकीय पर ‘ज्यादा नकारात्मक’ न होने का दबाव रहता है.

तीसरा अपराध जो कोबरापोस्ट के स्टिंग में सामने आया है वो है नकद रकम के रूप में व्यवसायिक भुगतान को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाना. मीडिया हाउस के वो बड़े नाम, जो नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के गलत तरह से लागू किये गये फैसले को यह कहकर जायज ठहरा रहे थे कि इससे काला धन खत्म हो जाएगा, उन्हें ‘आचार्य अटल’ से कई किश्तों में नकद पैसा लेने में कोई परेशानी नज़र नहीं आई.

एक वीडियो में टाइम्स समूह के मैनेजिंग डायरेक्टर को पैसे का लेन-देन कैसे किया जा सकता है, ये बताते हुए दिखाया गया है. समूह के क़ानूनी विभाग ने इस बात पर जोर दिया है कि कोबरापोस्ट की ओर से दिखाए जा रहे वीडियो के साथ छेड़खानी की है और उसमें चीजों को गलत तरीके से दिखाया गया है. यह तो कहा ही गया है कि विनीत जैन उल्टे अंडरकवर रिपोर्टर को फंसा रहे थे.

जैसा भी हो, लेकिन आयकर विभाग को वीडियो में बताए जा रहे उन सभी माध्यमों की पड़ताल करनी चाहिए ताकि यह पता चल सके कि किसी स्वरूप में  ऐसा होता है. पेड न्यूज़ को लेकर चुनाव आयोग को मिली शिकायतों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि राजनेता इस तरह के लेन-देन में नकद रकम का इस्तेमाल करते हैं.

क्या किया जाना चाहिए

मुंह फेरने के बजाए भारतीय मीडिया को इस मौके का इस्तेमाल कर खुद को सही रास्ते पर लाने के लिए करना चाहिए. तीन स्तरों पर मीडिया के अंदर सफाई का यह काम किया जाना जरूरी है.

पहला तो यह कि अनैतिक व्यवसायिक गतिविधियों को बिल्कुल छोड़ देना चाहिए खासकर जो विज्ञापन और समाचार के बीच के फर्क को खत्म करता है. एक स्पष्ट लाइन खींची जाने की जरूरत है और मार्केटिंग से जुड़े अधिकारियों को हर स्तर पर इसका पालन करने के लिए समझाने की जरूरत है.

बहुत ही साफ बात है कि कभी भी पाठकों और दर्शकों को पैसे के बदले दिखाए जाने वाली खबरों, विश्लेषण या फिर किसी कंटेंट के माध्यम से गुमराह न करें. पाठक और दर्शक किसी भी मीडिया संस्था के सबसे बड़े  धरोहर हैं और कोई भी बिजनेस मॉडल जो उन्हें धोखा देने पर टिका हो ज्यादा दिन तक कामयाब नहीं हो सकता है.

दूसरी बात है कि मीडिया मालिकों को अपने अखबारों और न्यूज़ चैनलों में संपादकीय पक्ष और व्यवसायिक पक्ष के बीच एक पर्याप्त संतुलन कायम करना होगा. यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है और अभी भी ऐसे मीडिया संस्थान हैं जो अपने संपादकीय स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं.

मैं खुशनसीब रहा कि मुझे 2012 से लेकर 2013 तक दो सालों तक ‘द हिंदू’ का संपादक रहने का मौका मिला. मैनेजमेंट की ओर से किसी को भी, फिर वो सीईओ या मालिक ही क्यों न हो, उन्हें ये अधिकार नहीं था कि वो किसी संपादकीय फैसले में दखल दे सके और इस सीमा का वो पूरा ख्याल रखते थे.

संपादकों की आज़ादी का मसला तीसरी बात है. इस आज़ादी का मतलब तभी है जब कोई इसका वाकई में इस्तेमाल करने में सक्षम हो. इसलिए मालिकों का यह कहना काफी नहीं होगा कि, ‘मेरे संपादक ही सबकुछ तय करते हैं.’ जब संपादक बार-बार अपने मालिक की ओर यह भांपने के लिए देखे कि वो क्या चाहते हैं.

जब हरीश खरे को ‘द ट्रिब्यून’ का संपादक बनाया गया था तब उन्होंने एक शेर के हवाले से मुझसे कहा कि वो बिना किसी लंबी पारी की उम्मीद किए बिना और कभी भी खत्म हो जाने की उम्मीद के साथ अपने माथे पर कफन बांधने जा रहे हैं.

उन्होंने बड़े साहस के साथ इस जहाज को चलाया लेकिन जब उन्हें अखबार के ट्रस्टियों की ओर से समुद्र में आने वाले लहर का अंदेशा हुआ तो उन्होंने बड़ी खामोशी से खुद को अलग कर लिया और कहा कि ये मेरी नज़र के सामने तो नहीं हो सकता.

‘जैसा हो सके वैसा विरोध दर्ज करवाएं’

‘ये मेरी नज़र के सामने तो नहीं हो सकता’ ये शब्द सभी संपादकों और पत्रकारों के लिए होने चाहिए फिर वो संपादकीय टीम में किसी भी पद पर क्यों न हो.

अगस्त 1998 में जब मैं एक नौजवान असिस्टेंट एडिटर की हैसियत से टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पेज का काम देख रहा था तब मुझे एक सीख मिली थी.

मुझे ‘चौथी मंजिल’ पर एक मीटिंग के लिए बुलाया गया, जहां मैनेजमेंट को लोग बैठते हैं. उस वक्त मेरे बॉस जग सुरैया थे. उनके अलावा मीटिंग में मैनेजमेंट के कुछ सीनियर लोग और बॉम्बे से हॉटलाइन पर एक शीर्ष के मैनेजर थे. उस वक्त 1992-1993 बॉम्बे दंगे पर श्रीकृष्ण कमीशन की रिपोर्ट आई थी जिसमें शिवसेना को सैकड़ों मुसलमानों की हत्या का दोषी पाया गया था.

इस बैठक का मकसद यह था कि शिवसेना को इस मामले में रियायत देनी है. हमें कहा गया कि बैनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड के चेयरमैन अशोक जैन की तरफ से यह निर्देश आया है. हमें अगली सुबह की संपादकीय में यह कहना था कि श्रीकृष्ण गलत हैं और ‘दोनों पक्ष’ हिंसा के लिए जिम्मेदार थे. इसकी वजह जो मुझे बाद में समझ आई, वो यह थी कि शिवसेना उस वक्त महाराष्ट्र में सत्ता में थी और मुंबई में टाइम्स हाउस की 100 साल पुरानी लीज़ को रिन्यू करने लेकर कोई मामला फंसा था.

मैंने संशय के साथ पूछा ‘लेकिन दूसरा पक्ष कौन था?’ जवाब आया, ‘मुस्लिम पक्ष.’

मैं कहने लगा कि यह सच नहीं है, तभी जग सुरैया ने मेरी बात बीच में ही काटते हुए कहा, ‘कृपया मिस्टर जैन को बता दे कि मिस्टर वरदराजन ये संपादकीय नहीं लिखना चाह रहे हैं. और चूंकि मैं भी इस बात से सहमत नहीं हूं इसलिए ऐसा संपादकीय नहीं लिखूंगा और मैं उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता.’

मीटिंग ऐसे ही खत्म हो गयी और हम नीचे आ गए. हालांकि हमारी ये ‘बहादुरी’ किसी काम नहीं आई और हम उन्हें उनकी मर्जी का संपादकीय लिखने से नहीं रोक पाए. ये संपादकीय हमारे विभाग से बाहर किसी और व्यक्ति से लिखवाया गया और अगले दिन के अखबार में छपा. लेकिन हमें इसे बात की तसल्ली थी कि हमने अपने घुटने नहीं टेके.

इसलिए पत्रकारों को मेरी सलाह है कि वो जहां कहीं भी और जो कुछ भी कर रहे हो, हो सकता है उनके लिए सीधे तौर पर पेशे की नैतिकता के खिलाफ होने वाली गतिविधियों का विरोध करना संभव न हो लेकिन अपने लिए, अपने सहकर्मियों के लिए, उस संस्थान के लिए जहां आप काम करते हैं, इसे बिना लड़े इसे मत जाने दीजिए.

और लड़ने का सबसे बेहतरीन तरीका है कि अपने काम के सिद्धांत पर टिके रहिए. कोई गलत स्टोरी मत कीजिए. जो खबर महत्वपूर्ण है उसे नज़रअंदाज़ मत कीजिए. हर मीटिंग में बोलिए. जहर फैलाने वालों के लिए इसे आसान मत बनाइए.

मीडिया मालिक अखबारों और न्यूज़ चैनलों को सुधारने और भविष्य में होने वाले नुकसान से बचाने के लिए कुछ करें या न करें, लेकिन ये तो तय है कि जब तक हर रोज, हर न्यूज़रूम में विद्रोह मौजूद रहेंगे, तब तक भारतीय पत्रकारिता बनी रहेगी.

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/pkv-games/ https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/bandarqq/ https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/dominoqq/ https://ojs.iai-darussalam.ac.id/platinum/slot-depo-5k/ https://ojs.iai-darussalam.ac.id/platinum/slot-depo-10k/ https://ikpmkalsel.org/js/pkv-games/ http://ekip.mubakab.go.id/esakip/assets/ http://ekip.mubakab.go.id/esakip/assets/scatter-hitam/ https://speechify.com/wp-content/plugins/fix/scatter-hitam.html https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/ https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/dominoqq.html https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/ https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/dominoqq.html https://naefinancialhealth.org/wp-content/plugins/fix/ https://naefinancialhealth.org/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://onestopservice.rtaf.mi.th/web/rtaf/ https://www.rsudprambanan.com/rembulan/pkv-games/ depo 20 bonus 20 depo 10 bonus 10 poker qq pkv games bandarqq pkv games pkv games pkv games pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games bandarqq dominoqq