फसल काटते किसान की तस्वीर फांसी के फंदे पर लटकते किसान में क्यों बदल गई है?

किसान संगठनों ने जब ‘गांव बंद’ आंदोलन शुरू किया तो उन्हें उम्मीद थी कि चुनावी साल होने के कारण आमतौर पर ऊंचा सुनने वाली दिल्ली उन्हें सुनेगी लेकिन वे गलत सिद्ध हुए. सरकार उनका मज़ाक उड़ाने पर उतर आई है.

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Hisar: Vegetables lie scattered on a road as farmer's protest enters third day, in Hisar, on Sunday, June 03, 2018. (PTI Photo) (PTI6_3_2018_000058B)
Hisar: Vegetables lie scattered on a road as farmer's protest enters third day, in Hisar, on Sunday, June 03, 2018. (PTI Photo) (PTI6_3_2018_000058B)

किसान संगठनों ने जब ‘गांव बंद’ आंदोलन शुरू किया तो उन्हें उम्मीद थी कि चुनावी साल होने के कारण आमतौर पर ऊंचा सुनने वाली दिल्ली उन्हें सुनेगी लेकिन वे गलत सिद्ध हुए. सरकार उनका मज़ाक उड़ाने पर उतर आई है.

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हरियाणा के हिसार में प्रदर्शन करते किसान. (फोटो: पीटीआई)

किसान एकता मंच और राष्ट्रीय किसान महासंघ के बैनर पर सैकड़ों किसान संगठनों ने गत एक जून को देश के अनेक राज्यों में दस दिनों का ‘गांव बंद’ आंदोलन शुरू किया तो यकीनन, ‘चुनाव वर्ष’ होने के कारण उन्हें उम्मीद थी कि आमतौर पर ऊंचा सुनने वाली दिल्ली, जैसे भी संभव होगा, फौरन से पेश्तर उन्हें तवज्जो देगी.

इस कारण और भी कि वे उससे कोई आकाश कुसुम नहीं मांग रहे थे. अभी भी नहीं ही मांग रहे. वे तो बस इतना भर चाहते हैं कि कर्ज का जो दुस्सह बोझ उनमें से अनेक की आत्महत्याओं का कारण बना हुआ है, उसे माफ कर दिया जाये, इस सिलसिले में भेजे गए नोटिस वापस ले लिए जाएं, उनकी उगाई फसलों को कौड़ियों के मोल न होने दिया जाये, न्यूनतम आय की गारंटी दी जाये और बहुचर्चित स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू कर दी जाये.

उनके हिसाब से इसमें कोई कठिनाई इसलिए भी नहीं आनी चाहिए थी कि चार साल पहले सत्ता में आई भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार ने उनसे इस सबका वायदा कर रखा है. लेकिन अभी किसानों का आंदोलन उरूज पर भी नहीं पहुंचा है और वे गलत सिद्ध हो गए हैं. केंद्र और साथ-साथ राज्यों की सरकारों ने भी न सिर्फ उनके आंदोलन के प्रति बेहद पूर्वाग्रही और नकारात्मक रवैया अपना लिया है बल्कि उसका मजाक उड़ाने पर भी उतर आई है.

केंद्रीय कृषिमंत्री राधामोहन सिंह तो उसे कतई गंभीरता से लेने को भी तैयार नहीं हैं. कह रहे हैं कि यह आंदोलन देश के करोड़ों किसानों के नाम पर ‘कुछ किसानों द्वारा मीडिया में आने के लिए किया जा रहा उपक्रम’ है और कतई कोई मायने नहीं रखता.

एक ओर उनका यह जले पर नमक छिड़कने वाला बयान है, दूसरी ओर एक अन्य केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने किसानों की चिंताओं व समस्याओं के लिए वैश्विक आर्थिक स्थिति और अतिरिक्त उपज को जिम्मेदार ठहराकर सरकार की किसी जिम्मेदारी से ही पल्ला झाड़ लिया है.

अलबत्ता, यह कहते हुए कि उनकी समस्याओं के हल के लिए सरकार मध्यावधि और दीर्घकालिक नीतियां बनाकर युद्धस्तर पर काम कर रही है. क्या पता युद्धस्तर पर किया जा रहा यह कैसा काम है, ‘बेचारी’ सरकार जिसे करने में हलकान हुई जा रही है और आंदोलित किसानों को वह कहीं नजर ही नहीं आ रहा.

बात सरकार के इस असहनीय रवैये तक ही सीमित नहीं है. चूंकि किसानों द्वारा सब्जियों, फलों और दूध वगैरह की आपूर्ति रोक दिए जाने से कई राज्यों के छोटे-बड़े शहरों व कस्बों में इनका अभाव होने लगा और दाम बढ़ने लगे हैं, इसलिए सरकार के शुभचिंतक बुद्धिजीवी और पत्रकार भी किसानों पर भड़कने लगे हैं.

ऐसे, जैसे पुराने जमाने में जमीनदारों के आसामियों पर जुल्म ढाने में उनके लठैत या कि कारिन्दे उनसे आगे बढ़ जाया करते थे. इनमें से एक स्वनामधन्य संपादक ने तो किसानों पर हमला करते हुए लिख डाला है कि किसानों का अपनी मांगें मनवाने हेतु सरकार पर दबाव बनाने के लिए दूध व सब्जियों को यों सड़कों पर फेंक कर बरबाद करना और आम लोगों की समस्याएं बढ़ाना कतई ठीक नहीं.

इन महोदय का दावा है कि उन्हें यह समझ में नहीं आता कि जो किसान अन्न के एक-एक दाने को बचाने के जतन करते हैं, वे दूध और सब्जियां फेंकने पर क्यों कर उतर सकते हैं.

उनके इस दावे की पड़ताल करें तो लगता है कि यह बात वे जानबूझकर नहीं समझना चाहते कि गम और गुस्से की कितनी परतों से गुजरने के बाद किसान दूध और सब्जियां फेंकने के फैसले तक पहुंचे होंगे और इससे पहले उन्होंने कितने अन्य विकल्पों पर विचार किया होगा?

लेकिन लगातार अनसुनी ने उन्हें ऐसी हालत में डाल दिया है कि उन्हें अपनी रात की कोई सुबह ही नहीं दिखती तो क्या करें? सो भी, जब अल्लामा इकबाल उनके ऐसे ‘आत्मघाती’ फैसलों के औचित्य और अनौचित्य के निर्णय का एक सुविचारित सिद्धांत दे गये हैं-जिस खेत से दहकां को मयस्सर नहीं रोजी, उस खेत के हर खोशा-ए-गन्दुम को जला दो.

अफसोस कि इसके बावजूद संपादक महोदय को किसानों के दूध व सब्जियां सड़कों पर बहा देने से महानगरों के आम लोगों को होने वाली समस्याओं की फिक्र तो है, लेकिन जानलेवा हालात का सामना कर रहे किसानों के लिए उनके पास दो बूंद आंसू भी नहीं हैं, जबकि इस आंदोलन के दौरान भी मध्यप्रदेश से तीन किसानों की आत्महत्याओं की खबरें आ चुकी हैं.

Ahmednagar: Farmers spilling milk on the road during their state-wide strike over various demands at a village in Ahmednagar, Maharashtra on Thursday. PTI Photo (PTI6_1_2017_000206B)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

संपादक जी इस तथ्य पर भी विचार नहीं ही करना चाहते कि इन किसानों की मांगों में क्या एक भी ऐसी है, जो महानगरों के आम या खास लोगों कें खिलाफ गलत, उनको नुकसान पहुंचाने वाली या अनुचित हो? अगर नहीं है तो उन्हें पूरी करने के लिए आंदोलन के उग्र होने की प्रतीक्षा क्यों की जा रही है?

हां, संपादक महोदय ने पिछले दिनों लांग मार्च निकाल कर मुंबई पहुंचे महाराष्ट्र के उन किसानों की ‘मुक्त कंठ से’ सराहना की है, जिन्होंने मुंबई में प्रवेश के वक्त इस बात का खास खयाल रखा था कि उनके चलते शहर वालों को कोई परेशानी न हो.

लेकिन ऐसा करते हुए भी उन्होंने यह नहीं बताया है कि उन किसानों को अपनी उस शराफत का क्या लाभ हुआ और क्यों वे इस नये आंदोलन में भी भागीदारी निभाने को ‘अभिशप्त’ हैं? वहां भी किसान समूचे महाराष्ट्र में प्रदर्शन कर रहे हैं, जबकि सरकार ने पिछले महीने उनसे किए गए वायदों के प्रति खिलाफी का रास्ता अपना रखा है.

यहां कौन याद दिलाये कि तब भाजपा सांसद पूनम महाजन ने उन किसानों को भी यह कहकर चिढ़ाया ही था कि उनके मार्च के पीछे शहरी माओवादियों का हाथ है.

इस बीच, राष्ट्रीय किसान महासंघ के संयोजक शिवकुमार शर्मा उर्फ कक्काजी कह रहे हैं कि उनका आंदोलन पांच जून से तेज होगा. अभी तो उसके तहत किसान इतना ही कर रहे हैं कि अपने गांवों से शहरों को फल-सब्जियों और दूध नहीं भेज रहे, अपने गांव की चैपाल पर ही बेच रहे हैं और इस दौरान शहरों से कोई खरीददारी नहीं कर रहे.

फिर भी सरकारें बेचैन हो उठी हैं और किसानों को अपनी उपज को बेचने के लिए बाध्य करने के साथ हिंसा के लिए उकसा रही हैं. बहुत संभव है कि वे आंदोलन को इस कारण राजनीति के चश्मे से देख रही हों कि कांग्रेस ने आगे बढ़कर किसानों की मांगों का समर्थन कर दिया है और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी ने छह जून को मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले की पिपलिया मंडी में 6 जून को किसानों की सभा को संबोधित करने जा रहे हैं.

याद रखना चाहिए कि इस आंदोलन के लिहाज से मंदसौर इसलिए बहुत संवेदनशील है कि किसानों के पिछली बार के आंदोलन के दौरान छह जून, 2017 को हुई पुलिस फायरिंग में वहां कई किसानों की जान गई थी. आगामी छह जून को किसान संगठन वहां उनकी पहली बरसी मना रहे हैं.

कक्का जी की यह बात सच हो कि सरकारें आंदोलन को राजनीति के चश्मे से देख रही हैं, तो सरकारों के स्तर पर कम से कम इतना तो समझा ही जाना चाहिए कि कांग्रेस से उनकी जो भी राजनीतिक दुश्मनी हो, उसकी बिना पर किसानों को लक्ष्य बनाने या उनसे रंजिश रखने का उन्हें कोई हक नहीं बनता.

वे ऐसा करेंगी तो किसान और उद्वेलित होंगे और अभी उनके द्वारा सब्जियों और दूध को शहरों में जाने देने से रोकने के लिए नाकाबंदी की जो खबरें आ रही हैं, वे और बढ़ेंगी. लेकिन आगे जो भी हो, अभी तो यह विडंबना देखिये कि किसानों के इस आंदोलन को लेकर सरकारी तंत्र का अहंकार इस तथ्य के बावजूद असीम होता जा रहा है कि किसानों को अभी भी अन्नदाता तो कहा ही जाता है, यह भी कहा जाता है कि हमें अपने पूरे जीवन में डॉक्टरों, वकीलों व इंजीनियरों की जरूरत तो कभी-कभी ही पड़ती है, लेकिन किसानों की जरूरत हर दिन दोनों जून पड़ती है.

Meerut: Bharatiya Kisan Andolan activists along with the farmers throw tomatoes on a road during a protest various issues of the farmers including their loan waiver, in Meerut on Sunday, June 03, 2018. (PTI Photo) (PTI6_3_2018_000093B)
उत्तर प्रदेश के मेरठ में विरोध प्रदर्शन करते किसान (फोटो: पीटीआई)

कई क्षेत्रों में यह कहावत भी है कि खाना खाते वक्त यह दुआ जरूर करनी चाहिए कि जिस किसान के खेतों से वह आया है, उसके बच्चे कभी भूखे न सोयें. अफसोस कि अब यह दुआ या तो की नहीं जाती या काम नहीं आती. इसीलिए वह समाज व्यवस्था हमारी कल्पनाओं तक में नहीं रह गई है, जिसके तहत कभी महाकवि घाघ ने कृषि कर्म को सबसे उत्तम बताया, व्यापार को दूसरे स्थान पर रखा और चाकरी को निषिद्ध करार दिया था.

इसके उलट कई बार लगता है कि एक के बाद एक कई उलट-पलट से गुजर चुका यह देश, अपनी सारी तरक्की के बावजूद किसानों के मामले में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के वक्त में ही खड़ा है, जब उन्होंने अपनी लोकप्रिय ‘किसान’ शीर्षक कविता में उनसे जुड़े कई सवाल पूछे थे:

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आंच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अंधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

बड़े-बूढ़ों के अनुसार चूंकि किसान प्रवृत्ति से ही संतोषी होते हैं, इसलिए उनका यह ‘लोभ-लाभ’ बहुत बढ़ जाये तो भी इस सदाशयी आकांक्षा का अतिक्रमण करने पर आमादा नहीं होता कि साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय.

लेकिन आजादी के सात दशकों बाद भी इस आकांक्षा के पूरी होने का उनका इंतजार लंबा होता जा रहा है और थोड़े हेर-फेर के साथ हालत वही बनी हुई है: हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहां, खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहां, आता महाजन के यहां वह अन्न सारा अंत में, अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में!

साफ है कि अनसुनी सीमा पार नहीं कर जाती तो इन किसानों के हाथों में आंदोलन के झंडे नहीं, हल व कुदालें या ट्रैक्टरों की स्टीयरिंग होती. वे अपने खेतों में बुआई-जुताई व सिंचाई आदि में लगे होते. लेकिन करें भी क्या, हमारी किसान विरोधी व्यवस्था का प्रतिफल उन्हें इस रूप में भुगतना पड़ रहा है कि फसल काटते किसानों की तस्वीरें फांसी के फंदे पर लटकते किसानों की तस्वीरों में बदल गई हैं. देश के अन्नदाता के तौर पर वे बार-बार सड़कों पर उतर रहे हैं, फिर भी असंतुलनों से भरे विकास का संगीत सुनने में रमी सरकारों का ध्यान नहीं आकर्षित कर पा रहे.

स्थिति की एक विडंबना यह भी है कि संविधान के अनुसार कृषि राज्य का विषय है, लेकिन इस दिशा में जो भी महत्वपूर्ण फैसले होते हैं, केंद्र सरकार ही किया करती है. किसान आंदोलनों के लिए चर्चित ज्यादातर राज्यों के साथ केंद्र में इस वक्त भाजपा की ही सरकारें हैं और भाजपा की कोई पुरानी किसान हितकारी पहचान नहीं रही है.

किसान भी इसे जानते हैं. फिर भी भाजपा सरकारों का विरोधी रवैया उन्हें क्षुब्ध किये हुए है, क्योंकि उन्हें अभी भी वे दिन याद हैं, जब चुनाव जीतने के लिए किसानों के वोट जुटाने हेतु भाजपा न सिर्फ उनकी लप्पो-चप्पो बल्कि एक से बढ़कर एक चिकनी-चुपड़ी बातें किया करती थी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)

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