आज भी जब हम बच्चों को जंगल की कहानी सुनाते हैं तो उसमें पेड़, पौधे, घास, जानवर, शेर, शिकार, नदी, सब होता है पर जो नहीं होता वो है मनुष्य. जिसने सदियों से जंगल को उर्वर बनाए रखा, सहेजकर रखा और दोनों के बीच ऐसा तादात्म्य बनाया कि हिंदुस्तान की संस्कृति में इसे प्राथमिक स्थान मिला.
इस प्राचीन देश में जंगल सभ्यता की कहानी के विकास की मजबूत कड़ी रहे हैं. यहां की माइथोलॉजी में ‘वानप्रस्थ’ एक आश्रम है. जीवन के ख़ास पड़ाव में गृहस्थ व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम को अपना लेता है. रामचरित मानस का एक अध्याय ‘अरण्य कांड’ है, जब राम वनवास में हैं.
इसके उलट पर्यावरण की मौजूदा समझ, जो पश्चिम से आई है, वहां जंगल निर्जन भूगोल की कल्पना से ज़्यादा नहीं रहे. हालांकि अब पश्चिम में भी केवल भौतिक उपयोगिता से इतर इसके जैविक महत्व पर भी ध्यान गया है.
हिंदुस्तान में पर्यावरण को बचाने और इसको बढ़ावा देने के चिंतन में औपनिवेशिक असर अभी गए नहीं हैं और अब तो खैर हम जिस जीवन शैली के अभ्यस्त हो चुके हैं, उसमें चिंताओं का स्वरूप कमोबेश एक जैसा ही होना है. विशेष रूप से महानगरों में आज के दिन जो चिंतन होगा वो दुनिया के किसी भी देश की तरह ही होगा. यह चिंताओं के वैश्वीकरण का दौर भी है.
जब से जंगल को केंद्रीय नियंत्रण में लाने की कोशिशें इस देश में हुई हैं, तभी से पर्यावरण के विनाश की इबारत भी शुरू हुई है, ऐसा मानने वाले कुछ पर्यावरणविद इस देश में रहे हैं और हैं.
मूर्धन्य विचारक अनुपम मिश्र और डॉ. बीडी शर्मा इस परंपरा के अगुआ रहे हैं जिन्हें बहुत कम सुना गया है क्योंकि वह अपने दौर के अंतरराष्ट्रीय स्तर के पर्यावरणविदों से अलग कहीं सुदूर इलाकों में समुदायों के बीच पर्यावरण और लोगों के बीच के नैसर्गिक संबंधों को तलाशते रहे. उन परंपराओं को समझते रहे जहां पर्यावरण कोई विशेषज्ञता का विषय न होकर सामान्य जीवन शैली का हिस्सा रहे.
प्राकृतिक संसाधन की आर्थिक शब्दावली और नज़रिए ने पर्यावरण को एक कमोडिटी में बदलने का हिंसक काम किया. आज हम देख रहे हैं कि इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों मसलन खनिज, ज़मीन, जल, जंगल, कार्बन आदि को लेकर निवेश और लूट के लिए राज्य सत्ता पूंजीपतियों को किसी भी कीमत पर देना चाहती है.
इस देश में चूंकि पर्यावरण को लेकर नैसर्गिक दृष्टिकोण का घनघोर अभाव रहा इसलिए हम अपने नैसर्गिक जंगलों की कद्र भी नहीं कर सके.
इस बात की तस्दीक इस एक ऐतिहासिक तथ्य से होती है कि जब भारत में वन प्रबंधन (बलात व नियंत्रित) का शुरुआती दौर था. वन विभाग के शुरूआती वर्किंग प्लान्स में से एक सतपुड़ा का जंगलों में बसे बैतूल का भी बना.
इस वर्किंग प्लान में प्राकृतिक जंगलों को ‘शूद्र वन’ की श्रेणी में रखा गया क्योंकि ये वन केवल इमारती लकड़ी से भरपूर नहीं थे. इसमें हजारों तरह की दूसरी भी वनस्पतियां व जीव-जंतु थे. बाद में इन्हें ‘बिगड़े वन’ के तौर पर रिकार्ड्स में दर्ज किया गया. फिर इन्हीं वनों को ‘निम्न वन’ कहा जाने लगा.
और जब दुनिया में जैव विविधतता जैसे किसी अवधारणा का महत्व स्थापित हुआ तब जाकर इन वनों को हाल ही में ‘मिश्रित वनों’ की श्रेणी में शामिल किया गया. औपनिवेश काल से ही वन विभाग का मूल काम नैसर्गिक जंगलों को ख़त्म करके कृत्रिम वनों में तब्दील करने का रहा है.
इस एक उदहारण मात्र से हम समझ सकते हैं कि इस देश में पर्यावरण को लेकर जो विशेषज्ञता पैदा और विकसित हुई, वो अपने ही जंगलों के व्यापक स्वरूप से किस कदर अलग रही.
दूसरा उदाहरण जंगल और पूरी पारिस्थितिकी के साथ मानव समुदायों के एक-दूसरे पर निर्भर रिश्ते को लेकर, जो आयातित समझ है जिसने देश के पर्यावरण को अंतहीन क्षति पहुंचाई है.
हमारे दिमागों में यह भर दिया गया है कि जंगलों को सबसे ज़्यादा नुकसान इसमें रहने वाले आदिवासियों ने पहुंचाया है. इसमें हमारी औपनिवेशिक शिक्षा ने भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई. जंगलों में मनुष्य भी रहते हैं इस एक तथ्य को हमारी चेतना से मिटा दिया गया.
आज भी हम बच्चों को जब जंगल की कहानी सुनाते हैं तो उसमें सब होता है पेड़, पौधे, घास, जानवर, शेर, शिकार, नदी पर जो नहीं होता वो है मनुष्य. जिसने सदियों से जंगल को उर्वर बनाए रखा, सहेज कर रखा और दोनों के बीच ऐसा तादात्म्य बनाया कि हिंदुस्तान की संस्कृति में इसे प्राथमिक स्थान मिला.
आज आदिवासी इलाकों में चल रहे संघर्षों को इन्हीं दो नज़रियों के संघर्ष के तौर पर देखा जा सकता है. एक नज़रिया है जंगलों को वन बनाकर उनका व्यावसायिक इस्तेमाल या संसाधन कहकर उनका दोहन और दूसरा है उसे अपनी संस्कृति और साहचर्य का अभिन्न हिस्सा. और फिर पर्यावरण है ही क्या?
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)