राज्यसभा में चुनाव सुधार पर केंद्रित लंबी चर्चा के दौरान विपक्षी नेताओं ने भारत में मीडिया की अंदरूनी संरचना और उसकी भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए.
22 मार्च भारतीय मीडिया के लिए खास दिन बन गया. जो मीडिया संसद की कार्यवाही ‘कवर’ करने के लिये संसद की प्रेस दीर्घा से पूरे सदन पर नजर रखता है और समाज को उसके जन-प्रतिनिधियों व सरकार के विधायी कामों की जानकारी देता है, उस दिन स्वयं उसी पर सदन में गंभीर सवाल उठे.
भारतीय संसद के उच्चसदन-राज्यसभा में चुनाव सुधार पर केंद्रित लंबी चर्चा के दौरान देश के चार प्रमुख विपक्षी नेताओं ने अपने-अपने दलों की तरफ से भारत में मीडिया की अंदरूनी संरचना और उसके रोल पर गंभीर सवाल उठाए.
संसद में मीडिया को लेकर चर्चा पहले भी हुई है पर मुझे याद नहीं कि इससे पहले कभी संसद में मीडिया पर इतने गंभीर और ठोस सवाल उठे हों. मई, 2013 में जब सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय से सम्बद्ध संसद की स्थायी समिति की ‘पेड न्यूज’ विषयक रिपोर्ट पेश हुई थी, उस वक्त भी उस पर ऐसी गंभीर चर्चा नहीं हो सकी. इस बार चुनाव सुधार की चर्चा में मीडिया प्रसंग भी विस्तार से उठा.
चुनाव सुधार पर चर्चा के दौरान जनता दल-यू के शरद यादव, माकपा के सीताराम येचुरी, कांग्रेस के आनंद शर्मा, बसपा के सतीशचंद्र मिश्र और कई अन्य नेताओं ने मुख्यधारा मीडिया के मौजूदा परिदृश्य और उसके क्रमशः तेजी से बदलते चरित्र पर सवाल उठाये और कई दृष्टांत भी पेश किये.
‘क्रॉस मीडिया ओनरशिप’ से लेकर ‘पेड न्यूज’ और शासक-आभिजात्य के आगे उसके ‘रेंगने की मानसिकता’ पर गहरी चिंता जताई गई. विपक्षी नेताओं के मुताबिक मीडिया का बड़ा हिस्सा सत्ता-संरचना में शामिल होकर सत्ताधारी खेमे का हिस्सा सा बनता जा रहा है. बहुजन समाज पार्टी के नेता सतीश चंद्र मिश्र ने तो यहां तक कहा कि उनके दल को इस बार के यूपी चुनाव में अपने प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों के अलावा मीडिया से भी लड़ना पड़ा. इस चुनाव में मीडिया स्वयं एक ‘पार्टी’ बन गया था.
मुझे याद नहीं, संसद में भारतीय मीडिया पर कभी ऐसा बड़ा आरोप लगा हो! किसी लोकतांत्रिक देश के मीडिया के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक और भयानक टिप्पणी कुछ भी नहीं हो सकती कि उसे सत्ता या शक्ति के साथ जोड़ते हुए एक प्रमुख विपक्षी दल की तरफ से य़ह तक कहा जाय कि उसके दल को एक चुनौती मीडिया की तरफ से भी मिल रही है!
अपनी आलोचना छुपाता मीडिया!
पर संसद की इस अभूतपूर्व मीडिया-चर्चा का भारतीय मीडिया, तमाम बड़े अखबारों और न्यूज चैनलों ने एक तरह से ‘ब्लैक-आउट’ किया. अगर राज्यसभा की कार्यवाही का लाइव प्रसारण करने वाला राज्यसभा चैनल(RSTV) न होता तो देश की जनता को मालूम तक नहीं पड़ता कि संसद में भारत के मुख्यधारा मीडिया पर कितने गंभीर सवाल उठाये गये!
यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आई कि संसद के उच्च सदन की इतनी महत्वपूर्ण चर्चा, खासकर मीडिया की आलोचना वाले प्रसंग को देश के प्रमुख अखबारों या चैनलों ने छापने या प्रसारित होने लायक क्यों नहीं समझा?
क्या हमारे मीडिया को अपनी आलोचना से डर लगने लगा है? क्या इस आरोप को वह पचा नहीं पा रहा है कि उसे आज सत्ता-संरचना का हिस्सा बताया जाने लगा है? इन सवालों पर चर्चा करने के बजाय इन्हें छुपाते या दबाते हुए क्या वह सत्ता-संरचना की तरह असहिष्णुता दिखा रहा है?
ऐसे अनेक सवाल इस प्रसंग में उठते हैं. सिर्फ इस प्रसंग की रिपोर्टिंग से ही परहेज नहीं किया गया. अचरज में डालने वाली बात है कि किसी भी हिंदी-अंगरेजी न्यूज चैनल (राज्यसभा टीवी को छोड़कर) ने इस मुद्दे को अपनी प्राइमटाइम बहसों में भी नहीं शुमार किया! ‘द वायर’ शरद यादव के हवाले से इस ससंदीय विमर्श को सामने लाया.
जहां तक मुझे याद आ रहा है, हाल के वर्षों में इससे पहले तीन बड़े मौके आये, जब भारतीय मीडिया पर गंभीर आलोचनात्मक विमर्श सार्वजनिक पटल पर सामने आया.
पहला मौका था, 2006 में सीएसडीएस के सहयोग से हुआ दिल्ली स्थित बड़े समाचार समूहों-टीवी चैनलों में कार्यरत पत्रकारों-संपादकों की सामाजिक-पृष्ठभूमि का प्रो. योगेद्र यादव, अनिल चमडिया और जितेंद्र कुमार द्वारा किया सर्वेक्षण और दूसरा मौका रहा 2009 में प्रेस कौंसिल की ‘पेड न्यूज’ पर विस्तृत रिपोर्ट और तीसरा मौका रहा, मई, 2013 में पेश सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय से सम्बद्ध संसद की स्थायी समिति की ‘पेड न्यूज’ विषयक रिपोर्ट.
इन तीनों मौकों पर कम से कम कुछ अखबारों और चैनलों में चर्चा हुई. मीडिया-सर्वेक्षण पर सीएनबीसी और सीएनएन-आईबीएन ने कुछ वरिष्ठ संपादकों और मीडिया समूह के संचालकों को स्टूडियो से जोड़कर अच्छी बहस कराई थी. अनेक अखबारों और वेबसाइटों में भी चर्चा हुई. कई बड़े संपादकों ने मीडिया में नियुक्ति प्रक्रिया के बचाव में लेख लिखे. कुछ ने उस बचाव की आलोचना की.
2013 की संसदीय रिपोर्ट पर भी राज्यसभा टीवी सहित कुछेक चैनलों ने चर्चा की. अंगरेजी के कुछ अखबारों ने खबर भी छापी. पर इस बार इतना भी नहीं दिखा. क्या यह देश के बदलते राजनीतिक-परिदृश्य का मीडिया पर असर है या मीडिया स्वयं भी बदल रहा है?
आलोचना चुनावी हार से आहत दलों तक सीमित नहीं!
इस तरह का विमर्श चुनावी हार से आहत कुछ दलों तक सीमित रहता तो बात समझी जा सकती थी. लेकिन आज के दौर में सड़क, ट्रेन, बस, ट्राम, मेट्रो या जहाज में सफर करते लोग भी मीडिया रिपोर्टिंग और हर रोज एक न एक जजमेंट जारी करते बड़बोले टीवी एंकरों के रोल पर सवाल उठाने लगे हैं.
जो लोग सत्ताधारी दल के समर्थक हैं, उन्हें भी कई बार अचरज होता है कि टीवी एंकर हर शाम किसी दल-विशेष का झंडा लेकर क्यों हाजिर होते हैं? जिस दिन राज्यसभा में मीडिया पर सवाल उठ रहे थे, उसी दिन दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशल सेंटर मे आयोजित एक बड़े सेमिनार में भी मीडिया पर कुछ ऐसे ही सवाल उठे. कई मुद्दों पर एक वक्ता ने मुख्यधारा मीडिया की जमकर आलोचना की.
सेमिनार में वक्ता के रूप में शामिल एक बड़े मीडिया समूह के वरिष्ठ संपादक बेचैन होकर उक्त वक्ता की टिप्पणी पर बिफर पड़े. वह अपना संबोधन पहले ही खत्म कर चुके थे. पर जवाब देने के वास्ते दोबारा बोलने लगे.
सेमिनार में श्रोताओं ने, जिसमें ज्यादातर दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कालेज के छात्र-शिक्षक और अन्य आमंत्रित अतिथि थे, उनकी बातों से असहमति जताते हुए पूर्व वक्ता की मीडिया-आलोचना को जायज माना.‘टी-ब्रेक’ के दौरान प्रबुद्ध श्रोताओं के समूह खुलेआम मीडिया, खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका पर सवाल उठाते नजर आये.
मुख्यधारा मीडिया के बड़े हिस्से, खासकर न्यूज चैनलों की मौजूदा स्थिति और उनकी भूमिका पर लोगों के सवाल आज गहरी नाराजगी का रूप लेते जा रहे हैं. इस तरह के सेमिनारों, गोष्ठियों और यहां तक कि चाय घरों, नुक्कड़ और सड़क की चर्चाओं में भी चैनलों की जन-आलोचना का स्वर सुना जा सकता है. पर अचरज की बात कि न्यूज रूम्स और प्रबंधकों-मालिकों तक इसकी अनुगूंज क्यों नहीं पहुंच रही है!