हबीब तनवीर की जितनी थियेटर पर पकड़ थी, उतनी ही मज़बूत पकड़ समाज, सत्ता और राजनीति पर थी. वे रंगमंच को एक पॉलिटिकल टूल मानते थे. उनका कहना था कि समाज और सत्ता से कटकर किसी क्षेत्र को नहीं देखा जा सकता.
21वीं सदी में कला माध्यमों की जगह इंटरनेट, उच्च तकनीक वाले गैजेट्स और सूचना क्रांति के तमाम दूसरे साधनों ने ले ली है, लेकिन 20वीं सदी सिनेमा और थियेटर की सदी थी. इसी सदी में भारतीय थियेटर भी विकसित हुआ और अपनी बुलंदी पर पहुंचा.
इसी दौर में भारतीय थियेटर जगत को उसको उसका सबसे नायाब किरदार हबीब तनवीर मिला. हबीब तनवीर एक ऐसे रंगकर्मी का नाम है, जो बुद्धिजीवी वर्ग में जितना स्वीकार्य है उतना ही आम लोगों में भी लोकप्रिय है. एक ऐसा रंगकर्मी जो भारत में नाट्य कला माध्यम की पहचान बन गया.
उनकी लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह वो सीख थी, जो उन्हें लंदन में तालीम हासिल करते वक्त मिली थी कि मंच पर कहानी दर्शकों को आसानी से समझ में आनी चाहिए.
1 सितंबर 1923 को रायपुर में जन्मे हबीब साहब का पूरा नाम हबीब अहमद खान था. पिता पेशावर से थे और मां रायपुर की. बचपन में वो पढ़ने में काफी होशियार थे इसीलिए उनके मन में ख्याल आया था कि वो भारतीय सिविल सेवा में जाएंगे. वो आर्ट्स पढ़ना चाहते थे लेकिन पढ़ने में अच्छे थे तो उनके शिक्षकों का ख्याल था कि उन्हें साइंस पढ़ना चाहिए.
छत्तीसगढ़ में स्कूली शिक्षा लेने के बाद उन्होंने नागपुर के मॉरिस कॉलेज में दाखिला ले लिया और फिर उर्दू में एमए करने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे लेकिन वो फर्स्ट ईयर से आगे नहीं जा सके. धीरे-धीरे सिविल सेवा में जाने का भी उनका इरादा खत्म हो गया. अब वो एक शिक्षक बनने के बारे में सोचने लगे.
वैसे ये ख्याल भी ज्यादा दिनों तक नहीं रहा क्योंकि फिर वो फिल्मों में जाने के बारे में सोचने लगे. इन्हीं दिनों में जब उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कीं, तो अपने नाम में ‘तनवीर’ तखल्लुस जोड़ लिया. इस तरह से वह हबीब अहमद खान से हबीब तनवीर बन गए.
एक पत्रकार के तौर पर ऑल इंडिया रेडियो से अपने करिअर की शुरुआत करने वाले हबीब साहब ने कई फिल्मों की पटकथा लिखी और करीब नौ फिल्मों में अभिनय भी किया. उनकी आखिरी फिल्म थी सुभाष घई की ब्लैक एंड व्हाइट.
हबीब तनवीर अपने बड़े भाई को नाटक में काम करते हुए देख कर बड़े हुए थे. उनके बड़े भाई अक्सर नाटकों में औरतों का किरदार निभाते थे. ऐसे ही एक नाटक मोहब्बत के फूल में उनके बड़े भाई ने प्रेमिका का किरदार निभाया था, जिसका प्रेमी घायल हो जाता है और वो उनसे मिलने जाती है.
इस नाटक को देखते हुए तनवीर रोने लगे थे. तनवीर ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके पड़ोस में रहने वाले नबी दर्जी अक्सर इस नाटक का जिक्र कर उन्हें छेड़ा करते थे कि कैसे वे नाटक के दौरान रोने लगे थे. यहां तक कि जब वो बड़े हो गए और बॉम्बे चले गए, तब भी जब कभी लौटना होता तो नबी दर्जी उन्हें बुलाते और चाय पिलाते फिर उस दिन की बाद याद दिलाकर चिढ़ाते, ‘याद है न कैसे उस दिन तुम नाटक देखते हुए रोने लगे थे.’
अभिनय की दुनिया में पहला कदम तो उन्होंने 11-12 साल की उम्र में शेक्सपीयर के लिखे नाटक किंग जॉन प्ले के जरिये रखा था, लेकिन एक रंगकर्मी के रूप में उनकी यात्रा 1948 में मुंबई इप्टा से सक्रिय जुड़ाव के साथ शुरू हुई.
उस वक्त का एक दिलचस्प वाकया है जो हबीब तनवीर बाद में सुनाया करते थे. इप्टा के एक नाटक के रिहर्सल के दौरान हबीब तनवीर एक डायलॉग को सही से बोल नहीं पा रहे थे. तब कई बार के प्रयासों के बाद बलराज साहनी ने उन्हें एक जोरदार तमाचा जड़ दिया था.
इसके बाद एक बार में ही हबीब तनवीर ने वो डायलॉग सही से बोल दिया. साहनी ने इसके बाद कहा कि थियेटर में एक जरूरी चीज होती है जिसे ‘मसल मेमोरी’ कहते है. ये जो थप्पड़ तुम्हें पड़ा है, यही ‘मसल मेमोरी’ है जिससे तुम्हें डायलॉग एक बार में याद हो गया.
शायद इसीलिए वो बलराज साहनी को अपना गुरु मानते थे. जब इप्टा के सभी सदस्य जेल में थे तो इप्टा को संभालने की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर थी. उसी वक्त वहीं रहते हुए प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े. उस वक्त के इन दोनों ही महत्वपूर्ण आंदोलनों का असर उनकी ज़िंदगी पर ताउम्र रहा और वे हमेशा राजनीतिक और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ अपने कला से जुड़े कलाकार रहे.
1954 में दिल्ली आकर वे कुदसिया जैदी के हिंदुस्तानी थियेटर से जुड़े थे और बच्चों के लिए नाटक करना शुरू किया था. यही उनकी मुलाकात अभिनेत्री और निर्देशिका मोनिका मिश्रा से हुई जिनसे बाद में उन्होंने शादी की.
1955 में हबीब तनवीर यूरोप चले गए और ब्रिटेन के रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामाटिक आर्ट में दो सालों तक थियेटर सीखा. इन दो सालों के बाद वो एक साल तक यूरोप में भटकते रहे, खूब नाटक देखे, पैसे कमाने के लिए अंगूर बेचे, सर्कस और रेडियो में काम किया, नाइटक्लब में गाया भी.
फिर एक दिन वो बर्तोल्त ब्रेख्त से मिलने के लिए ट्रेन से बर्लिन पहुंच गए लेकिन उनके पहुंचने से कुछ ही हफ्ते पहले उनकी मौत हो गई थी. वो बर्लिन में आठ महीने रहे और ब्रेख्त के ढेर सारे नाटक देखे. उनके कलाकारों से मुलाकात की और नाटकों को लेकर खूब सीखा.
यूरोप प्रवास के दौरान ही पेरिस में 1955 में उनकी मुलाकात फ्रेंच अभिनेत्री जिल मैकडोनाल्ड से हुई थी. उस समय जिल 17 साल की थी और हबीब 32 साल के. दोनों के बीच प्रेम हुआ और बाद में दोनों की एक बेटी ऐना भी हुई. बहुत दिनों तक ये बात किसी को पता नहीं थी. यहां तक कि तनवीर की दूसरी बेटी नगीन तनवीर को भी 15 साल की उम्र में पता चला कि उनकी कोई बड़ी बहन भी है.
हबीब तनवीर की मृत्यु के बाद ये बात मीडिया में आई कि उनका इंग्लैंड में भी एक परिवार है और नगीन के अलावा एक और बेटी भी है. हार्पर कॉलिंस से 2016 में एक किताब आई है अ स्टोरी फॉर मुक्ति, मुक्ति तनवीर के नाती का नाम है जो कि ऐना का बेटा है.
यह किताब हबीब तनवीर के उन खतों का संकलन है जो कि उन्होंने भारत लौटने के बाद जिल मैकडोनाल्ड को लिखे थे.
जिल इस किताब में लिखती हैं कि जब हबीब को 1964 में पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं तो उसने अपने कदम वापस खींच लिए. मेरी मां उस वक्त हबीब के इस तरह खामोशी से चले जाने से बहुत नाराज हुई थीं. उन्हें लगा था कि मुझे छोड़ दिया गया है.
इसके नौ साल बाद 1973 में हबीब की बेटी ऐना से मुलाकात हुई. उसके बाद ऐना लगातार उनकी मृत्यु तक उनके संपर्क में रहीं.
1959 में उन्होंने भारत में अपनी पत्नी मोनिका मिश्रा और छह छत्तीसगढ़ी लोक कलाकारों को साथ लेकर नया थियेटर की स्थापना की. वह एक प्रयोगधर्मी रंगकर्मी थे. उन्होंने लोकनृत्य को थियेटर से जोड़कर थियेटर को नई परिभाषा और आयाम दिया.
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय थियेटर का ऐसा सामंजस्य बैठाया कि लोक से लेकर विश्व थियेटर एक क्रम में नज़र आने लगते हैं. यहां भाषा और राष्ट्रीयता का भेद ख़त्म कर वो एक विश्व मानव की परिकल्पना को साकार करते दिखते हैं.
इन्हीं संदर्भों में उन्हें कुछ विद्वानों ने ब्रेख्त का उत्तराधिकारी माना है. हबीब अपने बारे में खुद कहते हैं कि उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति की खोज यूरोप के माध्यम से की है. उनका झुकाव दुखांत नाटकों की ओर था. वे मानते थे कि अत्यधिक खुशी के क्षणों में भी दुख का तत्व विद्यमान रहता है.
हबीब तनवीर अपने बहुचर्चित और बहुप्रशंसित नाटकों ‘चरणदास चोर’ और ‘आगरा बाज़ार’ के लिए हमेशा याद किए जाते हैं. चरणदास चोर 1982 में एडिनबरा इंटरनेशनल ड्रामा फेस्टिवल में सम्मानित होने वाला पहला भारतीय नाटक था.
उनकी अन्य प्रमुख नाट्य प्रस्तुतियां पोंगा पंडित, बहादुर कलारिन, शतरंज के मोहरे, मिट्टी की गाड़ी, गांव मेरी ससुराल नांव भोर दमाद, जिन लाहौर नहीं वेख्या, उत्तर रामचरित, जहरीली हवा ने भी दर्शकों के मन पर गहरी छाप छोड़ी है.
पोंगा पंडित को लेकर हिंदूवादी संगठनों ने काफी विरोध किया था क्योंकि इसमें हिंदू धर्म में होने वाले भेदभाव और असहिष्णुता पर तल्ख टिप्पणी की गई थी. मध्य प्रदेश के विदिशा में सितंबर 2003 में उनके इस नाटक के मंचन के समय जब हमला हुआ, तब उन्होंने कड़ी सुरक्षा में मुट्ठी भर लोगों के बीच यह नाटक किया.
उन्होंने उस वक्त वहां मौजूद छात्रों से पूछा था कि क्या वो नाटक देखना चाहते हैं? भीड़ में से आवाज़ आई थी कि हम यह नाटक नहीं देखना चाहते. तब उन्होंने कहा कि मैं छात्रों से पूछता हूं, अगर वो चाहते हैं तो हम यह नाटक कर सकते हैं. मैं अपनी ओर से आश्वस्त करता हूं. पुलिस की बात मैं नहीं जानता. मैं दर्शकों की प्रतिक्रिया चाहता हूं, वो चाहते हैं तो फिर ठीक है, पुलिस जानती है कि उसे क्या करना है.
इसके बाद लगभग हॉल खाली हो गया. आठ-दस लोग मुश्किल से बचे रह गए थे. फिर उन्होंने कहा कि मैं आज पुलिस वालों को यह नाटक दिखाना चाहता हूं. मैंने मुख्यमंत्री से बात कर ली है और हम यहां नाटक दिखाने आए हैं, जो दिखाकर ही जाएंगे. आप कानून संभालिए, हम नाटक खेलते हैं.
फिर उन्होंने लगभग खाली हॉल में यह नाटक खेला था. हबीब के साथी कलाकार उदयराम उनके बारे में बताते हैं कि वो थियेटर के बिना नहीं जी सकते थे. अगर मरने के समय यमराज भी आए तो वो कहते कि एक मिनट रुक जाओ जरा यह एक सीन कर लेने दो फिर मैं आता हूं. इस तरह के इंसान थे वो.
भारत सरकार ने हबीब को अपने दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण और फ्रांस सरकार ने अपने प्रतिष्ठित सम्मान ‘ऑफिसर ऑफ द ऑर्डर ऑफ आर्ट्स एंड लेटर्स’ से सम्मानित किया था. इसके अलावा कला क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें कालिदास राष्ट्रीय सम्मान, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, नेशनल रिसर्च प्रोफेसरशिप से नवाजा गया.
हबीब तनवीर की जितनी पकड़ नाटक थियेटर पर थी उतनी ही मजबूत पकड़ समाज, सत्ता और राजनीति पर थी. वे रंगमंच को एक पॉलिटिकल टूल भी मानते थे. वे कहा करते थे कि समाज और सत्ता से काटकर किसी भी क्षेत्र को न देखा जा सकता है, न ही समझा जा सकता है तब नाटक और रंगमंच कैसे अपवाद हो सकते हैं.
जिस साल वे ‘नया थियेटर’ की 50वीं वर्षगांठ मना रहे थे, उसी साल 8 जून 2009 को वे ज़िंदगी के रंगमंच को अलविदा कह गए. साल 2008 में 1 सितंबर के दिन नाट्य मंडली ‘सहमत’ ने दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशनल क्लब में तनवीर का 85वां जन्मदिन मनाया था. वहां उन्होंने मौजूदा राजनीतिक-सांस्कृतिक हालात पर एक प्रभावशाली व्याख्यान दिया था. कौन जानता था कि वो हबीब तनवीर का अंतिम संबोधन होने वाला है.
आखिरी वक्त में वे अपनी आत्मकथा लिख रहे थे जो तीन भागों में आने वाली थी लेकिन अपनी मृत्यु तक वे सिर्फ एक ही भाग लिख पाए थे जिसमें उनकी ज़िंदगी की 1954 तक की कहानी दर्ज है. यह भाग हबीब तनवीर: मेमॉयर्स नाम से पेंगुइन प्रकाशन ने छापा तो है, लेकिन उनकी ज़िंदगी के वो अनदेखे हिस्से हमेशा के लिए अधूरे ही रह गए.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)