पर्यावरण पर राजनीति, धर्म और उद्योग की मिलीभगत का ही नतीजा है कि आज भारत के बड़े शहर गंदगी में तो दुनिया में नाम कमा ही रहे हैं, शिमला जैसे पर्यटन स्थलों की छवि और पहचान भी बदल रहे हैं.
शिमला बोले तो न सिर्फ हिमाचल प्रदेश की बल्कि ब्रिटिश राज के दौरान 1864 में घोषित देश की ग्रीष्मकालीन राजधानी. सुरम्य प्राकृतिक व नयनाभिराम हिमाच्छादित दृश्यों की स्वामिनी और अपने चीड़ व देवदार के जंगलों से हर किसी का दिल चुराने वाली पहाड़ों की रानी.
इतना ही नहीं, 1814-16 के इतिहास प्रसिद्ध गोरखा युद्ध के बाद 1819 में बनायी गई सैनिक टुकड़ियों की सुरक्षित आरामगाह, जिसकी जलवायु का सुरूर देश भर में मुहावरे की तरह जाना जाता है. तभी तो देश के उत्तर के मैदानी क्षेत्रों में भीषण तपिश के बीच अचानक शीतल, मंद आसैर सुगंध से भरा हवा का कोई झोंका आ जाये तो लोग कहने लगते हैं: जैसे शिमला को छूकर आ रहा है.
अलबत्ता, शिमला की हवा ही नहीं, मिर्च भी दूर-दूर तक प्रसिद्ध है और जरा पीछे मुड़कर देखना चाहें तो 1960 में उस समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री साधना और अभिनेता जय मुखर्जी की पहली फिल्म ‘लव इन शिमला’ प्रदर्शित हुई तो उसके सवाल-जवाब के सिलसिले वाले गीत की एक बेहद कर्णप्रिय पंक्ति थी-चोटी पे वहां इक अब्र-ए-जवां देखो तो जरा क्यों झुकने लगा.
इस ‘पहाडों की रानी’ के मोहपाश में जकड़े हम उत्तर भारतीय अभी तक उसके बारे में अपनी परंपरा से यही सब जानते, समझते और अपनी आने वाली संततियों को बताते रहे हैं, लेकिन अब वह जिस तरह के भीषण जलसंकट के हवाले है, जिसके चलते पर्यटकों से वहां न जाने की अपीलें किए जाने की नौबत है और पांच जून से प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय ग्रीष्मोत्सव स्थगित कर दिया गया है, उससे लगता है कि जैसे अन्य अनेक गांवों व नगरों का, वैसे ही उसका भी, पहचान के अपने पुरानेे कारकों से अलग हुए बिना काम नहीं चलने वाला और हमारी आने वाली पीढ़ियां उसे ‘पहाड़ों की रानी’ के बजाय किसी और ही रूप (पढ़िए कुरूप) में जानने व पहचानने को अभिशप्त होंगी.
क्या कीजिएगा, हमारा सत्तातंत्र देश में पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष मानने वाली भूमंडलीकरण नाम की जिस व्यवस्था को पिछले ढाई दशकों से पाल पोस रहा है, वह हर जर्रे को उसकी पुरानी पहचान से अलग करने पर आमादा है.
उसके रहते अगर शिमला में मार्च के अंतिम सप्ताह में ही लू चलने लगेगी और जून आते-आते प्यासे लोग पानी के लिए तड़पने लगेगे तो स्वाभाविक ही लोगों के मन में बनी उसकी पुरानी मनोहारी छवि टूटेगी ही और जानकार उसके कारण गिनाते हुए भारी जनसंख्या वृद्धि और ग्लोबल वार्मिंग जैसे कारकों का जिक्र करेंगे ही.
वरना शिमला अभी भी कोई इतना बड़ा नगर नहीं हो गया है कि वहां अचानक पानी को लेकर ऐसा हाहाकार मचे और लगे कि चीजें एकदम से हाथ से निकल गयी हैं. अभी भी वह मात्र 35.34 वर्ग किलोमीटर में फैला छोटा-सा नगर है और उसके नगर निगम की वेबसाइट बताती है कि उसकी आबादी अभी भी महज 1,74,789 ही है.
वहां जो भी पर्यटन होता है, खासतौर से गर्मियों में ही होता है और तब उसके ‘निवासियों’ की संख्या 90 हजार से एक लाख तक और बढ़ जाती है. हां, पानी की जरूरत भी बढ़कर रोजाना साढ़े चार करोड़ लीटर हो जाती है.
किसी से भी नहीं छिपा, यहां तक कि जलसंकट से भारी हाय-तौबा मचने के बाद बड़ी सक्रियता का दिखावा करने वाले नगर के निजाम से भी नहीं, कि उसकी मूल समस्या यह है कि इस नगर से होकर कोई नदी नहीं बहती और चूंकि पांरपरिक जलस्रोतों-पहाड़ी नालों, झरनों, अभयारण्यों, कुंओं और बावड़ियों-की कद्र नहीं रह गई, इसलिए वे दगा देने पर उतारू हैं.
तिस पर उपलब्ध पानी के व्यावसायिक उपयोग की होड़ ने अलग से समस्या खड़ी कर रखी है और जलापूर्ति है कि संकट की इस घड़ी में ऐसे अदालती आदेशों की मोहताज हो गई है कि किसी भी टैंकर को वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों और वीआईपी क्षेत्रों के निवासियों-न्यायाधीशों, मंत्रियों, नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों-को पानी की आपूर्ति की अनुमति नहीं है.
नगर के सभी कार वॉशिंग सेंटर बंद करने पड़े हैं, हर तरह के निर्माण कार्यों पर पाबंदी लगा दी गई है और गोल्फ कोर्स में घास की सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पानी लोगों में बांटा जा रहा है.
लेकिन सवाल है कि एकमात्र फौरी राहत के अलावा इसका हासिल क्या है? जाहिर है कि कुछ भी नहीं. तो किसे नहीं मालूम कि ऐसी फौरी राहतों से शहर हों या कि सभ्यताएं, न वे ‘बनते’ हैं और न ‘बचते’ हैं. शायद शिमला के लोग भी इसे समझते हैं.
इसीलिए जलसंकट से फौरी राहत के सरकारी या स्वैच्छिक कदमों को लेकर उनके असंतोष पर कोई फर्क नहीं पड़ा है और वे सड़कों पर उतरकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. इन प्रदर्शनकारियों का कम से कम एक सवाल बहुत वाजिब है. यह कि सरकार या कि सवैच्छिक संगठनों ने समय रहते इस संकट की फिक्र क्यों नहीं की?
उन्हें पहले याद क्यों नहीं आया? उनकी नींद तब क्यों टूटी, जब पानी सिर से ऊपर जा पहुंचा और चौतरफा हाय-हाय मच गई? (दरअसल, यह मुहावरा है. यों, जब से पानी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बाजार के धंधे का शिकार हुआ है, सरकारें और निकाय उसे कंपनियों व बाजार की सुविधा के हिसाब से ही, जिसके भी ऊपर जरूरी होता है, चढ़ाती और उतारती हैं.)
इस वाजिब सवाल का जवाब मिल जाता तो शिमला के ही नहीं देश के कई और नगरों से जुड़े कई और सवालों के जवाब मिल जाते. मसलन दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में हमारे देश के कई शहरों का नाम क्यों है? आॅड-ईवन जैसे कितने ही नाटकों के बावजूद देश की राजधानी दिल्ली की हवा सांस लेने लायक भी क्यों नहीं बची है?
जिस मुंबई को शंघाई बनाने जैसी बड़ी-बड़ी बातें बार-बार की जाती रहती हैं, वह पहली ही बारिश में अपनी असल औकात में क्यों आ जाती है?
तमाम वाही-तबाही के बावजूद पर्यटन को उद्योग बनाकर उसके नाम पर धरती तो धरती पहाड़ों तक की शांति भंग करने का सिलसिला रुकने के बजाय तेज क्यों होता जा रहा है? वहां लोभ और लाभ की फैलाई गंदगियां अनेकानेक स्वच्छ भारत अभियानों को मुंह क्यों चिढ़ाती रहती हैं?
लेकिन जवाब मिलेंगे भला कैसे? अभी तो आलम यह है कि विकास के नाम पर हमारे देश ही नहीं, दुनिया भर के हवस के मारे लोगों को प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की जैसी रफ्तार दरकार है, उसके लिए तो वैज्ञानिक बताते हैं कि एक नहीं चार पृथ्वी भी कम पड़ेंगी.
तभी तो उनके द्वारा किये जा रहे ऐसे दोहन धरती के खजाने की लूट में बदल गये हैं. हम हवा-पानी, नदी-पहाड़, जंगल-जानवर हर किसी के अनवरत शिकार के बाद साल में एक दिन पर्यावरण संरक्षण का दिवस मनाकर अपने प्रायश्चित और कर्तव्य की इतिश्री मान लेना चाहते हैं.
अलबत्ता, इस बुरे हाल में भी ऐसे अनाम लोगों की कोई कमी नहीं है, जो अपनी धरती या शहरों व गांवों के प्रति अपने दायित्व गंभीरतापूर्वक निभा रहे हैं. बिहार में अनिल राम नाम के एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अब तक सड़क किनारे अकेले 15 सौ पेड़ लगा चुके हैं, ताकि राहगीरों को छाया मिल सके.
शिमला में भी यह नहीं कहा जा सकता कि जलसंकट के पांरपरिक और बेहद कम खर्चे वाले समाधान सुझाने वाली देशज ज्ञान से सम्पन्न प्रतिभायें नहीं रह गई हैं लेकिन विडंबना यह है कि सरकारों और उनके तंत्रों की ऐसी प्रतिभाओं और उनके योजना प्रस्तावों में दिलचस्पी ही नहीं रह गई है.
जिन योजनाओं का बजट भारी भरकम न हो और जिनमें हर तरह से ‘जेबें भरने’ की गुंजाइश न हो, उनमें उन्हें मजा ही नहीं आता. आने लगे तो वे ऐसे जल संकटों को कमाई के अवसरों में कैसे तब्दील कर पायें?
गौरतलब है कि इस तब्दीली के ही चक्कर में वे नागरिकों से ज्यादा ऐसे लोगों के शुभचिंतक हो गये हैं, जो कहीं संरक्षित वन क्षेत्र में अध्यात्म का आश्रम बनाते हैं, कहीं विश्वशांति का संगीत बजाने के लिए नदी और खेतों को उजाड देते हैं.
पर्यावरण पर राजनीति, धर्म और उद्योग की मिलीभगत का ही नतीजा है कि आज भारत के बड़े शहर गंदगी में तो दुनिया में नाम कमा ही रहे हैं, शिमला जैसे पर्यटन स्थलों की छवि और पहचान भी बदल रहे हैं.
शिमला तो इस जलसंकट से जैसे-तैसे पार पा लेगा, लेकिन ये हालात नहीं बदले तो आगे क्या हमारे गांव और क्या शहर, सबके सामने कई दुर्निवार संकट खड़े हो जायेंगे. सवाल है कि क्या हम और हमारा तंत्र उस दिन से पहले सचेत हो सकेंगे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)