कार्यक्रम में कहा गया कि शैक्षिक संस्थानों में संस्कृति के नाम पर जो हो रहा है वह हमारी असल संस्कृति पर हमला है- चाहे वो कल्चरल इवनिंग जैसे कार्यक्रम हों या विरोध की संस्कृति से जुड़े आयोजन. इससे नौजवानों का दिमाग और शैक्षणिक संस्थानों का माहौल बुरी तरह प्रभावित हो रहा है.
आरएसएस की इकाई प्रज्ञा प्रवाह द्वारा आयोजित ज्ञान संगम नाम की इस कार्यशाला के दूसरे दिन यानी बीते रविवार को संघ प्रमुख मोहन भागवत बतौर मुख्य वक्ता शामिल हुए. शिक्षा के क्षेत्र में भारतीयता लाने पर ज़ोर देते हुए भागवत ने कहा, ‘यह कोई विकल्प नहीं है बल्कि (शिक्षा के क्षेत्र में) भारतीय परिप्रेक्ष्य को विकसित करने की दिशा में किया जा रहा प्रयास है.’
भारतीय शिक्षा व्यवस्था में ‘भारतीयता’ लाने के लिए हुए इस कार्यक्रम में देशभर से तकरीबन 721 शिक्षाविद और विशेषज्ञ आए थे. इनमें 51 केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपति भी शामिल रहे.
न्यूज़ 18 डॉट कॉम की रिपोर्ट के अनुसार, आयोजकों ने बताया कि इस कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य भारतीय दृष्टिकोण के लिहाज़ से एक ऐसा अकादमिक तंत्र तैयार करना है जो सरकार के दायरे में रहकर काम करे.
इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के अनुसार तमाम लोग कार्यशाला नई नौकरी की उम्मीद में अपना बायोडाटा लेकर पहुंचे थे. ऐसा कहा जा रहा है कि कई संस्थानों में कई प्रमुख पद ख़ाली हैं और कई जगह विरोधी विचारधारा के लोग उन पदों पर बैठे हैं. इस ख़बर के अनुसार भागवत ने इन लोगों से कहा कि सरकार से किसी तरह की आशा रखना संघ के मूल चरित्र के ख़िलाफ़ है.
इस कार्यक्रम का उद्देश्य भारत की शिक्षा व्यवस्था पर बात करना था पर इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार जब उन्होंने कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले लोगों और कुछ संघ नेताओं से बात की तो उन्होंने बताया कि कार्यक्रम में दक्षिणपंथी शिक्षाविदों द्वारा किए गए शोध के अभाव और नौकरियों में आगे जाने के बारे में बात हुई.
भागवत ने आग्रह किया कि शिक्षाविद विरोधी विचारधारा के लोगों को तर्क और शोध से जीतें. कार्यक्रम में संघ विचारक राकेश सिन्हा की किताब ‘स्वराज इन आइडियाज़’ भी बांटी गई.
कार्यक्रम में प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार ने कहा कि शैक्षणिक संस्थानों में ‘विरोध की संस्कृति’ हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है. डीएनए की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा, ‘शैक्षिक संस्थानों में संस्कृति के नाम पर जो हो रहा है वह हमारी असल संस्कृति पर हमला है- चाहे वो ‘कल्चरल इवनिंग’ जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम हों या ‘कल्चर ऑफ प्रोटेस्ट’ (विरोध की संस्कृति). इससे नौजवानों का दिमाग बुरी तरह प्रभावित होता है और शैक्षणिक संस्थानों का माहौल भी.’
नंदकुमार ने शिक्षा को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त करने पर ज़ोर देते हुए कहा, ‘यह हमारे शिक्षाविदों का कर्तव्य है कि वे शिक्षा के लिए विषयवस्तु का निर्धारण करें. अगर आप हर विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला विज्ञान का पाठ्यक्रम देखें तो यह पूरी तरह से पश्चिम के बारे में है. हम भारतीयों द्वारा विज्ञान में किए गए योगदान के बारे में विद्यार्थियों को पढ़ा ही नहीं रहे हैं.’
वे आगे बोले, ‘कार्यक्रम में शामिल हुए शिक्षकों ने संकल्प लिया है कि वे अपने स्तर पर शिक्षा व्यवस्था में ‘भारतीय’ परिप्रेक्ष्य को विकसित करने का प्रयास करेंगे. यह पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान का समय है. देश के सभी बौद्धिकों को देश की शिक्षा व्यवस्था के राष्ट्रीयकरण के लिए साथ आना चाहिए.’
जे. नंदकुमार ने बताया कि यह कार्यक्रम पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में आयोजित किया जाना था पर विद्यार्थियों के विरोध करने के डर से इसे रोहिणी के एक निजी कॉलेज में किया गया.
इस कार्यक्रम के संयोजक की ज़िम्मेदारी दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर प्रकाश सिंह की थी. उन्होंने कहा, ‘हमारे शैक्षिक विषयों का झुकाव पाश्चात्य शिक्षा की तरफ होता जा रहा है. इसमें बदलाव लाने के लिए हमें साहित्य रचना होगा, लोगों और समाज की सोच में बदलाव लाना होगा. इसकी शुरुआत के लिए हमें पहले शिक्षाविदों तक पहुंचकर उनकी सोच में बदलाव लाना होगा, उसके बाद विद्यार्थियों तक.’
यह संघ का निजी कार्यक्रम था, जहां सिर्फ आमंत्रण से ही लोगों को बुलाया गया था. कार्यक्रम में हिस्सा लेने वालों में धर्म सिविलाइजेशन फाउंडेशन, यूएसए के संस्थापक निदेशक डॉ. मनोहर शिंदे, इंटरनेशनल लॉ डेनवर विश्वविद्यालय के प्रो. बीपी नंदा, पुणे के बृहन महाराष्ट्र कॉमर्स कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल अनिरुद्ध देशपांडे, प्रसिद्ध विचारक एस. गुरुमूर्ति, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ. जीसी त्रिपाठी, लेखक आचार्य वामदेव शास्त्री (डेविड फ्राव्ले) और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने भी अपने विचार साझा किए.