शहादत दिवस पर विशेष: 1857 की क्रांति के दौरान साधु-फकीरों, सिपाहियों व चौकीदारों के जरिये रोटी व कमल का जो फेरा लगता था, वह भी मौलवी अहमदउल्ला की ही सूझ थी.
1857 यानी भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम. देसी फौजों की बगावत के लिए 31 मई की तारीख तय थी मगर मेरठ के सिपाहियों का खून दस मई को ही उबाल खा गया. इसके बावजूद बगावत फैली तो आगरा व अवध में अंग्रेजी राज बीते दिनों की बात होकर रह गया.
बाद में प्रतिष्ठित लेखक सुंदरलाल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ में लिखा-‘बगावत की अवध जितनी अच्छी तैयारी अन्यत्र कहीं नहीं थी. दिल्ली 1857 के सितंबर के तीसरे सप्ताह में ही फिर से अंग्रेजों के हाथ आ गई और बहादुरशाह ‘जफर’ गिरफ्तार कर लिए गए, लेकिन लखनऊ अगले साल मार्च तक अंग्रेजों से लोहा लेता रहा.’
वहां कितने ही मोर्चों पर अंग्रेजों को इंच-इंच आगे बढ़ने के लिए लाशों पर से गुजरना या उलटे पांव भागना पड़ा. अवध में इस बगावत के नायकों में सबसे बड़ा नाम मौलवी अहमदउल्ला शाह फैजाबादी उर्फ नक्कारशाह उर्फ डंका शाह फैजाबादी का है, जिन्हें उनके सबसे कट्टर दुश्मन अंग्रेज तक ‘फौलादी शेर’ कहते थे.
फैजाबाद को अपनी मुख्य कर्मभूमि बनाने के कारण ‘फैजाबादी’ शब्द उनके नाम से ऐसा जुड़ा कि कई इतिहासकारों ने उन्हें फैजाबाद का कोई पदच्युत तालुकेदार या जमीनदार ही बता डाला है. उनके नाम में नक्कारशाह व डंकाशाह शब्द इसलिए जुड़े कि वे जब भी किसी अभियान पर निकलते, उनके आगे-आगे डंका अथवा नक्कारा बजता रहता था.
जैसे उनके कई नाम थे, वैसे ही उनकी शख्सियत के कई आयाम. अभी भी कोई उन्हें दक्षिण से आया हुआ बताता है तो कोई ऐसे ही घूमता रहने वाला फकीर.
जो भी हो, इतिहास गवाह है कि 1857 में अवध में अंग्रेजों में हुई सारी लड़ाइयां हिंदुओं व मुसलमानों ने कंधे से कंधा मिलाकर लड़ीं और अंग्रेज लाख कोशिशों के बावजूद भी उनकी एका नहीं तोड़ पाये तो इसके पीछे मौलवी की वह संगठन शक्ति ही थी, जिसने शंकरपुर (रायबरेली) के राणा वेणीमाधो सिंह की रणशक्ति के साथ मिलकर उसकी बेल को भरपूर सींचा.
वे इस देश के इतिहास में पहले ऐसे शख्स थे, जिनके बांटे बगावत के पर्चाें में अंग्रेजों को काफिर कहा गया. उन दिनों छावनी-छावनी और शहर-शहर, साधु-फकीरों, सिपाहियों व चौकीदारों के जरिये रोटी व कमल का जो फेरा लगता था, वह भी मौलवी की ही सूझ थी.
किसी गांव या शहर में बागियों की तरफ से जो रोटियां आती थीं, उन्हें खाकर वैसी ही दूसरी ताजा रोटियां बनवाकर दूसरे गांवों या शहरों को रवाना कर दी जाती थीं. रोटियां खाने वालों के निकट इसका अर्थ होता था कि हम भी गदर में शामिल हो गये हैं. इस शामिल होने में जाति व धर्म का कोई भेदभाव नहीं था.
मौलवी अपने जीवन का उद्देश्य बताते थे-सीने में सांस रहते नाइंसाफी को मंजूर न करना. कहते हैं कि यह शिक्षा उन्हें एक सूफी संत ने दी थी, जिस पर उन्होंने ताउम्र अमल किया.
अभी जब पहले स्वतंत्रता संग्राम की कहीं कोई आहट तक न थी, फरवरी, 1857 में फैजाबाद में मौलवी के नेतृत्व में बढ़ते सशस्त्र जमावड़े से सशंकित अंग्रेजों ने उनसे साथियों के साथ अपने हथियार सौंप देने को कहा.
मौलवी ने इससे इनकार कर दिया तो उन्हें कई प्रलोभन दिए गए. फिर भी बात नहीं बनी तो उनकी गिरफ्तारी के आदेश दे दिए गए. अवध की पुलिस ने अपनी असमर्थता के मद्देनजर उन्हें गिरफ्तार करने से मनाकर दिया तो अंग्रेजी फौज आई और उसने 19 फरवरी, 1857 को कड़े प्रतिरोध के बाद उन्हें पकड़ लिया.
फिर तो उन्हें जंजीरों में बांधकर फैजाबाद शहर में घुमाया गया और मुकदमे के नाटक के बाद फांसी की सजा सुना दी गई. अंग्रेजों ने सोचा था कि अब यह मौलवी जेल में अपनी जिंदगी के दिन ही गिनता रह जायेगा. लेकिन आठ जून, 1857 को बगावत की लपटें फैजाबाद पहुंचीं तो शहर की बहादुर जनता और बागी देसी फौजों ने जेल पर हमला करके उसका फाटक तोड़ डाला और वहां बंद मौलवी को छुड़ा लिया.
फिर तो सबने मिलकर अपने इस प्रिय नेता को अपना चीफ चुना और उसकी आमद में तोपें दागीं. भरपूर जश्न के बाद मौलवी ने बागी फौज की कमान संभाल ली और फैजाबाद को अंग्रेजों के पंजों से आजाद कराने के बाद राजा मान सिंह को उसका शासक बनाया. यह भी उनके हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयत्नों के ही तहत था.
आगे मौलवी ने खुद को फैजाबाद तक ही सीमित नहीं रखा. तत्कालीन आगरा व अवध प्रांत में घूमघूम कर क्रांति की ज्वाला जगाई. लखनऊ में रेजीडेंसी के घेरे और चिनहट की लड़ाई में उन्होंने जिस कुशलता का परिचय दिया, उसकी बाबत इतिहासकारों ने लिखा है कि लखनऊ नगर के अन्दर क्रांति का सबसे योग्य नेता मौलवी ही था.
किंतु उसकी आज्ञाओं का यथेच्छा पालन नहीं होता था. वरना युद्ध के नतीजे कुछ और ही होते. होम्स ने मौलवी को ‘उत्तर भारत में अंगरेजों का सबसे जबरदस्त शत्रु’ बताया है.
अंग्रेजों के दुर्भाग्य से उनका यह शत्रु पूरी तरह जनता का आदमी था. शायद इसीलिए रईसों, राजाओं और नवाबों को उनकी आज्ञाओं का पालन करने में हिचक होती थी.
परास्त होना तो जैसेे मौलवी ने सीखा ही नहीं था. कई बार बागियों को पीछे हटना पड़ा तो मौलवी ने उन्हें छापामार लड़ाई की रणनीति प्रदान की. फिर तो अंग्रेज बागियों से आमने-सामने की लड़ाइयों में भी उतने आतंकित नहीं हुए थे, जितने इन छापामार मुकाबलों से हुए.
15 जनवरी, 1858 को गोली से घायल होने के बावजूद मौलवी का मनोबल नहीं टूटा. लखनऊ के पतन के बाद भी उन्होंने शहादतगंज मोहल्ले में विजयी अंग्रेजी सेना से दो-दो हाथ किए. वहां से निकले तो अंग्रेज छह मील तक पीछा करके भी उनके पास नहीं फटक सके.
बगावत के पूरी तरह विफल हो जाने के बाद भी मौलवी चुप नहीं बैठे और शाहजहांपुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाकर अंग्रेजों की नाक में दम करते रहे. अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने और मार देने की कई साजिशें रचीं मगर सबमें असफल रहे. बाद में उन्होंने उनके सिर की कीमत रखी पचास हजार रुपये. पचास हजार रुपये आज के नहीं, 1858 के.
इसी कीमत के लालच में शाहजहांपुर जिले की पुवायां रियासत के विश्वासघाती राजा जगन्नाथ सिंह के भाई बलदेव सिंह ने 15 जून, 1858 को तब धोखे से गोली चलाकर मौलवी की जान ले ली, जब वे अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में मदद मांगने उसकी गढ़ी पर गए थे.
उसने मौलवी का सिर कटवाकर रूमाल में लिपटवाया और शाहजहांपुर के कलेक्टर को सौंपकर मुंहमांगी कीमत वसूल ली. कलेक्टर ने उस सिर को शाहजहांपुर कोतवाली के फाटक पर लटकाकर प्रदर्शित किया ताकि जो लोग उसे देखें, आगे सिर उठाने की जुर्रत न करें.
मगर कुछ देशभक्तों ने जान पर खेलकर मौलवी का सिर वहां से उतार लिया और पास के लोधीपुर गांव के एक छोर पर पूरी श्रद्धा व सम्मान के साथ दफन कर दिया. वहीं दूर खेतों के बीच आज भी मौलवी की मजार है. अपने मौन में कहती हुई सी-उन्हीं फकीरों ने इतिहास बनाया है यहां, जिन पर इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)