लैटरल एंट्री को लेकर उठ रहे असुविधाजनक सवालों पर सरकार ने जो रुख अपना रखा है, उससे अभी से लगने लगा है कि यह व्यवस्था इतनी पारदर्शी नहीं होने जा रही कि इससे संबंधी सरकार की नीति और नीयत को सवालों से परे माना जा सके.
अब इसे नरेंद्र मोदी सरकार का इतिहास बनाने (और न बना सके तो भी ऐसा जताने) का लोभ कहा जाये, जिसका वह कतई संवरण नहीं करना चाहती, या कुछ और, लेकिन आज, जब वह चार साल से कुछ ज्यादा ही पुरानी हो चली है, उससे जुड़ी सबसे बड़ी विडंबना यही दिखती है कि वह अपने हर कदम को ‘ऐतिहासिक’ ही ट्रीट करने के फेर में रहती है!
थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो उसने उन दिनों में भी, जब कई हलकों में उसे ‘यू-टर्न’ या कि ‘दिल्ली से दौलताबाद और दौलताबाद से दिल्ली’ सरकार कहा जाता था, अपने कई ऐसे कदमों को भी ऐतिहासिक कहकर ही बढ़ाया था, जिन्हें बाद में अपनी मर्जी से वापस ले लिया या विपक्षी दलों द्वारा वापस ले लेने को मजबूर कर दी गई.
क्या पता, वह समझती ही नहीं या जो महानुभाव खुद को उसका थिंकटैंक वगैरह बताते हैं, वे उसे समझाते ही नहीं कि इतिहास यों कदम-दर-कदम या कि रोज-रोज नहीं बना करता और जो हर कदम पर इतिहास बनाने की ख्वाहिश लिए घूमता है, इतिहास को भी बिगाड़ देता है और खुद को भी.
गिरधर कविराय अपनी कुंडलियों में ‘काम बिगारै आपनो जग में होत हंसाय’ वाली बात शायद ऐसे ही ख्वाहिशमंदों के लिए कह गये हैं. खैर, सरकार का सबसे ताजा ‘ऐतिहासिक’ कदम यह है कि उसने ब्यूरोक्रेसी में लैटरल एंट्री का रास्ता खोल दिया है.
यूं, मामला कुल मिलाकर इतना भर है कि उसने दस मंत्रालयों-राजस्व, वित्तीय सेवा, किसान कल्याण, आर्थिक मामले, सड़क परिवहन व हाइवे, शिपिंग, पर्यावरण आदि, में संयुक्त सचिवों की नियुक्ति की जिस प्रक्रिया के तहत 30 जुलाई तक आवेदन मांगे हैं, उसमें उन अभ्यर्थियों को भी अर्ह मान लिया है, जिन्होंने संघ लोकसेवा आयोग की सिविल सर्विस परीक्षा पास नहीं की.
कई दिशानिर्देशों के साथ इसके लिए जारी अधिसूचना में कहा गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र और विश्वविद्यालयों में काम करने वाले चालीस वर्ष तक के ऐसे मेधावी स्नातक भी इन पदों पर नियुक्ति के पात्र होंगे, जिनके पास पंद्रह साल का अनुभव हो. तय की गई नई प्रक्रिया के तहत कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली कमेटी केवल साक्षात्कार की मार्फत इनका चयन करेगी.
पहले इन्हें तीन साल के लिए नियुक्ति प्रदान की जायेगी, जिसे प्रदर्शन के आधार पर पांच साल तक बढ़ाया जा सकेगा. इन संयुक्त सचिवों को पुराने सर्विस रूल के तहत ही काम करना होगा और सारी सुविधाएं उसी के हिसाब से मिलेंगी.
इस सिलसिले में सरकार का पक्ष यह है कि चूंकि किसी भी मंत्रालय में संयुक्त सचिव का पद खासा महत्वपूर्ण होता है और नीतिगत फैसलों में उसकी निर्णायक भूमिका होती है, इसलिए बेहतर होगा कि नियुक्ति के लिए उपलब्ध समस्त स्रोतों और अभ्यर्थियों में से सर्वश्रेष्ठ को चुना जाये.
वैसे सरकार ने अपने बड़बोलेपन में इसे हर भारतीय को अपनी प्रतिभा व क्षमता के अनुसार अपना विकास सुनिश्चित करने का अवसर मिलने जैसे उदात्त लक्ष्य से भी जोड़ डाला है.
यहां जानना चाहिए, ब्यूरोक्रेसी में लैटरल एंट्री का पहला प्रस्ताव 2005 में आया था, जब प्रशासनिक सुधार पर पहली रिपोर्ट आई थी, लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया था. कह सकते हैं कि प्रस्ताव को यूं अस्वीकार किये जाने के जहां और कई कारण थे, वहीं एक यह भी था कि इसको लेकर उच्च प्रशासनिक तंत्र में कई तरह के संशय और भय व्याप्त थे.
ये अब भी हैं ही, इसीलिए 2010 में दूसरी प्रशासनिक सुधार रिपोर्ट में फिर इसकी सिफारिश की गई, तब भी बात आगे नहीं ही बढ़ी.
2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता संभाली तो इस प्रस्ताव के फायदे नुकसानों पर विचार के लिए एक कमेटी बनाई गई. उसने भी इसके क्रियान्वयन की संस्तुति की तो प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद कुछ बदलावों के साथ इसे स्वीकार कर लिया गया.
अब इसी स्वीकृति के बहाने दावा किया जा रहा है कि यह कदम देश की निजी क्षेत्र में कार्यरत प्रतिभाओं को ऐसे अवसर देने की कोशिश है, जिससे वे अपने क्षेत्र के व्यापक अनुभवों से देश को लाभान्वित कर सकें.
लेकिन सवाल है कि सरकार इस मामले में इतनी ही सदाशयी है तो वह और उसके समर्थक इसको लेकर उठाये जा रहे महीन तो महीन, मोटे-मोटे सवालों को लेकर भी बेतरह भड़क और झुंझला क्यों रहे हैं?
विपक्ष की आलोचना को टू द प्वाइंट जवाब देकर खारिज करने के बजाय, वे यह कहकर सरसरी तौर पर क्यों खारिज कर रहे हैं कि उसे तो सरकार के हर कदम पर बेवजह संदेह करने की आदत है.
वे क्यों नहीं समझते कि यह संदेह करना विपक्ष के कर्तव्यपालन का अंग है और उसे जवाब न मिलने से यह संदेह और प्रबल होता है कि यह कदम सरकार में पैराशूट बाबुओं या कि ‘भगवा प्रतिभाओं’ की पिछले दरवाजे से एंट्री की शुरुआत है.
अब जैसा कि विपक्ष द्वारा कहा जा रहा है, अगर इसमें ‘इंडियन सिटीजन’ के बजाय ‘इंडियन नेशनल’ से आवेदन मांगे गये हैं, तो सरकार को इस सवाल का जवाब देना ही चाहिए कि क्या इस नियुक्ति प्रक्रिया में विदेशों से भी प्रतिभागी शामिल हो सकते हैं?
अगर हां, तो क्या चयन प्रक्रिया में समुचित पारदर्शिता कायम रहेगी? अगर नहीं तो क्या इससे स्टीलफ्रेम कही जाने वाली देश की नौकरशाही का महत्व कम नहीं होगा? खासकर जब ये नियुक्तियां राजनीतिक हस्तक्षेप से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायेंगी.
इस बात का क्या किया जाये कि ऐसे असुविधाजनक सवालों के संदर्भ में सरकार ने जो रुख अपना रखा है, उससे अभी से लगने लगा है कि यह व्यवस्था इतनी पारदर्शी नहीं होने जा रही कि इस संबंधी सरकार की नीति और नीयत को असंदिग्ध या सवालों से परे माना जा सके.
वैसे भी इस देश का निजी क्षेत्र जैसी अनैतिक प्रवृत्तियों व प्रतिस्पर्धाओं को प्रोत्साहित करने के लिए बदनाम है, उसके मद्देनजर उसके क्षेत्र से आने वाली ‘प्रतिभाओं’ की निष्ठाओं को इनसे अलग बताये जाने को लेकर शायद ही कोई आश्वस्त हो सके.
फिर सवाल यह भी है कि अगर देश की राजनीतिक सत्ताओं ने संवैधानिक कवच से सज्जित स्टीलफ्रेम नौकरशाही को भी ‘झुकने को कहे जाने पर रेंगने लग जाने’ की नियति को प्राप्त करा दिया है तो ऐसी ‘निजी’ प्रतिभाओं को ‘इस्तेमाल’ करने में क्योंकर चूकेंगी, जो पहले से अपने मालिकों के स्वार्थों के अनुसार दायें-बांयें होने की अभ्यस्त हों.
फिर यह अंदेशा स्वाभाविक क्यों नहीं हो जायेगा कि इस सरकार की नीतियों व कार्यक्रमों पर बड़े पूंजीपतियों और धन्नासेठों के जिस प्रभाव को हम लगातार बढ़ता हुआ देख रहे हैं, वह इन नियुक्तियों से और तेजी से बढ़ने लग जाये.
लेकिन सरकार तो सरकार, उसके समर्थकों की उसके इस कदम के बचाव की अदा भी खासी देखने लायक है. एक ओर तो वे पूछ रहे हैं कि जब अर्थव्यवस्था समेत दूसरे प्रायः सारे क्षेत्रों में नये प्रयोग हो रहे हैं तो ब्यूरोक्रेसी का क्षेत्र ही इससे अछूता क्यों रहे?
दूसरी ओर यह भी कह रहे हैं कि सचिव स्तर पर सीधी नियुक्ति की परिपाटी मोरारजी देसाई की शुरू की हुई है और वे इसे न शुरू करते तो हमें मनमोहन सिंह व एमएस स्वामीनाथन जैसी प्रतिभाएं नहीं ही मिलतीं.
गोयाकि तब वे नियुक्तियां आर्थिक क्षेत्रों में की गई थीं, नीति निर्धारण के क्षेत्र में नहीं, लेकिन अब विडंबना यह कि सरकार के ये समर्थक इस अपने ही अंतर्विरोध की भी काट नहीं ढूंढ़ पा रहे कि अगर यह मोरारजी द्वारा की गई शुरुआत है तो नया प्रयोग या कि ऐतिहासिक किस अर्थ में हैं?
नहीं है, इसके बावजूद ऐतिहासिक बताने की बदनीयती क्या इस कदम को संदिग्ध नहीं बनाती? किसे नहीं मालूम कि जिसके हाथ में कीचड़ लगा हुआ हो, वह जिसे भी छूता है, थोड़ा कीचड़ तो लगा ही देता है. फिर नीयत ऐसी चीज है, जो बद होते ही बिल्ली के जबड़े में फंसे चूहे की नियति को बिल्ली के ही दांतों में अच्छी नीयत से पकड़े गये उसके अपने बच्चे की नियति का विलोम बना देती है.
इस तथ्य के आलोक में मोदी सरकार अपने हर कदम को ऐतिहासिक ठहराने का लोभ छोड़कर अपनी नीयत को सारे देशवासियों के भरोसे लायक बना लेती तो देश की बड़ी सेवा करती.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)