अगर जम्मू कश्मीर में तीन साल के भाजपा-पीडीपी गठबंधन का हासिल यह है कि वहां कट्टरपंथ, आतंक और हिंसा का राज हो गया है तो अब राज्यपाल शासन में, जो कायदे से मोदी सरकार का ही शासन होगा, कौन सा चमत्कार हो जाएगा.
अपने हर स्ट्रोक को मास्टरस्ट्रोक बताने की लाइलाज बीमारी से पीड़ित भारतीय जनता पार्टी अरसे से आतंकवाद व अलगाववाद झेल रहे जम्मू-कश्मीर में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का हाथ झटककर इस सीमावर्ती राज्य को राज्यपाल शासन या राजनीतिक अस्थिरता के हवाले करने को भी अपना मास्टरस्ट्रोक ही बता रही है.
यह भूलकर कि तीन साल पहले उसने यह सर्वथा बेमेल और अप्रत्याशित गठबंधन किया तो उसे भी अपना मास्टरस्ट्रोक ही बताया था. लेकिन इसमें चकित होने जैसी कोई बात नहीं है. इसलिए कि हमारे बुजुर्ग बहुत पहले बता गये हैं कि आदतें न जल्दी पड़ती है और न जल्दी दूर होती हैं.
अलबत्ता, उन ‘विश्लेषकों’ की कवायदें अब भी अजीबोगरीब और इस कारण हैरतअंगेज ही हैं जो डींग हांकते हैं कि वे भाजपा के थिंकटैंकों में हैं, लेकिन उसे भ्रमों से उबारने या उनके पार ले जाने में कोई भूमिका निभाने के बजाय उसकी जरूरत के अनुसार नए भ्रम रचने को ही अभिशप्त रहते हैं.
यही कारण है कि जहां आम लोग विभिन्न मंचों पर उसके ताजा ‘मास्टरस्ट्रोक’ की खिल्ली उड़ाते और मजा लेते हुए कह रहे हैं कि उन्होंने एक ही गेंद पर दो-दो मास्टर स्ट्रोकों का ‘चमत्कार’ पहली बार देखा, ये विश्लेषक अभी से उसे 2019 के लोकसभा चुनावों में इस स्ट्रोक का फायदा दिलाने लगे हैं.
अकारण नहीं कि वे इस ‘उम्मीद’ से भरे हुए भी हैं कि 2019 में भाजपा को वाकई कोई फायदा हो या नहीं, उसका भ्रम रचने के फायदे, भाजपा चाहे तो, उनकी झोली में फौरन आ सकते हैं. जाहिर है कि ये ‘विश्लेषक’ इस ‘लाभकारी’ स्ट्रोक को लेकर भाजपा को कठघरे में नहीं ही खड़ी करने वाले.
यह भी नहीं पूछने वाले कि वह अपने चाणक्यों की राजनीतिक समझदारी पर व्यर्थ का गुमान क्यों करती है, अगर उन्हें एक छोटे-से राज्य की छोटी-सी गठबंधन सहयोगी की असलियत परखने में 36 महीने लग जाते हैं और अंततः इस डर से गठबंधन तोड़ने का एलान करना पड़ता है कि कहीं उससे सहयोगी ही इस दिशा में आगे बढ़कर आंध्र प्रदेश में तेलगूदेशम की तरह खुद उसे अलविदा कहने पर न उतर आये?
सोशल मीडिया पर एक शख्स ने भाजपा की इस हालत पर तंज करते हुए ठीक ही लिखा है कि भाजपा के इन चाणक्यों से अच्छे तो उनके वे समर्थक ही हैं, जो छह सेकेंड में बड़े से बड़ा फैसला ले लेते हैं!
लेकिन, जब तक देश में लोकतंत्र है, इन विश्लेषकों के दबाने से वे सारे असुविधाजनक सवाल दब नहीं जाने वाले जिनका मुंह इस वक्त स्वाभाविक ही भाजपा की ओर है. वह कहेगी कि यह तलाक उसने इसलिए दिया क्योंकि जम्मू-कश्मीर में कट्टरपंथ, आतंक और हिंसा बढ़ते जा रहे थे, तो लोगों को पिछले तीन सालों में इन्हें बढ़ाने में उसकी भूमिका भी याद आयेगी ही.
यह भी कि गठबंधन सरकार बनते ही उसने पीडीपी के साथ मिलकर जम्मू कश्मीर का ‘बंटवारा’ कर डाला था, जिसमें घाटी पीडीपी के हिस्से में थी और जम्मू भाजपा के. तभी तो सारे राज्य का शासन चलाने के लिए दोनों के बीच जो ‘एजेंडा आफ एलायंस’ बना था, उसे दरकिनार कर पीडीपी घाटी में कुछ कहती और करती थी जबकि भाजपा जम्मू में कुछ और.
आज दोनों ही पार्टियां दावा कर रही हैं कि उन्होंने गठबंधन सत्ता के लिए नहीं, राज्य के व्यापक हितों और वृहत्तर उद्देश्यों के लिए किया था लेकिन जब तक गठबंधन रहा, दोनों के तुच्छ पार्टी हित ही सर्वोच्च बने रहे.
राष्ट्रवाद का जाप करने वाली भाजपा इस दौरान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे को इस तरह आगे बढ़ाती रही कि कठुआ में देश के पवित्र तिरंगे को सामूहिक बलात्कारियों व हत्यारों के पक्ष फहराने से परहेज करना भी उसे गवारा नहीं हुआ.
हां, जगहंसाई के बाद उसे इस कांड में लिप्त अपने दो मंत्रियों के इस्तीफे दिलाने पड़े. इससे पहले दो झंडे, बीफ और मसरत आलम की रिहाई के बहुचर्चित मामलों में भी उसने अपना संकीर्ण एजेंडा ही आगे किए रखा था.
महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री जरूर थीं और इसलिए थीं कि भाजपा के लिए बहुत पापड़ बेलकर भी ‘जम्मू कश्मीर में पहले भाजपाई मुख्यमंत्री’ का अपना सपना साकार करना मुमकिन नहीं हुआ था, लेकिन भाजपा की तरफ से सारे फैसले जम्मू या श्रीनगर में नहीं, दिल्ली में लिए जाते थे.
गठबंधन तोड़ने का फैसला भी दिल्ली में ही हुआ और भाजपा कहे कुछ भी, सिर्फ इसलिए हुआ कि पीडीपी से गठबंधन की नाराजगी उसके जम्मू के वोट बैंक पर भारी पड़ने लगी थी. वैसे ही, जैसे उससे हाथ मिलाने को लेकर पीडीपी अपना घाटी का वोट बैंक गंवाने के कगार पर पहुंच गयी थी. वहां सबसे ज्यादा विरोध-प्रदर्शन उसके गढ़ दक्षिण कश्मीर में ही हो रहे थे.
सवाल है कि क्या अब देश या जम्मू कश्मीर के मतदाता, उन्हें जब भी जनादेश देने का मौका मिलेगा, इन तीन सालों की भाजपा की करनी को इसलिए भूल जायेंगे कि तीन साल बाद अचानक उसका ‘राष्ट्रवाद’ जाग उठा और आतंकवादियों व अलगाववादियों पर आक्रामक हो उठा, सो भी जब भाजपा के हित आड़े आने लगे और उसने एक झटके में सारा ठीकरा पीडीपी पर फोड़कर सारी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया?
जो ‘विश्लेषक’ इसका जवाब हां में देना चाहते हैं, कहना चाहिए कि वे मतदाताओं के विवेक नहीं, अविवेक पर तकिया रख रहे हैं. यह भूलकर कि भले ही कुछ लोगों को लंबे वक्त तक या ढेर सारे लोगों को कुछ वक्त के लिए मूर्ख बनाया जा सकता हो, ढेर सारे लोगों को लंबे वक्त तक मूर्ख बनाने की कोशिश में विफलता ही हाथ आती है और भाजपा के दुर्भाग्य से इस देश में कुछ नहीं, करोड़ों मतदाता हैं.
वे वोट देने जायेंगे तो इस सवाल से क्योंकर नहीं गुजरेंगे कि जम्मू कश्मीर में कट्टरपंथ, आतंक और हिंसा से जन्मे वर्तमान हालात के लिए वह पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ज्यादा जिम्मेदार है, जिसकी सिर्फ जम्मू-कश्मीर में सरकार थी, सो भी साझा, या वह भाजपा, जो जम्म-ूकश्मीर और केंद्र दोनों में सत्तासुख लूट रही थी?
क्यों नहीं पूछेंगे वे कि जब नोटबंदी ने आतंकवादियों की कमर तोड़कर रख दी थी, जैसा भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार दावा करती है, तो वे दोबारा क्योंकर इतने शक्तिशाली हो गये कि न सेना के आपरेशन आलआउट से काबू में आये, न ही रमजान में एकतरफा संघर्ष विराम से उनकी मानसिकता बदली और हम जहां से चले थे, फिर वहीं जा पहुंचे?
ऐसा पीडीपी के कारण हुआ तो उसकी सरकार में साझीदार भाजपा को तीन सालों तक अपना मुंह सिले रखने के गुनाह से बरी कैसे किया जा सकता है?
दूसरे पहलू पर जायें तो इससे पहले भाजपा इस बात को लेकर फूली-फूली फिरती रही है कि उसनेे जब भी और जिस भी पार्टी से गठबंधन किया, उसका धर्म निभाया, जबकि कांग्रेस कई बार अलानाहक भी इस धर्म का उल्लंघन कर अपने सहयोगियों की सरकारें गिरा देती रही है.
अब किसी को तो उससे पूछना चाहिए कि क्या उसने पीडीपी के साथ गठबंधन धर्म निभाया है? समर्थन वापसी से पहले उसने कभी उसे चेताया कि ‘एजेंडा आफ एलायंस’ का उल्लंघन जारी रहा तो वह उसे तोड़ देगी? नहीं निभाया तो क्यों नहीं निभाया?
बिहार में उसके रहमोकरम पर सरकार चला रहे नीतीश के कान इससे जरूर खडे़ हो गये होंगे. बहरहाल है कोई विश्लेषक जो बताये कि अगर जम्मू-कश्मीर में तीन साल के भाजपा पीडीपी गठबंधन का हासिल यह है कि वहां कट्टरपंथ, आतंक और हिंसा का राज हो गया है तो अब राज्यपाल शासन में, जो कायदे से उस नरेंद्र मोदी सरकार का ही शासन होगा, जिसका महज एक साल बाकी है, भाजपा या मोदी सरकार वहां कौन सा चमत्कार कर देंगी, जिसका 2019 में लाभ उठाएगी?
वे तो पहले ही सिद्ध कर चुकी है कि न कश्मीर समस्या की उनकी समझ दुरुस्त है और न उसके आधार पर बनाई जाने वाली कोढ़ में खाज पैदा करने वाली नीतियां. हां, उनका तथाकथित राष्ट्रवाद भी उनके अपने हितों के झुनझुने में बदल चुका है.
इस कदर कि उनके पास अपनी सहयोगी शिवसेना के इस सवाल का जवाब भी नहीं है कि उसने यह गठबंधन छह सौ जवानों की शहादत के बाद क्यों तोड़ा और क्योंकर पिछले चार सालों में समस्या से ऐसे निपटा जाता रहा कि घाटी के पत्थरबाज आतंकियों से बड़ी समस्या बन गए?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)