केदारनाथ अग्रवाल: खेतों को चाहने वाला क्या कोई और भी कवि है

केदारनाथ अग्रवाल का सौंदर्यबोध खेतों की धूल में गुंथकर बना है और इस तरह के सौंदर्यबोध के वह हिंदी के इकलौते कवि हैं.

केदारनाथ अग्रवाल का सौंदर्यबोध खेतों की धूल में गुंथकर बना है और इस तरह के सौंदर्यबोध के वह हिंदी के इकलौते कवि हैं.

Kedarnath Agarwal
केदारनाथ अग्रवाल [जन्म: 01 अप्रैल 1911 – अवसान: 22 जून 2000] (फोटो साभार: apnimaati.com)
शताब्दियों से एक किसान की अभिलाषाएं बड़ी साधारण रही हैं.धनिकों की तरह ऐश्वर्य-भोग के स्वप्न उसने कभी नहीं देखे.मसलन कि हल से जुड़कर उसके बैल उसका साथ दें. कंधों पर आराम से जुआ रख जाने दें. उसे तंग न करें. खेत जुत जाए. बीज पड़ जाए.

यजुर्वेद का अनाम प्राचीन कवि गाता है;

युनक्त सीरा वि युगा तनुध्वं क़्रते योनो वपतेह बीजम
और फिर हल का फाल ज़मीन की छाती को चीरता चला जाए-
शुन अयं सु फाला वि कृषन्तु भूमि.

किसान मरुदगणों से अपने हल के फाल के लिए अनुमति लेता है.धरती कठोर है.वह चाहता है कि मरुद उसके हल के फाल पर थोड़ा मधु (शहद) का आलेपन कर दें-

‘घ्रतेन सीता मधुना समज्यतांम विश्वेदेवेरनुमता मरुदभि:’

जीवन की विषम कठोरताओं में यह कृषक की मधु-याचनाएं हैं. कृषि-कार्य सरल हो जाए. श्रम के अनुपात में फल भी मिल जाए. उसका लांगल (हल) पृथ्वी को खोदकर उसका घर अन्न से भर दे. श्रम-जीवन के चित्रण की इसी परम्परा में केदारनाथ जी जुड़ते हैं. उनका स्वर पारम्परिक कवि से ऊंचा है.उसमें परिवर्तन का आरोह है.

जल्दी-जल्दी हांक किसनवा!
बैलों को हुरियाये जा
युग की पैनी लौह कुसी को
भुईं में ख़ूब गड़ाये जा.

किसान के घर का अन्न से भर जाना इतिहास के किसी भी चरण में सरल नहीं रहा है. हर्षचरित में बाण विंध्याटवी के एक गांव का विवरण इस तरह देते हैं, ‘वनग्राम के चारों ओर जंगल के सिवा कुछ और न था. लोग कुटुंब का पेट पालने के लिए व्याकुल रहते थे. पेट पालने की चिंता में कुदाली से गोडकर परती ज़मीन को तोड़ते और खेत से मोटे टुकड़े (खंडलक) निकाल लेते.

बाण लिखते हैं कि कुछ किसानों पर खेती के लिए बैल न थे. भूमि कांस से भरी होती थी. कुछ भी पैदा करने के लिए उसे छाती फाड़कर कुदाली भांजनी पड़ती थी’ [देखें: पेज 183/184, हर्षचरित:एक सांस्कृतिक अध्ययन डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, द्वितीय संस्करण, 2000 बिहार राष्ट्रभाषा परिषद]

छाती फाड़कर कुदाल भांजता हुआ किसान हिंदी की कविता में यदि किसी के यहां अपने समस्त श्रम-औदात्य के साथ लभ्य है तो वह प्रगतिवादी श्रम-आराधक कवि केदारनाथ अग्रवाल के यहां है. बैलों के कंधों पर जुआ रख दिया गया है. श्रम का निष्कपट कारोबार चल निकला है. केदारनाथ जुताई का गीत लिखते हैं. किसान गाता है-

मेरे खेत में हल चलता है
नाहर बैल जुआ कँधियाये

ऊंचे ऊंचे शृंग उठाए
मेरे खेत में हल चलता है.

फाड़ कलेजा गड़ जाता है
तड़ तड़ धरती तड़काता है

राह बनाता बढ़ जाता है,
ख़ून पसीना चुचुआता है

मिट्टी का तन नरमाता है
मेरे खेत में हल चलता है.

[जुताई का गीत, 1946]

केदारनाथ अग्रवाल बांदा के रहने वाले थे.पेशे से वकील थे लेकिन वकील भी कैसे, यह बात उनके अपने मित्र डॉ. रामविलास शर्मा को लिखे एक ख़त से पता चलती है.

‘वकालत बिगड़ रही है.पेशे से बे-पेशा हो रहा हूं.देखो ये खर्चें कब तक चलते रहेंगे. इधर खर्चें ही खर्चें हैं. नाती की शादी में बहुत कुछ लगेगा’

उनके हर अभाव की प्रतिपूर्ति साधारण जन, किसान और मेहनतकश इंसान के प्रति उनका अगाध प्रेम था.जनता का कवि होना उनकी सबसे बड़ी पूंजी था. छाती तान कर जीने का कारण था.

दूर कटा कवि
मैं जनता का,

क़ानूनी करतब से मारा
जितना जीता उतना हारा

धन भी पैदा नहीं कर सका
पेट-खलीसा नहीं भर सका

मिली कचहरी, इज़्ज़त थोपी
पहना चोंगा उतरी टोपी

लिए हृदय में कविता थाती
मैं ताने हूं अपनी छाती.

1975 की अपनी एक कविता ‘वे तीस साल’ में वह निज-क्षुब्धता इस तरह अभिकथित करते हैं-

कुछ नहीं किया मैंने अदालत में
सिवाय बकवास के

मेज और कुर्सी को सुनाए हैं मैंने
क़त्ल के कथानक
लोमहर्षक वीभत्स भयानक

बेदर्द पत्थर फ़र्श के
न पसीजे

वकालत में वह छल-छंदर से दूर थे. इस पेशे में भले ही वह ख़ुद को ‘बे-पेशा’ मानते रहे हों, लेकिन जन-जीवन में चलने बाले सच-झूठ के संघर्ष,न्याय-अन्याय के बीच की मुठभेड़ और उसमें पिसते हुए आम आदमी की कराहती हुई आवाज़ को वह इसी के माध्यम से निकट से सुन सके.

इस पेशे ने उन्हें ‘सिस्टम’ को पास से देखने का मौक़ा उपलब्ध कराया. यही वजह है कि व्यवस्था पर सटीक व्यंग कर सकने योग्य जो सटीक भाषा गद्य में श्रीलाल शुक्ला जी ने विकसित की, काव्य में वही भाषा केदारनाथ जी ने की.

श्रीलाल जी एक प्रशासनिक अधिकारी थे. थाना कचहरी को बिलकुल पास से देखने का अवसर पाते थे. राग दरबारी में बिना घूस दिए एक सरकारी कागज पाने की लड़ाई एक आम आदमी लड़ता है. रोटिया गवाह पंडित राधेलाल और उनका चेला बैजनाथ खुलेआम कचहरी में झूठी गवाहियां देते हैं.

शिवपालगंज में चाहे छंगामल कॉलेज हो या कोऑपरेटिव सोसायटी, पुलिस थाना हो या तहसील-संस्थाओं के नाम पर जो कुछ भी हमने बनाया है, श्रीलाल शुक्ल की भाषा उस सबको अपने व्यंग और कटाक्ष से बेपर्दा करती है. विशिष्ट अभिधान के बिना यही व्यंग और क्षोभ केदारनाथ की कविताओं में मिल जाता है.

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 110 पर कोई वकील कवि ही लिख सकता था. सच को साबित होने के लिए कितना जूझना पड़ता है, यह एक मानवतावादी अधिवक्ता-कवि से बेहतर कौन जान सकता था?

सच ने
जीभ नहीं पायी है

वह बोले तो कैसे
न्याय मिले तो कैसे

कागज का पेटा भर जाता
पेटे में पड़ सच मर जाता

झूठे को डिगरी मिल जाती
जीते की बांछे खिल जाती
झूठ मरे तो कैसे.

अदालत में वह ‘सच’ को डरा हुआ देख रहे थे…

सच
अब नहीं जाता अदालत में
खाल खिंचवाने

मूँड़ मुंडवाने
हाड़ तुड़वाने
ख़ून चुसवाने.

केदारनाथ जी के जीवन संदर्भों से यह तो साफ दिखता है कि उनका मन कचहरी में नहीं लगता था. या तो वह ‘केन किनारे उसकी रेती’ में बैठ कर चैन पाते या किसी श्रम करते मनुष्य को देखकर. नदियों और कवियों का एक भावपूर्ण रिश्ता है. नदी की तड़प जन और सृजन दोनों की तड़प है.

रवि के खरतर शर से मारी,
क्षीण हुई तन-मन से हारी

केन हमारी तड़प रही है
गरम रेत पर,जैसे बिजली

बीच अधर में घन से छूटी
तड़प रही है…

सरस्वती के किनारे ऋचा रचते वेद-काव्यकारों से लेकर अब तक. नदी मरेगी तो क्या क्या न मरेगा! कौन कौन न मरेगा! सर्वेश्वर जी की कविताओं में उनके गांव की कुआनो नदी बह रही है. राही मासूम रज़ा के ज़ेहन से उनके कस्बे से होकर बहती गंगा कभी न निकल सकी.

दुल्हन की तरह नर्म रफ़्तार पानी
शुजाओं के गजरे

हसीं चांद सूरज की परछाइयों के करनफूल पहने
हुबाबों(बुलबुले) की पायल

निगाहें झुकाए,तबस्सुम छुपाये
यह गंगा

हिमाला की बेटी
कहीं एक धारा

कहीं एक दरिया
कहीं एक समंदर.

केदारनाथ जी कविताओं में केन बह रही है. वह जितनी बांदा में प्रवाहमान है उतनी ही उनके अंतरतम में. वह जब बाहर बह रही है तो ‘जीर्ण-जनों’ के लिए जीवनदायिनी है.

वही केन है
इस प्रदेश के

जीर्ण-जनों की जीवित धारा’
भीतर उनके सुख-दुःख की सहचरी है और स्वस्थ एन्द्रिक बोध की बिम्बबिधायनी.’

नदी एक नौजवान ढीठ लड़की है’- केदार जी एक कविता है.

धूप पिए पानी लेटा है सीना खोले
नौजवान बेटा है युग के श्रमजीवी का.

यह श्रम के आत्म-विश्वास का बिम्ब है. प्रकृति और श्रम सायुज्य हैं. एक दूसरे से अभिन्न और परस्पर पूरक-प्रतिपूरक. केन के बाद खेत… फ़सलों से लहलहाते तरह तरह के खेत. खेत उन्हें अतिशय प्रिय हैं. उम्मीदों की उपमाएं वह या तो श्रमिकों के जीवन से लेते हैं या किसानों की मेहनतकश जीवनचर्या से.

केदारनाथ अग्रवाल का एस्थेटिक्स (सौंदर्यबोध) खेतों की धूल में गुंथकर बना है और इस तरह की एस्थेटिक्स के वह हिंदी के इकलौते कवि हैं.

हम न रहेंगे-
तब भी तो ये खेत रहेंगे

इन खेतों पर घन घहराते
शेष रहेंगे.

गेहूं के खेत देखकर वह हुलस उठते हैं. धान का खेत उन्हें दुर्दमता से खींचता है. वह उन्हें इतना अधिक क्यों प्रिय है? एक दोस्त के लिए वह कहते हैं-

हम जियें न जियें दोस्त
तुम जियो एक नौजवान की तरह
खेत में झूम रहे धान की तरह…

खेत में झूमते धान की उपमा से कौन कवि जीते रहने की शुभकामना देता है! धान श्रम-गहन है. धान की रोपाई और कटाई मिलकर ही हो पाती है. काछा मारे किसान का पूरा का पूरा घर जुटता है.

अबकी धान बहुत उपजा है
खेत काटने की इच्छा से

खेतिहर जन साथ समेटे
काछा मारे-देह उघारे

आ धमका है साथ सवेरे
सबके हाथों में हंसिया है

सबकी बाहों में ताकत है
जल्दी जल्दी सांसें लेते
सब जन मन से काट रहे हैं.

धान के खेतों पर फैयाज़ुद्दीन अहमद ‘फ़ैयाज़ ‘की भी एक रचना है- धान के खेत.

यह धान के नन्हे पौधे हैं हरियाली के दल बादल में
या काही रंग की गोट लगी है,हल्के धानी आंचल में

देहात के रंगींपोश यहां जब खेत को नींदने आते हैं
धानों के हरे-भरे खेतों में सौ गुंचा-ओ-गुल खिल जाते हैं

ख़ुदरौ पौधों के साथ उगना भाता नहीं नाज़ुक धानों को’
यह ग़ैरत कुम्हला देती है इन नन्हीं नन्हीं जानों को.

[देखें: पेज संख्या 110,हिंदोस्ता हमारा- खंड 1, संपादक.जां निसार अख़्तर]

ख़ुदरौ का अर्थ है- ख़ुद ब ख़ुद उग आने वाले पौधे. धान की ग़ैरतमंदी को यह साथ पसंद नहीं है! यह श्रम के स्वाभिमान का स्वीकार है. जो छोटा है वह भी ग़ैरतमंद है. किसी भी तरह की हैसियत का स्वाभिमान से कोई अंतर्संबंध नहीं ठहरता इसलिए केदारनाथ जी की कविता में ‘एक बीते के बराबर’ का ठिंगना चना भी तनकर खड़ा है.

एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना

बांधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का
सजकर खड़ा है.

किसी को यदि स्वाभिमान से ओत-प्रोत ठिगने चने जैसे श्रमजीवी चरित्रों को एक साथ देखना हो तो उसके पास एक ही विकल्प है कि वह केदारनाथ अग्रवाल की काव्य-यात्रा के साथ हो ले. उसे खेतों में पसीना चुचियाते काछा बांधे हुए किसान दिखेंगे, जाड़ों में कौड़े से तापते हुए ठिठुरते लोग दिखेंगे, व्यवस्था में धक्का खाते आम जन मिलेंगे.

वो साधारण होंगे लेकिन श्रम-स्वाभिमान से भरे हुए होंगे. वो आदमी होंगे. देवदार की तरह बड़े होंगे. वह ऐसे आदमी खोजते थे.

मैं उसे खोजता हूं
जो आदमी है

और

अब भी आदमी है
तबाह होकर भी आदमी है

चरित्र पर खड़ा
देवदार की तरह बड़ा.

22 जून 2000 को 90 वर्ष की आयु में केदारनाथ अग्रवाल की मृत्यु हुई. वह भी क्या कवि थे! खेत उनकी मृत्योत्तर कल्पना में भी छाए थे. खेतों को इस क़दर चाहने वाला क्या कोई और भी कवि है?

मर जाऊंगा तब भी तुमसे दूर नहीं मैं हो पाऊंगा
गेहूं की मुट्ठी बांधे मैं खेतों-खेतों छा जाऊंगा.

(लेखक भारतीय पुलिस सेवा में उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं.)