ग्राउंड रिपोर्ट: गट्टेपल्ली के पास अप्रैल के आखिरी हफ्ते में हुए कथित नक्सल एनकाउंटर के बाद गांव के लापता बच्चों में से एक के पिता ने कहा, ‘पुलिस हमारे बच्चों की हत्याओं को जायज़ ठहराने के लिए हमारा ही इस्तेमाल कर रही है.’
मुंबईः ‘हर बार जब पुलिस हमारे गांव आती है और हमें पुलिस स्टेशन आने के लिए कहती है, हमारी उम्मीद जग जाती है. हमारे बच्चों को लापता हुए दो महीने बीत गए हैं. कम से कम अब उन्हें हमें यह बता देना चाहिए कि हमारे बच्चों के साथ हुआ क्या है?’
गट्टेपल्ली के एक पिता, जिनका बच्चा अप्रैल के आखिरी हफ्ते से लापता है, ने द वायर को यह 18 जून को फोन पर हुई बातचीत में कहा. उनके बच्चों के लापता होने का वही समय था, जब पुलिस ने 40 ‘नक्सलियों’ को उनके गांव के पास मार गिराया था.
करीब दो महीने पहले 21 अप्रैल को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के एटापल्ली तहसील में पड़ने वाले गट्टेपल्ली के आठ बच्चे पड़ोसी गांव कसनसुर में एक शादी में शामिल होने के लिए रवाना हुए थे. अगले दिन सुबह 22 अप्रैल को इंद्रावती नदी के किनारे, ठीक कसनसुर गांव के बाहर, पुलिस के सी-60 कमांडो दस्ते ने ‘50 से ज्यादा गुरिल्लों’ पर गोलियां बरसायीं, जिन्होंने कथित तौर पर वहां पड़ाव डाला हुआ था.
इनमें से 34 लोग वारदात स्थल पर ही ढेर हो गये. बाकी छह लोग एक दिन बाद पास के राजाराम खांडला जंगल में मार गिराए गए.
मीडिया रिपोर्टों और घटनास्थल से पुलिस द्वारी जारी की गई तस्वीरों से इस बात की पुष्टि हुई कि नदी किनारे मारे जाने वालों में गट्टेपल्ली की उस टोली के भी दो बच्चे थे, जो अब तक लापता हैं. अजीब बात यह है कि पुलिस ने सिर्फ एक का शव उन्हें सौंपा है. गांववालों का कहना है कि बाकी बच्चों के बारे में पुलिस की तरफ से कुछ भी सुनने को नहीं मिला है.
एक तरफ बच्चों के गायब होने के रहस्य पर अभी तक पर्दा पड़ा हुआ है, दूसरी तरफ गांववालों का दावा है कि पुलिस ने उनके बच्चों को माओवादी गतिविधियों में शामिल दिखाने के लिए जोर-जबरदस्ती करके उनसे कई पूर्वलिखित कागजातों पर दस्तखत करवा लिए हैं.
एक पिता ने द वायर से कहा, ‘पुलिस हमारे बच्चों की हत्याओं को जायज ठहराने के लिए हमारा ही इस्तेमाल कर रही है.’
18 जून को, पांच लोगों को गांव से 12 किलोमीटर दूर पेरमिली पुलिस उप चौकी में बुलाया गया. गांव से 10 अन्य लोगों को साथ लेकर ये पांच लोग पुलिस स्टेशन पहुंचे. उन्हें उम्मीद थी कि पुलिस उन्हें उनके बच्चों के बारे में कोई नयी सूचना देने वाली है. लेकिन जैसे ही वे थाना परिसर में पहुंचे, पुलिस ने पांच लोगों को भीतर धकेलकर बाकी से चले जाने को कहा.
उनमें से एक ने कहा, ‘हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. हमें एक कमरे में ठूंस दिया गया और कोई आवाज नहीं करने के लिए कहा गया.’ इन पांच लोगों से उसके बाद हस्तलिखित कागजातों पर दस्तखत करवाया गया.
एक पिता ने बताया, ‘वे कागजात हाथ से मराठी में लिखे हुए थे. जिसमें यह दावा किया गया था कि हमारे बच्चे कसनसुर गांव में कमांडर साईनाथ से मिलने गये थे. जब मैंने उन पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने मुझे भी जान से मार देने की धमकी दी.’ उनका कॉलेज जाने वाला किशोर उम्र का बेटा भी उन आठ गायब बच्चों में शामिल है, जिनके बारे में शक है कि उन्हें एनकाउंटर में मार दिया गया.
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गांव वालों के मुताबिक इन चिट्ठियों में यह दावा भी किया गया था कि ये आठ बच्चे परमेल्ली दलाम के कथित कमांडर 32 वर्षीय साईनाथ, उर्फ डोलेश माधी अताराम (पुलिस के मुताबिक जिसे हाल ही में प्रमोशन देकर डिविजनल कमेटी मेंबर बनाया गया था) के नजदीकी सहयोगी थे.
साईनाथ गट्टेपल्ली गांव का था और वह इस मुठभेड़ में मारे गये तीन माओवादी कमांडरों में से एक था. अन्य दो डिविजनल कमेटी (जिसे ‘डीवीसी’ के तौर पर जाना जाता है) रैंक स्तर के सदस्य थे- नक्सल श्रीनू उर्फ श्रीनाथ और नंदू. श्रीनू उर्फ साईनाथ इंद्रावती नदी के तट पर मारा गया और नंदू और अन्य पांच को पास के राजाराम खांडला जंगल कपेवांचा इलाके में 23 अप्रैल को मार गिराया गया.
गांव वालों का दावा है कि जिस समय उन्हें वहां ले जाया गया, उस समय पुलिस स्टेशन के भीतर छह लोग बैठे हुए थे. इनमें से एक ने वर्दी पहन रखी थी, जबकि बाकी पांच सादे कपड़ों में थे. उन्होंने वहां बैठे दो अधिकारियों की पहचान महेश मदकर और मंतिवर के तौर पर की है.
एक अन्य गांववाले ने कहा, ‘उनमें से दो हमारी ओर कागज बढ़ाते रहे और हमें उस पर दस्तखत करने के लिए कहा. हम करीब चार घंटे तक विरोध करते रहे. लेकिन आखिर में हमें उस पर दस्तखत करना पड़ा. हम डरे हुए थे.’
गांववालों का दावा है कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे पलट न जाएं, पुलिस जल्दी ही इन दस्तखत की हुई चिट्ठियों को एक मजिस्ट्रेट के सामने पेश करेगी और अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के अनुच्छेद 167 के तहत उनके बयान दर्ज करेगी.
गांव वालों ने बताया कि पुलिस ने उन्हें उन कागजातों की एक प्रति देने से इनकार कर दिया, जिन पर उन्हें दस्तखत करने के लिए बाध्य किया गया था. इसकी जगह उन्हें कोर्ट से ये कागजात लेने के लिए कहा गया.
द वायर ने पेरमिली पुलिस उप-स्टेशन के कामकाज के लिए जिम्मेदार एएसपी ए.राजा से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया.
गढ़चिरौली के एसपी अभिनव देशमुख को भी द वायर की ओर से एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी गयी है, जिसमें उनसे गांव वालों द्वारा लगाए गये आरोपों का जवाब देने के लिए कहा गया था. उन्होंने इसके जवाब में लिखा- रॉन्ग इंफो (इनफॉरमेशन) यानी गलत सूचना.
गट्टेपल्ली, एटापल्ली तहसील का एक दूरस्थ और छोटा सा गांव है, जो नागपुर से करीब 310 किलोमीटर दूर है. गढ़चिरौली क्षेत्र के ज्यादातर आदिवासी गांवों की तरह गट्टेपल्ली के 35 परिवार आज भी अपनी आजीविका के लिए तेंदूपत्ता (जिनका इस्तेमाल बीड़ी बनाने में किया जाता है) तथा अन्य वन उत्पादों का संग्रहण करने पर निर्भर हैं.
ज्यादातर गांवों की पहुंच औपचारिक शिक्षा तक नहीं है. बहुत कम लोग ही मराठी में पढ़ या लिख सकते हैं. जिन पांच लोगों को पुलिस ने बुलाया था, उनमें से तीन सीधे तौर पर गायब हुए बच्चों के संबंधी हैं.
दिलचस्प बात यह है कि ये पांच लोग गांव के चंद साक्षर लोगों में से हैं. गांव वालों का कहना है कि यही कारण है कि पुलिस ने उन्हें बुलाया. उनमें से एक ने दावा किया, ‘वे कोर्ट को ये दिखाना चाहते हैं कि हमने स्वैच्छिक तरीके से पुलिस के सामने गवाही दी. वे यह नहीं चाहते कि बाद मे हम अपने बयानों से पलट जाएं.’
हालांकि यह एनकाउंटर सिर्फ 15 किलोमीटर दूर कसनसुर गांव में हुआ, लेकिन गट्टेपल्ली गांव के निवासियों को 22 अप्रैल की शाम तक इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली. जब कुछ अन्य गांववाले, जो शादी में शामिल होने के लिए कसनसुर गये थे, लौटकर आए और उन्होंने इस घटना के बारे में बताया, तब गांववाले पुलिस के पास गये थे.
उन्होंने गढ़चिरौली पुलिस के पास एक शिकायत बच्चों के लापता होने के बारे में दर्ज कराई थी. अगले पांच दिनों तक गांववालों को न तो पुलिस की तरफ से कुछ सुनने को मिला, न मीडिया की तरफ से.
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27 अप्रैल को द वायर ने इस गांव का दौरा किया. इससे पहले मीडिया से कोई भी इस गांव में नहीं गया था. बातचीत के दौरान एक गांव वाले ने संयोगवश वकील और जिला परिषद के सदस्य सोमा नागोटी के मोबाइल फोन में गायब हुए बच्चों में से एक की तस्वीर देख ली.
उसने उसकी पहचान 16 वर्षीय लापता रासू चाको मडावी के तौर पर की. आघात की स्थिति में उसने तुरंत यह खबर अन्य लोगों को बताई. यह तस्वीर उन 16 लोगों की सूची का हिस्सा थी, जो नक्सल होने के शक में पुलिस एनकाउंटर में मारे गये थे.
18 जून को, मडावी के परिवार ने यह दावा किया कि पुलिस ने उसका शव उन्हें सौंपने से इनकार कर दिया, इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने अपने बच्चे की पहचान कर ली थी.
एक तरफ जहां पुलिस पर गांव वालों से झूठे बयान दिलवाने का आरोप लग रहा है, वहीं दूसरी तरफ, अन्य तरीकों से गांव वालों को प्रलोभन देने की कोशिश भी की जा रही है. पिछले हफ्ते ही, ‘रिश्ते मजबूत करने की एक कवायद’ के तहत पुलिस वालों की तरफ से गांव में आठ साड़ियां, 20 जोड़ी चप्पलें, 15 छाते और दो बड़े एल्युमिनियम के बर्तन गांववालों को दान में दिए गये.
गांव के एक बुजुर्ग व्यक्ति ने बताया, ‘वे अचानक पहुंच गये और उन्होंने पैकेटों का वितरण करना शुरू कर दिया. हममें से कुछ लोगों ने विरोध किया, मगर उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की. गांव वालों ने इन ‘तोहफों’ को रख तो लिया है, लेकिन इनका इस्तेमाल नहीं किया है.
एक गांव वाले ने गुस्से में भरकर कहा, ‘वे पहले मारते हैं, उसके बाद तोहफे देते हैं. हम इस सामान का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं?’
कानूनी मदद का अभाव
शुरुआती मीडिया रिपोर्टों में यह दावा किया गया था कि मारे गए सभी लोग प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सदस्य थे, लेकिन जब गांव वालों ने अपनी बात रखनी शुरू की, तब पुलिस की कहानी पर सवाल उठने लगे.
इसके तुरंत बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों की एक 40 सदस्यीय टीम ने गांव का दौरा किया था और उन्होंने पुलिस के संस्करण को चुनौती दी.
मृतकों के परिवारों को कानूनी सहायता मुहैया कराने में जुटे दो लोगों में वकील सुरेंद्र गाडलिंग और भूमि अधिकार कार्यकर्ता महेश राउत हैं. इन दोनों को हाल ही में पुणे पुलिस ने कथित तौर पर नक्सली गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया है.
नागोटी ने बताया, ‘हम पुलिस के दावों के खिलाफ हाईकोर्ट जाने की योजना बना रहे थे. जिस समय गाडलिंग को गिरफ्तार किया गया, उस समय वे कानूनी रणनीतियों को अंतिम रूप देने में लगे हुए थे.’
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