बैंक में गड़बड़ी न होने की नाबार्ड की सफ़ाई से साफ़ है कि इस संस्था पर भरोसा नहीं किया जा सकता. ऐसे समय जब सरकारी संस्थाएं और मीडिया चुप हों तो जनता को आगे आना चाहिए.
नोटबंदी के दौरान पूरे देश में अहमदाबाद ज़िला सहकारी बैंक में ही सबसे अधिक पैसा जमा होता है. पांच दिनों में 750 करोड़. जितने भी कैशियर से बात की, सबने कहा कि पांच दिनों में पुराने नोटों की गिनती मुमकिन नहीं है.
नोटबंदी के दौरान किसी के पास सबूत नहीं था, मगर जब हल्ला हुआ कि ज़मीन खाते में पैसे जमा हो रहे हैं तब काफ़ी चेतावनी जारी होती थी. जांच की बात होने लगी जिसका कोई नतीजा आज तक सामने नहीं आया.
अहमदाबाद ज़िला सहकारिता बैंक मामले की भी जांच हो सकती थी. वैसे जांच में मिलना ही क्या है, लीपापोती के अलावा. फिर भी रस्म तो निभा सकते थे.
शर्मनाक और चिंता की बात है कि इस ख़बर को कई अख़बारों ने नहीं छापा. जिन्होंने छापा उन्होंने छापने के बाद हटा लिया. क्या आप इतना कमज़ोर भारत चाहते हैं और क्या आप सिर्फ अमित शाह के लिए उस भारत को कमज़ोर बना देना चाहते हैं जो इस बैंक के चेयरमैन हैं?
अगर अमित शाह के नाम से इतना ही डर लगता है तो वो जहां भी रहते हैं उसके आस-पास के इलाके को साइलेंस ज़ोन घोषित कर देना चाहिए. मतलब कि न कोई हॉर्न बजाएगा न बोलेगा.
ये तो अभी कहीं आया भी नहीं है कि वे पैसे अमित शाह के थे, फिर उनके नाम का डर कैसा. बैंक में तो कोई भी जमा कर सकता है. उसकी जांच में क्या दिक्कत?
प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकार इसे लेकर रुटीन सवाल नहीं कर पाए. इस देश में हो क्या रहा है? क्या हम दूसरों को और ख़ुद को डराने के लिए किसी नेता के पीछे मदांध हो चुके हैं? जज लोया के केस का हाल देखा. जय शाह के मामले में आपने देखा और अब अहमदाबाद ज़िला सहकारी बैंक के मामले में आप देख रहे हैं.
क्या हमने 2014 में बुझदिल भारत का चुनाव किया था? यह सब चुपचाप देखते हुए भारतीय नागरिकों की नागरिकता मिट रही है. आपकी चुप्पी आपको ही मिटा रही है. इतना भी क्या डरना कि बात बात में जांच हो जाने वाले इस देश में अमित शाह का नाम आते ही जांच की बात ज़ुबान पर नहीं आती. यही मामला किसी विरोधी दल के नेता से संबंधित होता तो दिन भर सोशल मीडिया में उत्पात मचा रहता.
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ने भी कैसी लीपापोती की है. बयान जारी किया कि कोई गड़बड़ी नहीं हुई है. एक लाख साठ हज़ार खाता धारक हैं. एक खाते में औसत 46000 से कुछ अधिक जमा हुए. क्या नाबार्ड के लोग देश को उल्लू समझते हैं? अगर किसी ने दस खाते में बीस करोड़ जमा किए तो उसका हिसाब वे सभी एक लाख साठ हज़ार खाते के औसत से देंगे या उन दस खातों की जांच के बाद देंगे?
क्या पांच दिनों में सभी एक लाख साठ हज़ार खाताधारकों ने अपने पुराने नोट जमा कर दिए? कमाल है, तब तो पांच दिनों में सौ फ़ीसदी खाताधारकों के पुराने नोट जमा करने वाला अहमदाबाद ज़िला सहकारिता बैंक भारत का एकमात्र बैंक होगा. क्या ऐसा ही हुआ? अगर नहीं हुआ तो नाबार्ड ने किस आधार पर यह हिसाब दिया कि 750 करोड़ कोई बड़ी रक़म नहीं है.
क्या एक लाख साठ हज़ार खाताधारकों में 750 करोड़ का समान वितरण इसलिए किया ताकि राशि छोटी लगे? नाबार्ड को अब यह भी बताना चाहिए कि कितने खाताधारक अपने पैसे नहीं लौटा सके ? कितने खातों में पैसे लौटे?
नाबार्ड की सफ़ाई से साफ़ है कि इस संस्था पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. इसलिए इस मामले की जनसमीक्षा होनी चाहिए. जब सरकारी संस्था और मीडिया डर जाए तब लोक को ही तंत्र बचाने के लिए आगे आना होगा. नोटबंदी का कदम एक राष्ट्रीय अपराध था. भारत की आर्थिक संप्रभुता पर भीतर से किया गया हमला था. इसलिए इसकी सच्चाई पर इतना पर्दा डाला जाता है.
(यह लेख मूलतः रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.)