जन्मदिन पर विशेष: वीपी सिंह कहा करते थे कि सामाजिक परिवर्तन की जो मशाल उन्होंने जलाई है और उसके उजाले में जो आंधी उठी है, उसका तार्किक परिणति तक पहुंचना अभी शेष है. अभी तो सेमीफ़ाइनल भर हुआ है और हो सकता है कि फ़ाइनल मेरे बाद हो. लेकिन अब कोई भी शक्ति उसका रास्ता नहीं रोक पाएगी.
आठवें प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को हमारे बीच से गए दस साल हो चले हैं, पर लगता है कि इस देश को अभी भी यह फैसला करना बाकी है कि वह उन्हें याद करे तो किस रूप में और भुलाना चाहे तो मंडल व कमंडल के उस हड़बोंग के पार कैसे जाये, जो उनके वक्त में अपने चरम पर पहुंचकर भी खत्म नहीं हुआ और उसके दिए नासूर आज भी गाहे-ब-गाहे हमारी आहों और कराहों के कारण बनते रहते हैं!
इसके दो कारण हैं: पहला यह कि विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसी शख्सियतों से उनके देशों का हिसाब-किताब जल्दी निपटता नहीं है और दूसरा यह कि देश की राजनीतिक दुनिया में उनकी उपस्थिति उनके समय में ही इतनी विवादास्पद हो चली थी कि उनकी अनुपस्थिति में भी उन्हें किसी खांचे में फिट करके अपनी सुविधाओं के लिहाज से अनुकूलित करना किसी के लिए भी संभव नहीं हो रहा!
वे देश के इकलौते ऐसे नेता थे जिसने लोकप्रियता के घोड़े की सवारी में चढ़ाव व उतार दोनों का लगभग एक जैसा मजा लिया! कभी लोगों ने खुश होकर उनको ‘राजा नहीं, फकीर’ कहा तो कभी बात उन्हें ‘रंक’ और ‘देश का कलंक’ बताने की हद तक जा पहुंची.
फिर भी उनके निकट संतोष की बात यह थी कि यह विवादास्पदता कभी भी उनके कद को तराशकर छोटा नहीं कर पाई. तब भी नहीं, जब उन्होंने कहा था-तुम मुझे क्या खरीदोगे/मैं बिल्कुल मुफ्त हूं और तब भी नहीं जब उन्होंने ऐलान किया था-मुफलिस से/अब चोर बन रहा हूं मैं/पर/इस भरे बाजार से/चुराऊं क्या/यहां तो वही चीजें सजी हैं/जिन्हें लुटाकर/मैं मुफलिस हुआ हूं.
वैसे भी ओशो ने गलत नहीं कहा था कि मानव चेतना का अब तक का सारा विकास विवादास्पद व्यक्तियों ने ही किया है. सुकरात, ईसा, बुद्ध और महावीर समेत दुनिया में कोई भी ऐसा प्रज्ञावान व्यक्ति नहीं हुआ, जो विवादास्पद न रहा हो.
बहरहाल, अनेक लोगों को आज भी याद है बोफोर्स तोपों के बहुचर्चित सौदे में दलाली यानी भ्रष्टाचार के मामले को लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने, अपने ‘राजा नहीं, फकीर’ वाले दिनों में कैसे नैतिकता के एक से बढकर एक ऊंचे और नये मानदंड गढ़े!
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ अपने अभियान को कांग्रेसविरोधी दक्षिण व वामपंक्षी दलों की असंभव एकता तक ले जाकर वे प्रधानमंत्री बने तो देशवासियों के नाम पहले संदेश में कहा था-आज मैं जन्नत लाने का वादा तो नहीं कर सकता, लेकिन आश्वस्त करता हूं कि हमारे पास एक भी रोटी होगी तो उसमें सारे देशवासियों का न्यायोचित हक सुनिश्चित किया जायेगा और विकास के लाभों का न्यायोचित वितरण होगा.
कई लोग भारत की राजनीति में सामाजिक न्याय के कई नए मुहावरे गढ़ने का श्रेय भी उन्हीं को देते हैं. लेकिन न्यायोचित वितरण यानी समता के रास्ते से सामाजिक न्याय के अपने इस सपने को वे मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने तक ले गए तो जैसे कहर-सा बरपा हो गया.
आरोप लगाये जाने लगे कि उनको नायक बनाने वाले सत्तारूढ़ जनतादल में आंतरिक संघर्ष छिड़ा और ‘ताऊ’ यानी देवीलाल के बेहद मुखर विरोधीस्वर को दबाने के लिए आवश्यक हुआ तो उन्होंने इस आयोग के जिन्न को जानबूझकर बोतल से बाहर निकाला.
इससे क्षुब्ध नवयुवकों के एक वर्ग के आत्मदाह जैसे कदमों तक जा पहुंचने के बाद उनकी समर्थक भारतीय जनता पार्टी ने कमंडल यानी राममंदिर के मुद्दे को आगे कर ऐसी उथल-पुथल मचाई कि बोफोर्स का मुद्दा कहीं पीछे छूट गया.
फिर तो सांप्रदायिकता व धर्मनिरपेक्षता की फ्रीस्टाइल कुश्ती में उनकी सरकार पर ऐसी आ बनी कि उनका प्रधानमंत्रित्व अपनी वर्षगांठ तक नहीं मना सका.
लेकिन उस दौरान जिस एक चीज ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को विश्वनाथ प्रताप सिंह बनाया, वह था उनका यह दो टूक बयान कि भले ही गोल करने में मेरी टांग टूट गई, लेकिन गोल तो होकर ही रहा. हां, एक बार कदम आगे बढ़ा देने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर देखना गवारा नहीं किया-न ही मंडल आयोग की सिफारिशों के बारे में और न ही अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद के संदर्भ में.
अयोध्या में कई लोग आज भी कहते हैं कि रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद में उनकी सरकार द्वारा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण की पहल को साजिशन विवादास्पद बनाकर विफल न कर दिया गया होता तो कौन जाने आज विवाद का पटाक्षेप हो चुका होता.
ऐसा नहीं हो पाया तो सिर्फ इसलिए कि कुछ लोगों को इस विवाद को सीढी बनाकर सत्ता तक पहुंचना था. जैसा कि ऊपर कह आये हैं, उनके राजनीतिक व्यक्तित्व के प्रति मध्यवर्ग का सम्मोहन उनके सत्ता में रहते ही टूट चुका था.
कभी उनकी ईमानदारी के पीछे पागल रहने वाले इस वर्ग को बाद वे फूटी आंखों भी नहीं सुहाते थे. इस ‘बदलाव’ को कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि मध्यवर्ग के सम्मोहन वाले दिनों में वे बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को लात मार आये तो इस वर्ग में एक क्षणिका बहुत लोकप्रिय थी-ईमानदारी का स्वाद कैसा अनुभव करते हैं आप? इसे तो बता सकते हैं केवल विश्वनाथ प्रताप!
लेकिन बाद में ‘राजा नहीं, रंक’ वाले दिनों में इसका स्थान अखबारों में छपने वाली इस तरह की हेडिंगों ने ले लिया-आंधी से उभरा एक नाम जो गर्द में समा गया!
चूंकि वे ‘देश का कलंक’ बन गये थे, इसलिए उनके प्रति घोर अनादर जताने वाली शाब्दिक ‘प्रतिहिंसा’ उनके इस संसार को छोड़ जाने के बाद भी अरसे तक जारी रही. कई महानुभावों द्वारा उन्हें बेहद महत्वाकांक्षी व कुटिल राजनेता तक बताया जाता रहा!
इस अंदाज में कि जैसे महत्वाकांक्षी होना भी कुटिल होना ही हो! उनके जनतादल को लोकसभा के अगले मध्यावधि चुनाव में मध्यवर्ग को नाराज करने वाली उनकी नीतियों का भारी कुफल भोगना पड़ा था, जिनमें बड़ा हिस्सा मंडल आयोग की सिफारिशों से उपजे उद्वेलनों का था.
पर इससे अविचलित विश्वनाथ प्रताप सिंह कहा करते थे कि सामाजिक परिवर्तन की जो मशाल उन्होंने जलाई है और उसके उजाले में जो आंधी उठी है, उसका तार्किक परिणति तक पहुंचना अभी शेष है. अभी तो सेमीफाइनल भर हुआ है और हो सकता है कि फाइनल मेरे बाद हो. लेकिन अब कोई भी शक्ति उसका रास्ता नहीं रोक पायेगी.
आज, उनसे सहमत या असहमत, कौन कह सकता है कि वे गलत थे? ऐसा तो वे भी नहीं कहते, जो उनके बोये सामाजिक न्याय की भरपूर राजनीतिक फसल काटते हुए भी उनके प्रति कृतघ्न बने रहे और जिनकी कर्तव्यहीनता व कृतघ्नता ने अंततः सामाजिक न्याय के पवित्र संघर्ष को उसके विरोधियों की सांप्रदायिक भेड़चालों के समक्ष नतशिर करके ही दम लिया.
एक और खास बात यह कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के राजनेता के भीतर एक संवेदनशील कवि और चित्रकार भी पाये जाते थे. यह और बात है कि राजनेता के भार से दबे रहने के कारण उनका ठीक से मूल्यांकन नहीं हो पाया और शायद आगे हो भी नहीं.
आज जब वे नहीं हैं और अमेरिकी वर्चस्व को नई धार देने वाली भूमंडलीकरण की दुर्नीतियों से आक्रांत हमारी सारी की सारी राजनीति मध्य या कि उच्च मध्यवर्ग की चेरी बनकर दलितों, वंचितों व गरीबों के प्रति अति की हद तक संवेदनहीन हो चली है, उनके जैसे ऐसे नेता का अभाव बेहद खलता है, जो मध्यवर्ग की नाराजगी की परवाह किए बिना सरकारों को गरीबविरोधी नीतियों व कदमों से विरत रखे.
अपने अंतिम दिनों में एक कार्यक्रम में वे फैजाबाद आये तो इन पंक्तियों के लेखक के साथ एक अनौपचारिक भेंट में कहा था कि देश की समस्याओं के हल केवल इसलिए गुम हुए जा रहे हैं कि दृढ़संकल्पहीन नेताओं को समाधान खोजने के बजाय उनके इस्तेमाल से सत्ता में बने रहने में मजा आने लगा है.
नेताओं के आत्मसमर्पण के कारण ही अंतरराष्ट्रीय पूंजी कदम-कदम पर हमारे राष्ट्र-राज्य व उसकी सत्ता का अतिक्रमण कर रही है और भूमंडलीकरण एकतरफा होकर हम पर गाज गिरा रहा है.
उन्होंने पूछा था कि भूमंडलीकरण को अपरिहार्य बताने वाले ये नेता उपयुक्त मंचों पर उसे न्यायोचित बनाने की मांग क्यों नहीं उठाते? क्यों नहीं पूंजी के वर्चस्व के इच्छुक देशों से कहते कि पूंजी के भूमंडलीकरण को हम तभी स्वीकार करेंगे जब सेवाओं व श्रम का भी भूूमंडलीकरण किया जाये.
जैसे उनकी पूंजी हमारे देश में सस्ते श्रम की बेरोकटोक शिकारी हो गई है, वैसे ही हमारे कामगाार उनके देशों में जाकर अपने श्रम का ठीक-ठाक मोल पाने लगें तो भूमंडलीकरण हमारा क्या बिगाड़ लेगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)