जॉर्ज ऑरवेल को पता था कि आने वाला वक़्त ‘बिग ब्रदर’ का है

जन्मतिथि पर विशेष: जॉर्ज ऑरवेल ने 1948 में एक किताब लिखी जिसका शीर्षक था- 1984. इसमें समय से आगे एक समय की कल्पना की गई है, जिसमें राज सत्ता अपने नागरिकों पर नज़र रखती है और उन्हें बुनियादी आज़ादी देने के पक्ष में भी नहीं है.

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जन्मतिथि पर विशेष: जॉर्ज ऑरवेल ने 1948 में एक किताब लिखी जिसका शीर्षक था- 1984. इसमें समय से आगे एक समय की कल्पना की गई है, जिसमें राज सत्ता अपने नागरिकों पर नज़र रखती है और उन्हें बुनियादी आज़ादी देने के पक्ष में भी नहीं है.

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जॉर्ज आॅरवेल (फोटो साभार: विकीपीडिया)

राजनीति और साहित्य के बीच रिश्ते को लेकर साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों में एक असहजता का भाव हमेशा मौजूद रहा है. ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि साहित्य की रचना का आधार वही समाज है जिस समाज का एक अनिवार्य हिस्सा राजनीति भी है. इस नाते साहित्य और राजनीति का एक-दूसरे से अछूता रहना तो कतई संभव नहीं दिखता.

सोवियत रूस और दुनिया भर में उपनिवेशवाद के खिलाफ चले आंदोलनों के दौर में इस दूरी को पाटने की भरसक कोशिश की गई थी. इसका असर ना सिर्फ सोवियत रूस में बल्कि दुनिया के तमाम भाषाओं के रचना संसार पर भी दिखा. यही वजह थी कि उस दौर में हमें राजनीति को केंद्र पर रखकर रची गई कई कालजयी साहित्यिक रचनाएं मिलीं.

इसी दौर में ब्रितानी लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने एनिमल फार्म और 1984 जैसे बेहद महत्वपूर्ण राजनीतिक उपन्यास लिखे. वो राजनीति को केंद्र में रखकर साहित्य रचने वाले दुनिया के कुछ गिने-चुने लेखकों में से एक थे. वो पॉलिटिकल नॉवेल लिखकर भी बेहद लोकप्रिय हुए.

टाइम मैगजीन ने साल 2014 में 1945 के बाद के 50 सबसे महत्वपूर्ण ब्रितानी लेखकों की सूची तैयार की थी जिसमें जॉर्ज ऑरवेल को दूसरे स्थान पर रखा गया था. इस सूची में ‘ए गर्ल इन द विंटर’ के लेखक फिलिप लैरकीन को पहले और भारतीय मूल के लेखक वीएस नायपॉल को सातवें स्थान पर रखा गया था.

लेखक बनने से पहले जॉर्ज ऑरवेल ने ब्रितानी सरकार के लिए बर्मा में पुलिसकर्मी का भी काम किया था. उसी वक्त के अनुभव को उन्होंने अपनी किताब ‘बर्मीज डेज’ में लिखा है. स्पेन के गृहयुद्ध में भी वो लड़े थे. इस गृहयुद्ध से मिले अनुभवों को उन्होंने ‘होमेज टू कैटेलोनिया’ में पिरोया है. उन्होंने अपने जीवन काल में पत्रकारिता भी की थी. जॉर्ज ऑरवेल का असल नाम एरिक ऑर्थर ब्लेयर था लेकिन जब उन्होंने लिखना शुरू किया तब जॉर्ज ऑरवेल नाम का इस्तेमाल उन्होंने खुद के लिए करना शुरू किया.

जॉर्ज ऑरवेल ब्रितानी लेखक थे लेकिन उनका जन्म भारत में 25 जून 1903 में हुआ था. ब्रितानी पत्रकार इयान जैक ने 1983 में पहली बार जॉर्ज ऑरवेल के जन्म स्थान का पता लगाया था जो कि बिहार के पूर्वी चंपारण के मोतिहारी शहर में है.

जॉर्ज ऑरवेल जब सिर्फ एक साल के थे तो यहां से अपनी मां के साथ ब्रिटेन चले गए थे. उनके पिता मोतिहारी के अफीम महकमे में एक अंग्रेज अफसर थे. पिछले कुछ सालों में भारतीय मीडिया में इसे लेकर कई खबरें भी छपी हैं कि कैसे मोतिहारी शहर अंग्रेजी साहित्य के इतने बड़े साहित्यकार का जन्म स्थान वहां होने की बात से अंजान है.

कुछ साल पहले बिहार की नीतीश सरकार ने उपेक्षित पड़े उनके टूटे घर को म्यूजियम बनाने का ऐलान भी किया था. पत्रकार और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर विश्वजीत मुखर्जी ने मोतिहारी और जॉर्ज ऑरवेल के ऊपर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई है.

उनका कहना है कि जॉर्ज ऑरवेल के बारे में पहले तो मोतिहारी के लोगों को पता ही नहीं था. अब धीरे-धीरे लोग जानने लगे हैं. लेकिन अब दूसरी समस्या खड़ी हो गई है लोग जॉर्ज ऑरवेल को एक महान लेखक की बजाए सिर्फ एक अंग्रेज के तौर पर देखने लगे हैं.

विश्वजीत मुखर्जी बताते हैं कि स्थानीय लोग चूंकि चंपारण की धरती को महात्मा गांधी के सत्याग्रह की धरती के तौर पर देखते हैं इसलिए उन्हें एक अंग्रेज के नाम पर मोतिहारी का सम्मान होना नागवार गुजर रहा है.

लगता है कहीं न कहीं अब राष्ट्रवाद की नई परिभाषा में जॉर्ज ऑरवेल भी निशाने पर आ गए हैं. इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि उन्हें महात्मा गांधी के मुकाबले खड़ा कर दिया गया है जबकि इतिहास में इन दोनों ही शख्सियतों की सबसे बड़ी विशेषता ही यही रही थी कि ये दोनों ही किसी भी तरह के अधिनायकवाद और हर कीमत पर उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा थे.

विडंबना देखिए कि यह काम वहां किया जा रहा है जो महात्मा गांधी की कर्मभूमि रही है तो जॉर्ज ऑरवेल की जन्मभूमि.

कहीं यही वजह तो नहीं इसकी, कि मोतिहारी स्थित ‘ऑरवेल हाउस’ को म्यूजियम बनाने की नीतीश सरकार की घोषणा सिर्फ घोषणा ही बन कर रह गई है अब तक.

वहीं पिछले साल जब चंपारण सत्याग्रह के सौवां साल मनाया जा रहा था तब ठीक ‘ऑरवेल हाउस’ के बगल में ही एक भव्य सत्याग्रह शताब्दी पार्क का निर्माण किया गया है.

लीसेस्टर के डी मोंटफोर्ट यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर पीटर डेविसन ने जॉर्ज ऑरवेल की जिंदगी और उनके रचना संसार को काफी करीब से देखा है. उन्होंने ‘जॉर्ज ऑरवेल: ए लाइफ इन लेटर्स एंड डायरीज’ नाम से एक किताब का संपादन किया है. इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल के लिखे खत और डायरी नोट्स के जरिए उनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश की गई है.

इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल के द टाइम के संपादक को लिखे एक खत का जिक्र किया गया है. इस खत में ऑरवेल ने ब्रिटिश सरकार को बदले की भावना से जर्मन कैदियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार के लिए लताड़ते हुए लिखा है, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर कोई पिछले दस सालों के इतिहास पर नजर डालेगा तो उसे लोकतंत्र और फासीवाद में एक गहरा नैतिक फर्क दिखेगा. लेकिन अगर हम आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत के सिद्धांत पर चलते हैं तो इस फर्क को भूला दिया जाएगा.’

इस खत को द टाइम के संपादक ने नहीं छापा था लेकिन ऑरवेल के ये विचार महात्मा गांधी के उन विचारों के करीब दिखता है जब वो कहते हैं कि आंख के बदले आंख की भावना एक दिन सारे संसार को अंधा बना देगी.

लेकिन गांधी और ऑरवेल के विचारों में साम्य होने से कथित राष्ट्रवादियों का क्या लेना-देना. उन्हें तो शायद वही दुनिया रास आती है जहां बदले की भावना ही राजधर्म हो.

इसी किताब में इस बात का भी जिक्र है कि जॉर्ज ऑरवेल को अपने कालजयी उपन्यास एनिमल फार्म को छपवाने में कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी. यह किताब 1945 में आई थी. इस किताब में उन्होंने स्टालिनवाद पर तंज कसा है. इस किताब में उन्होंने सुअरों के राज वाले एक देश की बात की है. ये सुअर इंसानों से नफरत करते हैं. बाद में सुअर और इंसान दोनों को एक होते हुए दिखाया गया है.

इस उपन्यास का अंत उन्होंने कुछ यूं किया है, ‘कई आवाजें गुस्से में चिल्ला रही थीं और सभी आवाजें एक सी लग रही थीं. कोई सवाल नहीं कर रहा था कि सूअरों के चेहरों को अब क्या हो गया था. फार्म हाउस के बाहर खड़े प्राणी कभी सूअर को देखते, कभी इंसानों को, फिर इंसानों से लगने वाले सूअर को, लेकिन अब यह कहना असंभव हो चुका था कि कौन सा चेहरा किसका है.’

जॉर्ज ऑरवेल अपने दौर के उन चुनिंदा लोगों में से थे जो फासीवाद, नाजीवाद और स्टालिनवाद की समान रूप से आलोचना करते थे और दोनों को ही मानवता का संकट मानते थे. वो किसी भी तरह के अधिनायकत्व के खिलाफ थे.

उनकी दूसरी महत्वपूर्ण किताब 1984 है. यह किताब उन्होंने लिखी थी 1948 में लेकिन इसका शीर्षक उन्होंने रखा था-1984. क्योंकि वो इसमें अपने समय से आगे जाकर एक समय की कल्पना करते हैं जिसमें राज सत्ता अपने नागरिकों पर नजर रखती है और उन्हें बुनियादी आजादी देने के पक्ष में भी नहीं है.

वो सत्ता के खिलाफ सवाल उठाने वाली आवाज को हमेशा के लिए खामोश कर देना चाहता है. वो विद्रोहियों का नामोनिशान मिटा देना चाहता है. वो इस किताब में तकनीक से घिरे उस दुनिया की बात करते हैं जहां आदमी के निजता के कोई मायने नहीं है.

जहां निजता मानवाधिकार ना रहकर सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोगों का ही विशेषाधिकार हो चुका है. ऑरवेल अपनी इस किताब में ‘बिग ब्रदर इज वाचिंग यू’ जैसी अवधारणाओं की बात करते हैं जो आज वाकई में तकनीक और गैजेट से घिरी हुई इस दुनिया में अस्तित्व में है.

इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल की कल्पना शक्ति अद्भुत है. ऐसा लगता है कि कोई 1948 में बैठकर इस वक्त की भविष्यवाणी लिख गया हो. 21 जनवरी 1950 को अपनी मृत्यु से पहले सिर्फ 47 साल की जिंदगी में जॉर्ज ऑरवेल ने अपने वक्त के साथ-साथ अपने आगे के वक्त को भी बखूबी देख लिया था. इसलिए वो इस दौर में और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं. समाज और व्यवस्था पर दूरदर्शी नजर रखने वाला साहित्यकार शायद इसे ही कहते हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)