देश में मैला ढोने वाले सफाई कर्मचारियों की स्थिति पर सफाई कर्मचारी आंदोलन के समन्वयक मैगसेसे पुरस्कार विजेता बेज़वाड़ा विल्सन का नज़रिया.
मैला ढोने की प्रथा ख़त्म करने को लेकर देश में एक व्यापक सहमति है लेकिन दो राष्ट्रीय कानून तथा कई अदालत के निर्देश होने के बावजूद ज़मीन पर कोई भी परिवर्तन नहीं आया है. मैला ढोने और सीवर श्रमिकों के पुनर्वास और क्षतिपूर्ति की नीतियां भी अधिक सफ़ल नहीं हुई हैं. इस संबंध में पहला कानून 1993 में पारित हुआ जिसमें केवल सूखे शौचालयों में काम करने को समाप्त किया गया था और फिर 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून आया जिसमें सेप्टिक टैंकों की सफाई और रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया.
इन श्रमिकों के पुनर्वास के लिए स्व-रोजगार योजना के पहले के वर्षों में 100 करोड़ रुपये के आसपास आवंटित किया गया था, जबकि 2014-15 और 2015-16 में इस योजना पर कोई भी व्यय नहीं हुआ. हाल में आई इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, एक अंतर-मंत्रालयी कार्य बल द्वारा देश में मौजूद मैनुअल स्कैवेंजर (मैला ढोने वाले) की संख्या जारी की गई है. उनके मुताबिक देश के 12 राज्यों में 53,236 लोग मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं.
यह आंकड़ा साल 2017 में दर्ज पिछले आधिकारिक रिकॉर्ड का चार गुना है. उस समय यह संख्या 13,000 बताई गई थी. हालांकि यह पूरे देश में काम कर रहे मैनुअल स्कैवेंजर का असली आंकड़ा नहीं है क्योंकि इसमें देश के 600 से अधिक जिलों में से केवल 121 जिलों का आंकड़ा शामिल है. राष्ट्रीय राजधानी में सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान सफाई कर्मचारियों की मौत की घटनाओं की पृष्ठभूमि में सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) ने पिछले साल अगस्त में जारी अपने एक अध्ययन में कहा है कि बीते पांच वर्षों में सफाई करते हुए 1470 सफाईकर्मियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है.
एसकेए के अनुसार इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच पूरे देश में 54 सफाईकर्मियों की मौत हुई. एसकेए ने कहा कि सिर्फ दिल्ली में पांच वर्षों के भीतर 74 सफाईकर्मियों की मौत सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान हुई है. मैला ढोने वाले श्रमिकों को सालों से यह काम करना पड़ रहा है क्या इसकी वजह सिर्फ़ जातीय भेदभाव है या इस काम के वजह से जातीय भेदभाव पैदा भी होता है या फिर दो वर्गों का अंतर भी इसका कारण है.
स्वच्छ भारत अभियान की बात करने वाले लोग इस समस्या पर ज़्यादा से ज़्यादा सेफ्टी किट, दस्ताने और मास्क उपलब्ध कराने की बात करते हैं. इस समस्या के असल समाधान की तरफ़ कोई भी बढ़ता हुआ नहीं दिखता.सफाई के लिए मशीनों के इस्तेमाल पर सालों से बहस चल रही है पर ज़मीन पर अधिक बदलाव नहीं दिखाई देता इन सारे विषयों पर सफाई कर्मचारी आंदोलन के समन्वयक और मैगसेसे पुरस्कार विजेता बेज़वाड़ा विल्सन का नज़रिया.
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मैला ढोने की प्रथा को अगर विस्तार से समझने की कोशिश करें तो देखेंगे कि सूखे शौचालय अभी भी देश के कई राज्यों में मौजूद हैं. इन राज्यों में जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात भी शामिल हैं. अभी भी लगभग 1,60,000 महिलाएं हर दिन मैला ढोने का काम कर रही हैं.
इस संदर्भ में क़ानून होते हुए भी आज के दिन भी निजी और सार्वजनिक सूखे शौचालय दोनों मौजूद हैं. इस बारे में सरकार और अधिकारी- दोनों को ही जानकारी है फिर भी ये अपराध हर जगह होता है.
यहां तक कि सरकार द्वारा कराए गए सर्वे में कई लोगों का जान-बूझकर नाम नहीं चढ़ाया जाता. अगर बात सेप्टिक टैंक की करें तो सेप्टिक टैंक देश में हर जगह हैं. जब ये सेप्टिक टैंक भर जाते हैं तो सफाई कर्मचारियों को इसे ख़ाली कर साफ करना होता है. सवाल ये है कि आख़िर इसके लिए अभी तक कोई व्यवस्था या कोई तकनीक क्यों नहीं है.
अगर सफाई की मशीन हो भी तो एक नगरपालिका के पास एक ही होगी या कहीं पर चार हो. लेकिन बड़े स्तर पर इसका कैसे फायदा होगा यह देखने की ज़रूरत है. ये मशीनें इतनी कम है कि मज़दूर को सीवर में उतरना ही होता है.
ऐसा कोई शहर नहीं है जो पूरी तरह से सीवर लाइन से जुड़ा हो. इसमें दिल्ली भी शामिल है. दिल्ली को लेकर सीवर लाइन का आंकड़ा 70% बताया जाता है पर असल में इतना भी नहीं है.
हमारे देश में सैनिटेशन को लेकर समझ बहुत कम है. बहुत से लोग सारी गंदगी, कागज, प्लास्टिक सेप्टिक टैंक में डालते हैं और जब ब्लॉक हो जाता है तो किसी न किसी को अंदर जाना पड़ता है. हमारे पास बारिश के पानी और तूफान के बाद इकट्ठा जल को निकालने की अलग-अलग व्यवस्था नहीं है, इसलिए बारिश के समय अलग परेशानी खड़ी हो जाती है.
सरकार अक्सर यह कहकर पल्ला झाड़ लेती है कि मज़दूर को हमने नहीं, ठेकेदार ने सीवर में उतारा पर जब क़ानून ठेके पर देने को ही अपराध मानता है तो यह कैसे संभव होता है.
आप किसी को अंदर भेजते हो और उसकी मौत हो जाती है. जान जाने के बाद भुगतान देने की बात होती है. एक तरह की संस्कृति बनती जा रही है कि आप ताकतवर हो तो कुछ भी झूठ बोल सकते हो और कोई कुछ नहीं बोलेगा.
जब कोई अधिकारी कहता है कि मैला ढोने वाला कोई नहीं है तो वह यह नहीं सोचता कि उस श्रमिक को सरकार की योजनाओं के तहत मिलने वाले सारे फायदे रुक जाएंगे. इन सब के पीछे एक जाति आधारित मानसिकता है.
अगर कोई दलित सफाई कर्मचारी महिला है और वह मैला ढोने का काम कर रही है तो हम कभी भी ग़लत नहीं सोचते. जिस जातीय सोच के कारण दिमाग स्वच्छ नहीं है, पहले उसे स्वच्छ करना होगा. जब तक दिमाग से जातिवाद का सफाया नहीं होता तब तक स्वच्छ भारत की बात करना भी असंभव है.
इतने बड़े देश, इतने विकासशील देश में आख़िर क्यों एक इंसान को दूसरे का मैला ढोना पड़ता है. इस बारे में आगे सोचने से जाति ही रोकती है. हमें लगता है जिसका जो काम है वो कर रहा है तो इसमें गलत क्या है.
सफाई कर्मचारी आंदोलन के अगस्त 2017 के अध्ययन के मुताबिक मैला ढोने वाले श्रमिकों की पांच सालों में 1,470 मौतें हुई है. इस अवधि में सिर्फ दिल्ली में 74 सफाइकर्मियों की मौतें हुईं. इसके पीछे सरकार की इच्छाशक्ति ज़िम्मेदार है. इसके अलावा अगर किसी भी श्रमिक की मौत होती है तो कोई भी न्यायाधीश स्वतः संज्ञान नहीं लेता.
बाबा साहब आंबेडकर ने बहुत पहले कह दिया था कि भारत में लोगों की चेतना जाति पर आधारित है. मानसिकता में जातिवाद के कारण उनकी चेतना ख़राब हो चुकी है. हमारे लिए भाईचारे का मतलब सिर्फ जाति के ही भीतर ही है न कि पूरे देश में.
आंबेडकर ने कहा था देश और समाज का हित मतलब मेरी जाति का हित है. इस देश में लोगों की पहचान उनकी जाति से ही शुरू होती है.
हमने संसद में 16 बार ज्ञापन दिया. हमने न ही कभी पैसा मांगा न ही कभी कोई पुनर्वास पैकेज मांगा. हमने वही मांगा जो कानून के अनुरूप है. कोर्ट में कभी भी किसी न्यायाधीश ने संज्ञान नहीं लिया क्योंकि किसी जज की सफाई कर्मचारियों के प्रति संवेदना ही नहीं होती. इसका जवाब तो आंबेडकर दे ही चुके हैं कि संवेदनाएं तो जाति आधारित होती हैं.
जब तक जाति आधारित नज़रिये से देखना बंद नहीं किया जाएगा आप कुछ कर ही नहीं पाएंगे, चाहे आप कितने भी ताकतवर हों. इतनी बार इस तरह के मामले कोर्ट में आए लेकिन कभी एक दिन की भी जेल की सज़ा नहीं सुनाई गई. क्या हमारे न्यायधीश इतने कमज़ोर हैं?
आख़िर हम कब तक कोर्ट में ख़ुद को साबित करते रहेंगे. हमें समझना होगा कि इस देश में ‘जाति आधारित धर्म’ है. आंबेडकर की लड़ाई भी जाति के ख़िलाफ़ तक सीमित नहीं है बल्कि उनकी लड़ाई समानता के लिए है. वह कभी भी फ्री सब्सिडी की मांग नहीं करते बल्कि समता, ममता और मानवता की बातें करते हैं.
अगर जज भी इस तरह से देखें तो 24 घंटे में मैला ढोने की प्रथा बंद हो जाएगी. इस विषय पर जब भी संसद में चर्चा हुई तब सांसदों ने यह कहा कि इस तरह की प्रथा देश के लिए शर्मनाक है लेकिन यह सब कब ख़त्म होगा, इस पर कुछ नहीं बताया जाता. अगर आप मानते हैं यह शर्मनाक है तो एक आज़ाद देश में यह शर्मनाक बात आगे क्यों चलती जा रही है.
इतने सारे लोकसभा और राज्यसभा के सांसद हैं अगर चाहें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कह सकते हैं कि अब संसद तभी चलेगी जब मैला ढोने की प्रथा खत्म होगी. प्रधानमंत्री को भी ख़ुद आकर इस मुद्दे पर देश से माफ़ी मांगनी चाहिए पर प्रधानमंत्री आगे आकर अपनी बड़ाई करते हैं और ख़ुद को स्वच्छ बताते हैं.
इस देश में राजनीतिक इच्छाशक्ति बहुत कमज़ोर है इसका असर हर जगह देखा जा सकता है.
महिला सफाई कर्मचारी काम छोड़ दे तो सालों साल तक उसका पुनर्वास नहीं होता. सरकार की ओर से पुनर्वास के लिए पैसे नहीं देती लेकिन शौचालय बनाने के लिए उसके पास पैसे हैं.
आम नागरिक इस विषय पर नहीं सोचते हैं न ही सवाल करते हैं. मैं इस बारे में बात करता हूं तो सोचते हैं कि मैं इस तरह के परिवार से आता हूं या मेरी पृष्ठभूमि ऐसी रही है तो इस बारे में मैं बात करता हूं. पर ऐसा नहीं है.
इस मुद्दे को छोड़कर मैं और भी बहुत सारे विषयों पर बात करता रहा हूं. पहले भी मैं जेंडर और पितृसत्ता पर अपनी बातें रखता रहा हूं. ऐसा लगता है जाति के आधार पर विषयों को बांट दिया गया है.
हमने सफाई कर्मचारी आंदोलन का कभी पंजीकरण नहीं कराया यह आंदोलन इतनी बड़ी समस्या के जवाब में खड़ा है.
देश में मैला ढोने की प्रथा खत्म करने से जुड़ा पहला कानून 1993 आया था, इसके बाद 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून बना, जिसके मुताबिक नाले-नालियों और सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए रोज़गार या ऐसे कामों के लिए लोगों की सेवाएं लेने पर प्रतिबंध है.
यह काम जाति आधारित है इसके पीछे का कारण छुआछूत है. दलित जाति में भी जो लोग ये काम नहीं करते वो इन श्रमिकों से दूरी बनाते हैं. पर सवाल यह है कि इस समस्या के लिए सरकार क्या करती है.
पहले इन लोगों को सीवर और सेप्टिक टैंक में जाने देती है फिर जब इन लोगों की मौत हो जाए तो कुछ रुपये का मुआवज़ा देने की बात करती है. सुप्रीम कोर्ट ने जब पहले से 10 लाख मुआवज़ा देने की बात कर रखी है तो मंत्री को आगे आकर घोषणा करने की क्या ज़रूरत है.
आप आज इस समस्या का समाधान सेफ्टी किट देकर करने की सोचते हो. लेकिन अभी तक वैज्ञानिकों और सरकारों ने कोई तकनीक क्यों नहीं निकाली जिससे इस काम को किसी इंसान को न करना पड़े.
सफाई वाली मशीन का आना एक बड़ा समाधान होगा लेकिन जाति आधारित मानसिकता के कारण जो लोग आज मशीन से भी यह काम करते हैं उन्हें भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
लोग आज भी पैसे उनके हाथ में देने की बजाय ज़मीन पर रखकर जाते हैं. हमें इस समस्या के पूरे समाधान के लिए जाति का सफ़ाया अपने दिमाग से करना होगा.
इस देश में जब तकनीक का कमी नहीं है, पैसे का कमी नहीं है तो सफाई कर्मचारी क्यों मर रहे हैं. इसकी जवाबदेही सरकार और हमारी नौकरशाही पर बनती है. आईएएस अफसर भी इस समस्या से ख़ुद को दूर ही रखना पसंद करते हैं.
इस देश में सीवेज व्यवस्था बनाने के लिए कितना पैसा लगेगा? इस बात का जवाब ढूंढने के लिए तो योजना बनानी होगी. लेकिन कोई कोशिश नहीं की जाती है.
सरकार के पास इसके लिए कोई योजना नहीं है. सरकार स्मार्ट सिटी बनने की बात करती है लेकिन स्मार्ट सैनिटेशन की बात नहीं करती. इनकी स्मार्ट सिटी में सीवर गटर का पानी ऊपर आएगा तो क्या वह स्मार्ट सिटी बन पाएगा.
ये समस्या गरीबी के कारण नहीं है. ताज वेदांता में जिस तरह से लिफ्ट इतने ऊंचे माले तक जा सकती है, उसी तकनीक से लिफ़्ट नीचे जाकर गंदगी भी साफ कर सकती है. लेकिन ये लोग किसी श्रमिक को सीवर में उतारकर उसकी ‘हत्या’ करते हैं. ताज वेदांता का मालिक हो या ये सरकार हो ये हत्यारों की सरकार है.
हमने उपराज्यपाल को भी चिट्ठी लिखकर मांग की है कि सारे होटल और मॉल से एक अंडरटेकिंग लेकर रखें.
प्रधानमंत्री को इस पर आकर जवाब देना होगा कि 2019 तक मैला ढोने की प्रथा को कैसे ख़त्म किया जा सकता है. इसकी योजना क्या है. हर प्रधानमंत्री लाल किले से एक ही तरह का भाषण देता है अभी के प्रधानमंत्री ने भी कुछ वैसा ही भाषण दिया, भाषणबाज़ी से कुछ नहीं होगा.
जब आपने हर चीज़ की समयसीमा तय कर रखी है, चाहे हाईवे बनाने की हो या मेट्रो तो मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने की समयसीमा क्यों नहीं? आप बार-बार डेडलाइन रखकर बढ़ाते हैं अभी तक लगभग 18 बार ये ऐसा कर चुके हैं.
हर चीज़ का बजट ऊपर जाता है लेकिन सफाई कर्मचारी के पुनर्वास का बजट घट रहा है. सफाई कर्मचारी की पहचान कर उसे एक बार का भुगतान 40 हज़ार रुपये देने का प्रावधान है, लेकिन पुनर्वास के लिए तो इससे कहीं अधिक पैसे की ज़रूरत होती है. इसके लिए तो एक लाख से 25 लाख रुपये तक दिया जाना चाहिए.
आज तक कितनों को पुनर्वास का यह पैसा मिला है इस पर हमें आरटीआई दायर की है पर कोई जवाब नहीं मिला है.
वैसे तो हमारे पास जब हर चीज़ का सर्वे है लेकिन मैला ढोने वाले श्रमिकों का नहीं हैं. जो आकड़े हैं वो सटीक नहीं हैं.
चाहे कोई मज़दूर प्राइवेट ठेकेदार के लिए काम कर रहा हो या सरकारी, मैला ढोने वाला श्रमिक सफाई कर्मचारी की श्रेणी में आना चाहिए. आख़िर सर्वे तो ईमानदारी से किया जाना चाहिए.
हमने सरकार को कह रखा है कि आप सफाई कर्मचारी का पहचान कर कर सही आंकड़ा दो हम कोई मुकदमा नहीं करेंगे. हम अगर सही नीयत से चलें और सरकार में भी सब लोग एक कानून लाएं तो हमें पूरी उम्मीद है कि मैला ढोने की प्रथा को जल्द से जल्द ख़त्म किया जा सकता है.
हमें समझना पड़ेगा कि मैला ढोने का काम इतने लंबे समय से एक ही जाति और तबके के लोग क्यों कर रहे हैं. इस काम को करने के कारण इतने श्रमिकों की मौत हो जाती है उसके बावजूद भी सफाई के लिए मशीन क्यों नहीं प्रयोग की जाती है, यह समझ नहीं आता.
(यह लेख सृष्टि श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है.)