मणिपुर के नोनी जिले के ताज़ीकाइफुन गांव के रहवासियों का आरोप है कि मई के आखिरी हफ्ते में असम राइफल्स की 23वीं डिवीज़न ने एनएससीएन (आईएम) के कैंप पर छापा मारने के लिए 2 गांववालों को मानव ढाल के बतौर इस्तेमाल किया.
नोनी (मणिपुर) : 22 मई की सुबह को, ताज़ीकाइफुन गांव की रोजाना की नीरसता को हेलीकॉप्टर की आवाजों और चक्कर लगाते हुए ड्रोनों ने भंग कर दिया था. करीब 90 परिवारों वाले इस छोटे से रोंगमेई (एक जनजाति) गांव की आबादी 800 से ज्यादा नहीं है.
आतंकी अशांतियों से अछूते रहे इस गांव के लोगों ने इन हलचलों का कोई खास अर्थ नहीं लगाया. उन्होंने शायद ही इस बात का इल्म रहा होगा कि अगले दिन 23 असम राइफल्स के कमांडिग ऑफिसर (सीओ) वहां आकर उनसे नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (आइजक-मुइवा) यानी एनएससीएन (आईएम) के कैंप तक लेकर चलने के लिए कहेंगे.
गांव के अध्यक्ष कमफुना कामेई, ने द वायर से कहा, ‘उन्होंने (सीओ) ने मुझे कैंप का सर्विलेंस वीडियो दिखलाया. मैंने उनसे कहा कि मुझे सिर्फ इतना पता है कि यह मेरे अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन मुझे इसकी असल लोकेशन के बारे में जानकारी नहीं है.’
2016 में अध्यक्ष ने आईएम के जादोनांग बटालियन के साथ गांव के पास में कैंप स्थापित करने के लिए एक नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट (एनओसी) पर दस्तखत किया था. मगर जैसा कि कामेई बताते हैं सीओ कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे.
कामेई के मुताबिक सीओ ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा, ‘एक-दो थप्पड़ मारने से मालूम हो जाएगा’. कामेई को डरा-धमकाकर जबरदस्ती सर्च पार्टी के साथ दिनभर घुमाया गया, लेकिन उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा.
नुंगबा सबडिविजन में जंगल के भीतरी हिस्सों में स्थित ताज़ीकाईफुन गांव एक ऊबड़-खाबड़ और कीचड़ से भरी सात किलोमीटर लंबी सड़क के सहारे पास के शहर से जुड़ा है. इस सड़क पर या तो पैदल चला जा सकता है या उनके विशेष तौर पर बनाए गये जीपों से ही यह दूरी तय की जा सकती है.
इस भारी बारिश वाले इलाके में पक्की सड़क की कमी का यानी साफ कहें तो पश्चिम मणिपुर जिला पहाड़ियों पर यह रास्ता चलने लायक नहीं रह जाता.
2016 के नवंबर तक, नुंगबा तामेंगलांग जिले के अंतर्गत आता था. चुनाव से ठीक पहले पूर्व मख्यमंत्री इबोबी सिंह ने नोनी जिला बनाने का ऐलान किया था- अपनी उत्पत्ति को नगाओं से जोड़नेवाली जेलियनग्रोंग उप-जनजातियों (रोंगमेई, ज़ेमे और लिआंगमई) की पर्याप्त आबादी वाला तामेंगलांग नगा स्वतंत्रता संग्राम का ऐतिहासिक स्थल है.
रोंगमेई नेताओं हाइपो जादोनांग और गाइदिनल्यू ने सभी ज़ेलियनग्रोंग जनजातियों को एक करने और स्थानीय काबुई धर्म को बचाने के लिए अंग्रेज धर्म-प्रचारकों द्वारा ईसाई धर्म के प्रसार का विरोध करने के लिए मुहिम छेड़ी थी.
27 मई को शीर्ष निकाय रोंगमेई नगा काउंसिल मणिपुर (आरएनसीएम) ने 24 मई की मध्य रात्रि को एनएससीएन (आईएम) के खिलाफ ऑपरेशन में नागरिकों का मानव कवच के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए 23 असम राइफल्स की निंदा की और यह आरोप लगाया कि इसने नगा गुट और केंद्र के बीच के संघर्ष विराम समझौते का उल्लंघन किया है.
बयान में कहा गया कि अगर कैडरों ने सर्च पार्टी के पहुंचने से पहले कैंप को खाली नहीं कर दिया होता है, तो ‘दोनों पक्षों के बीच एक जबरदस्त गोलीबारी हो सकती थी, जिसमें मानव कवच बनाए गये सभी नागरिकों की मौत घटनास्थल पर ही हो जाती.’
दो दिन बाद एनएससीएन-आईएम ने भी असम राइफल्स के ऑपरेशन की निंदा की और और इसे शांति प्रक्रिया को पटरी से उताने की सोची-समझी कोशिश’ करार दिया.
सेना द्वारा ‘मानव कवच’ बनाए जाने का गांववालों ने किया विरोध
ताज़ीकाइफुन में, जिसे खेकरूनगा नाम से भी जाना जाता है, गाइनिंगम कामेई और बेंजामिन रोंगमेई ने द वायर से बात करते हुए कहा कि 24 मई को 150 जवानों की एक सैन्य टुकड़ी द्वारा उन्हें अपने कब्जे ले लिये जाने के बाद दो युवक उनके पास उपलब्ध नक्शे पर चल कर गये.
गाइनिंगम ने बताया, ‘जब हम कैंप पर पहुंचे, उन्होंने हमें आगे चलने के लिए कहा.’ अंदर जाने पर उन्होंने पाया कि आईएम के कैडर पहले ही वहां से जा चुके थे और वहां उनके कपड़े, किताबें और रसोई और दूसरे घरेलू सामान थे.
इनमें से किसी ने भी अपनी आंखों से कैंप में कोई हथियार देखने की बात नहीं कही, सिवाय उस एक पिस्तॉल और एके-47 और एम16 के 30 कारतूसों के जिसे सेना ने उन्हें यह कहते हुए दिखाया था कि इन्हें कैंप से बरामद किया गया है.
चश्मदीदों ने द वायर को बताया कि वह कैंप जिसे बाद में सेना ने जला दिया, गांव से महज 4 किलोमीटर की दूरी पर था.
हालांकि, गांव के निवासी सेना पर कथित तौर पर दो नागरिकों को मानव कवच के तौर पर इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हैं, मगर वे यह भी स्वीकार करते हैं कि गांव में से ही किसी ने कैंप को पहले से सूचना दे दी थी. लेकिन, बाद में नुंगबा में आईएम के एक कैडर ने द वायर से बात करते हुए बताया कि हालांकि उन्हें सूचना मिल गयी थी लेकिन उन्होंने सर्च पार्टी के पहुंचने से करीब एक घंटा पहले ही कैंप को खाली किया था.
गाइनिंगम का कहना है, ‘मैं अपनी जान को खतरे में डाल कर कैंप में गया था. वहां क्या होने वाला है, इसकी कोई जानकारी मुझे नहीं थी. उन्होंने हमें उस दिन खाना-पानी भी नहीं दिया.’
अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी कानून स्पष्ट तौर पर अंतरराष्ट्री और गैर-अंतरराष्ट्रीय सशस्त्र संघर्षों में मानव कवच के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाते हैं.
यह सही है कि भारत सरकार मणिपुर को सशस्त्र संघर्ष की परिभाषा के तहत नहीं रखती है. उसे ‘अशांत क्षेत्र’ का दर्जा मिला हुआ है, जिसे हाल ही में मणिपुर सरकार द्वारा विस्तार दिया गया है. पिछले साल गृह मंत्रालय ने मणिपुर और असम की राज्य सरकारों को स्वायत्त तरीके से इस दर्जे पर फैसला लेने का अधिकार दिया था.
मानव कवचों का इस्तेमाल भारत की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन है, जिसमें प्रताड़ना तथा अन्य क्रूर, अमानवीय या नीचा दिखानेवाले बर्तावों या सजाओं के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की संधि (यूएन कंवेंशन अगेंस्ट टॉर्चर एंड अदर क्रुएल, इनह्यूमन ऑर डिग्रेडिंग ट्रीटमेंट ऑर पनिशमेंट) (कैट) भी शामिल है.
हालांकि, भारत ने कैट को अंगीकार नहीं किया है, लेकिन एक दस्तखत करने वाले देश के तौर पर इसने इसके सिद्धांतों का पालन करने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जरूर जताई है.
मई, 2017 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में तीसरी वैश्विक नियतकालीन समीक्षा में भारतीय अधिकारियों ने कैट के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया था और यह भरोसा दिलाया था कि मौजूदा घरेलू कानून भी प्रताड़ना और नीचा दिखानेवाले बर्तावों को गैरकानूनी करार देते हैं.
कोई हैरत की बात नहीं कि इस घटना के कारण भारत सरकार और आईएम के बीच चल रही शांति वार्ताओं के प्रति विश्वास कम हुआ है.
कामेई ने कहा, ‘जीपीआरएम और भारत सरकार के बीच यह समझौता सवालों के घेरे में है.भारतीय सेना द्वारा एक आम नागरिक का इस्तेमाल मानव कवच के तौर पर करना और यहां तक कि गांव के अध्यक्ष और सचिव को धमकी दिया जाना, किसी तरह से शांतिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है.’
उन्होंने आरोप लगाया है कि सीओ ने सिर्फ तरक्की पाने की गरज से इस ऑपरेशन को अंजाम दिया. ऑपरेशन से करीब दो हफ्ते पहले, अध्यक्ष ने 23 असम राइफल की एक स्टैंडिंग पेट्रोलिंग पोस्ट के लिए इस शर्त के साथ एक एनओसी पर दस्तखत किया था कि इसे स्वीकृत समय सीमा के आगे नहीं बढ़ाया जाए क्योंकि गांव के लोग शांतिप्रेमी हैं और उन्हें सुरक्षा बलों की कोई जरूरत नहीं है.
इस छापेमारी के बाद कामेई ने जिला कमिश्नर को एक ज्ञापन सौंप कर प्रस्ताव को अनिश्चित काल के लिए खारिज कर देने की मांग की. ‘यह कुत्ते-बिल्ली वाली स्थिति है. दोनों साथ में नहीं रह सकते हैं.’
एक नई ज़ेलियनग्रोंग ब्रिगेड
हालांकि, जादोनांग बिग्रेड के वास्तविक आकार या ताकत के बारे में जानकारी नहीं है, लेकिन रोंगमेई नगा काउंसिल ऑफ मणिपुर (आरएनसीएम), जो कि इस जनजाति का सर्वोच्च संगठन है, इसकी क्षमता का अनुमान 500 कैडरों के आसपास लगाता है.
रोंगमेई नेता के नाम पर, जो अंग्रेजी राज को हटाने के लिए काबुई राज के तहत ज़ेलियनग्रोंग जनजातियों का राजनीतिक एकीकरण करना चाहते थे, किसी ब्रिगेड का गठन या उसके अस्तित्व की जानकारी ज्यादातर लोगों को नहीं है.
दिवंगत इतिहासकार गंगमुमेई कामेई ने कभी लिखा था, ‘यह जानकारी चकित कर देनेवाली है कि कैसे मणिपुर घाटी में नेताओं द्वारा स्वतंत्र राजतंत्र स्थापित करने के विचार में ऐसे आंदोलन को शुरू करने के बारे में नहीं सोचा गया था, जब नगा पहाड़ियों के नेता साइमन कमीशन द्वारा विचार किए जा रहे संवैधानिक सुधारों से अलग रखे जाने की मांग से संतुष्ट थे…’
बुनियादी तौर पर जादोनांग द्वारा शुरू किया गया आंदोलन अंग्रेजी शासन को रोकने के लिए था, जबकि फिजो नगा आंदोलन ने नगाओं की बसावट वाले इलाके में भारतीय प्रशासन के कब्जे का विरोध किया था. आरएनसीएम को ऐसे ब्रिगेड में कोई अंतर्विरोध नजर नहीं आया, जिसने दोनों आंदोलनों को उलझा दिया, जिन्हें ज्यादातार जानकार स्वतंत्र आंदोलनों के तौर पर देखते थे.
आरएनसीएम, नुंगबा ज़ोन के एक युवा सदस्य दाइचुई कहते हैं, ‘नगा स्वतंत्रता संघर्ष की शुरुआत जादोनांग से होती है, जो कि फिजो से काफी आगे थे. तथ्य यह है कि फिजो ने भी यह स्वीकार किया था कि इस आंदोलन का अंत जादोनांग के नाम के साथ होगा.’
चूंकि भारत की आजादी के बाद और ज्यादा ज़ेलियनग्रोंग आदिवासी गांवों ने ईसाई धर्म को अपना लिया, इसलिए ऐसा लगता है कि जादोनांग के काबुई राज और आईएम के ‘नगालैंड फॉर क्राइस्ट’ (यीशू के लिए नगालैंड) के बीच झगड़े का कोई कारण नहीं रह गया है.
जादोनांग ब्रिगेड कैम्प से एक जादोनांग कैडर ने द वायर को बताया कि उनके नेता के धर्म का नगा संघर्ष से केई ताल्लुक नहीं है, हालांकि वह इसके गठन के ठीक-ठीक वक्त के बारे में पक्के तौर पर कह पाने की स्थिति में नहीं था.
नाम न बताने की शर्त पर उसने कहा, ‘इस ब्रिगेड की स्थापना 2016 में जनरल सेक्रेटरी (एनएससीएन) मुइवा के आदेशों के अनुसार हेबोर्न मुख्यालय में की गयी थी.’ सुरक्षा कारणों से हालांकि इस कैंप के वास्तविक आकार और इसकी संख्या को गोपनीय रखा जाना जरूरी था, लेकिन उसने यह कहा कि यह एक सैन्य पलटन के बराबर था.
एनएससीएन-आईएम के कैडरों और अधिकारियों ने द वायर को कहा कि यह सही है कि आईएम का सरकार के साथ समझौता है, लेकिन सरकार ने अभी तक जादोनांग ब्रिगेड को मान्यता नहीं दी है, जो छापेमारी की वजह हो सकता है.
इसके अलावा, जैसा कि हेबोर्न, नगालैंड में आईएम सेक्रेटेरिएट में सेक्रेटरी डीजी रॉबर्ट ने बताया, राज्य सरकार के दबाव के चलते मणिपुर में तामेई सब-डिविजन के एन-पुइलोंग (बुनिंग) में न्गांगपिंग बटालियन के अलावा किसी भी नामित कैंप की आधिकारिक तौर पर अनुमति नहीं है.
‘संघर्ष विराम की क्षेत्रीय सीमा के बारे में कोई स्पष्टता नहीं’
आरएनसीएम के अध्यक्ष केनन कामेई और लोंगबा लोंगरेम ज़ोन के सभापति, जिन्होंने नोनी में द वायर से मुलाकात की, ने कहा कि वे मणिपुर के नगा इलाकों को नगालिम के भीतर मानते हैं, न कि नगालैंड के भीतर. ‘हमारे गांव में इस ऑपरेशन का क्या मतलब है? हम यह जानना चाहते हैं कि वे समझौते और चल रही वार्ता से भटक क्यों रहे हैं?’
एनएससीएन (इसके खापलांग और आईएम गुटों में विभाजन से पहले) ने 1997 में भारत सरकार (एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार) के साथ एक संघर्ष विराम समझौते पर दस्तखत किया था, जिसे तब से लेकर अब तक लगातार आगे बढ़ाया जाता रहा है.
यहां झगड़ा इस बात को लेकर है कि एनएससीएन ने अपने नाम से ‘नगालैंड’ को हटाकर उसकी जगह ‘नगालिम’ रख लिया, जिसके अंतर्गत उत्तर-पूर्व के वे सभी इलाके आ जाते हैं, जिनमे नगाओं का निवास है. लेकिन, भारत सरकार के लिए इस संघर्ष विराम का अस्तित्व नगालैंड की सीमा से बाहर नहीं है.
14 जून, 2011 को बैंकॉक में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार के साथ दस्तखत किये गये संघर्ष विराम समझौते में ‘क्षेत्रीय सीमा के बिना’ पद को शामिल किया गया था.
इस समझौते की घोषणा होते ही मणिपुर घाटी में इसका विरोध शुरू हो गया, जिसमें 18 लोगों की मौत हो गयी और वहां राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. तब से हर साल शहीद होनेवालों की याद में मणिपुर में 18 जून को जून की महान क्रांति के तौर पर मनाया जाता है.
जबकि यूनाइटेड नगा काउंसिल (यूएनसी) भारत सरकार के विश्वासघात-एक महीने बाद वाजपेयी सरकार द्वारा संघर्ष विराम को नगालैंड के बाहर लागू करने के आदेश को वापस करने का विरोध करने के लिए राजमार्ग संख्या 37 और 39 पर कर्फ्यू का ऐलान करती है.
चूंकि क्षेत्रीय सीमा घाटी के समुदायों के लिए एक बड़ा भावनात्मक और राजनीतिक मुद्दा है, इसलिए उनके शीर्ष संगठन यूनाइटेड कमेटी मणिपुर ने दिसंबर, 2017 में नई दिल्ली मे केंद्रीय नेताओं और नगा वार्ताकार आरएन रवि के सामने अपनी चिंताएं प्रकट की थीं.
फिर भी, वे काफी डर और शंकाओं से घिरे हुए हैं, क्योंकि शांति समझौते के बारे में जानकारियां धीरे-धीरे छनकर बाहर आ रही हैं.
अप्रैल में इंडियन एक्सप्रेस ने यह सूचना दी थी कि हालांकि, सीमाओं के साथ छेड़खानी नहीं की जाएगी, लेकिन मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में नगा क्षेत्रीय परिषद का गठन किया जा सकता है.
यूएनसी के प्रवक्ता एलांगबाम जॉनसन के मुताबिक, ‘यह हम सबको पता है कि क्षेत्रीय परिषद नए राज्य के निर्माण की पूर्वपीठिका है. किसी एक राज्य की कीमत पर किसी दूसरे राज्य की राजनीतिक इच्छाओं को पूरा करना, भारत के विखंडन को न्योता देगा.’
इसके अलावा, उन्होंने यह भी जोड़ा कि क्षेत्रों को एकमुश्त ‘नगा आबादी वाले’ करार देना गलत है, क्योंकि तामेंगलोंग और सेनापति जैसे जिलों में कुकी, मेइतेई और नेपाली जैसे समुदायों का भी निवास है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने अगस्त, 2015 में थुइंगालेंग मुइवा और इसाक चिशी स्वू के साथ एक फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर दस्तखत करके एक निर्णायक नगा समाधान की तरफ बढ़ने के लिए टूटे हुए विश्वास को फिर से बहाल करने की दिशा में कदम बढ़ाया था.
लेकिन, तब से उस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट के ब्यौरे को सार्वजनिक नहीं किया गया है. पहले के विपरीत संघर्ष विराम की क्षेत्रीय सीमा को लेकर भी किसी तरह की पुष्टि नहीं की गयी है.
रॉबर्ट यह जोर देकर कहते हैं कि यह संघर्ष विराम उन सभी जगहों पर प्रभावी है जहां भारत सरकार और एनएससीएन-आईएम दोनों उपस्थित हैं. उन्होंने द वायर से कहा, ‘जब तक दोनों के बीच वार्ता जारी है, यह संघर्ष विराम प्रभावी रहेगा.’
वास्तव में सेना और आईएम के बीच मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में आपसी मुठभेड़ों और आईएम नेताओं पर हाल में हुई कई छापेमारियों के बावजूद भारतीय प्राधिकारियों का कहना है कि शांति समझौता अब ज्यादा दूर नहीं है.
मणिपुर के नगाओं के लिए, जैसा कि दाइचुई कहते हैं, यह अब सवाल संघर्ष विराम का नहीं रह गया है. ‘हम शांति समझौते के काफी करीब हैं. इस बिंदु पर उन्हें ऐसा करने की क्या जरूरत पड़ गयी?
प्रतिक्रिया के लिए सेना के प्रवक्ता से संपर्क किया गया है, उनकी तरफ से जवाब आने पर रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.
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