संत कबीर की निर्वाण स्थली मगहर में प्रधानमंत्री ने अपने राजनीतिक विरोधियों को इंगित करते हुए कहा कि आजकल लोग कबीर को पढ़ते नहीं हैं, लेकिन यह बात उनके विरोधियों से ज़्यादा उनके साथ मंचासीन योगी पर ही चस्पां होती दिखी.
साधो, देखो जग बौराना
सांची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना
हिंदू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना
बहुत मिले मोहि नेमी, धर्मी, प्रात करे असनाना
आतम-छांड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना
पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना
माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना
साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना
कोई पांच सौ साल पहले संत कबीर ने ये पंक्तियां रचीं तो उन्हें कतई इल्म नहीं रहा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा, जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री और उसके सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री अप्रत्याशित रूप से उनकी निर्वाणस्थली पर पहुंचकर इन्हें सही सिद्ध करने लगेंगे!
लेकिन गत गुरुवार को ऐसा ही हुआ. हालांकि जो हुआ, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उसकी शुरुआत एक दिन पहले बुधवार को ही कर दी थी.
बहुत से पाठकों ने इस सिलसिले में वायरल हो रहे वीडियो में देखा भी होगा, संत कबीर की निर्वाण स्थली मगहर में परंपरा से होते चले आ रहे महोत्सव के स्थगन की कीमत पर आयोजित किए जा रहे राजनीतिक लाभ के लोभ से लबालब कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शिरकत से पहले उसकी तैयारियों का जायजा लेने पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को संत के अनुयायियों की ओर से एक टोपी पेश की गई, जो खासतौर पर उन्हीं के लिए बनाई गई थी.
उसका रंग भी उनकी पसंद के मद्देनजर भगवा ही था लेकिन योगी ने उसे और तो और संत की निर्वाणस्थली के संरक्षक के हाथों भी पहनने से इनकार कर दिया. संरक्षक ने यह सोचकर कि शायद वे उसे खुद पहनना चाहते है, टोपी उनके हाथ में देने की कोशिश की तो भी उन्होंने टोपी को हाथ नहीं लगाया.
उनके इस कृत्य ने उन्हें नरेंद्र मोदी से बड़ा ‘नायक’ मानने वाले उनके कट्टरपंथी समर्थकों को दो चीजें याद दिलाईं. पहली यह कि उन्होंने नरेंद्र मोदी द्वारा सात साल पहले 2011 में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अहमदाबाद के एक गांव में इमाम की टोपी ठुकराने का रिकॉर्ड तोड़ दिया है.
इस अर्थ में कि मोदी ने टोपी के बदले इमाम का हरा शाॅल स्वीकार कर लिया था, लेकिन योगी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. दूसरी यह कि योगी ने जता दिया है कि उनकी आस्था के केंद्र अयोध्या और राम ही हैं और वे मगहर और कबीर को उनकी जगह नहीं ही देने वाले.
इन समर्थकों के अनुसार इससे प्रधानमंत्री द्वारा अयोध्या आने से बरते जा रहे परहेज की कसर पूरी हो गई है. साथ ही भाजपा व उसकी सरकारों के ढकोसलों से आजिज दलितों व पिछड़ों को कबीरपंथियों की मार्फत साधने की उनकी कोशिश से असहज महसूस करते भाजपा के पारंपरिक मतदाताओं को ढाढ़स बंधा है और अब वे दूर छिटककर उसे छब्बे बनने के फेर में पड़कर दूबे बन जाने की दुर्गति को प्राप्त नहीं होने देंगे.
बेचारे कबीरपंथी तरसते रह गए कि इन समर्थकों में कोई कहता कि योगी ने टोपी नकारकर संत कबीर द्वारा ‘माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना’ कहकर की गई उसकी आलोचना को बल प्रदान किया है. लेकिन कैसे कहता, जब उसे योगी के नकार में उनके छाप-तिलक द्वारा की गई टोपी की हेठी के अलावा कुछ दिख ही नहीं रहा था.
आप ही बताइये कि संत कबीर के ‘हिंदू कहत मोहि राम पियारा, तुरुक कहे रहमाना’ और ‘आतम खबर न जाना’ की कोई इससे बेहतर मिसाल हो सकती है?
हो सकती तो अगले दिन प्रधानमंत्री की उपस्थिति में, संभवतः उन्हें प्रसन्न करने के लिए मुख्यमंत्री के यह कहते ही कि उनके ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे में कबीर के विचारों की प्रतिध्वनि गुजायमान हो रही है, लोग यह कैसे समझ जाते कि योगी के मुख्यमंत्रित्व की अल्पावधि में ही देश के सबसें बड़े राज्य में यह नारा बेहद शातिर ढंग से ‘जो साथ, उसका विकास’ और ‘जो विरुद्ध, उसका अवरुद्ध’ में क्यों बदल गया है?
खैर, योगी के ऐसे शानदार आगाज के बाद प्रधानमंत्री ने अपने राजनीतिक विरोधियों को इंगित करते हुए कहा कि आजकल लोग कबीर को पढ़ते नहीं हैं, तो उनकी बात उनके साथ मंचासीन योगी पर ही चस्पां होती दिखी.
लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री को अभी देश की सरकार चलानी है, अपना घर फूंककर कबीर के साथ नहीं चल पड़ना, इसलिए उन्होंने आगे भी पूरा सच बोलकर ‘जग मारन धावा’ का जोखिम नहीं उठाया और खयाल रखा कि वही कहें, जिस पर पतियाने में उसको कोई असुविधा न हो.
मानवता को सबसे बड़ा धर्म बता गए संत की धरती से राजनीतिक निशाने साधने का लोभ भी वे नहीं ही संवरण कर पाये. ऐसे में उनके भाषण में खालिस झूठ की न सही, अर्धसत्यों की भरमार तो होनी ही थी.
उनका यह कहना तो एक हद तक ठीक था कि जब वे गरीबों की फिक्र में मुब्तिला थे, कई महानुभावों का ध्यान अपने बंगले बचाने पर लगा हुआ था.
लेकिन जब उन्होंने कहा कि वे समाजवाद व बहुजनवाद के अलमबरदारों को सत्ता के लिए उलझते देखकर हैरान हैं तो यह छिपाने की कोशिश करते लगे कि इन दोनों के उलझना छोड़ देने से गोरखपुर व फूलपुर से शुरू हुई उनकी परेशानी कैराना व नूरपुर तक जा पहुंची है और अंदेशा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में आंधी बनकर उनके सामने आ खड़ी हो, क्योंकि ‘सत्ता के लालच में इमर्जेंसी लगाने और उसका विरोध करने वाले एक साथ आ खड़े हुए हैं.’
गौर कीजिए कि ऐसा वह शख्स कह रहा था, जिसने निष्कंटक राज की लिप्सा के तहत अपने राजनीतिक गुरू तक के लिए अपनी पार्टी में ऐसा मार्गदर्शकमंडल बना डाला है, जिसकी हैसियत किसी पिंजरे से ज्यादा नहीं है.
अभी हाल में कर्नाटक की जनता द्वारा मुश्कें कस दिए जाने के पहले जिसका सत्ता का लालच देश के कई ऐसे राज्यों में सिर चढ़कर बोल चुका है, जहां चुनाव हारकर दूसरे-तीसरे नंबर पर आई उसकी पार्टी को तभी चैन आया, जब उसने सत्ता अपने या अपनों के नाम कर ली.
वह भी उसका सत्ता का लालच ही तो था, जिसके तहत उसने पीडीपी से सर्वथा बेमेल गठबंधन कर सरकार बनाई और तीन साल तक जम्मू-कश्मीर व वहां के निवासियों को प्रताड़ित करने के बाद अचानक जुआ पटक दिया.
यहां प्रधानमंत्री के कहे को ‘नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’ जैसी कहावत के नहीं तो और किस आईने में देखें? खासकर जब 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें पूर्ण बहुमत मिलने तक उनकी पार्टी बड़े गर्व से कहा करती थी कि देश में गठबंधन चलाना कोई उससे सीखे. तब उसने कई बेमेल गठबंधन सफलतापूर्वक चलाकर दिखाये भी.
हां, प्रधानमंत्री का यह छिपाना उनकी राजनीति के लिहाज से बहुत स्वाभाविक था कि समाजवादियों और बहुजनवादियों में उत्तर प्रदेश में जिस महागठबंधन की कवायद अभी ठीक से मंजिल तक भी नहीं पहुंची है, उसी से डरकर वे मगहर यानी संत कबीर की शरण में आये हैं.
क्या करें, भगवान राम की शरण में जाने में अब किसी बड़े राजनीतिक लाभ की उम्मीद नहीं कर पा रहे. लेकिन जब उन्होंने कहा कि उनके विपक्षी देश में कलह, असंतोष और अशांति फैला रहे हैं तो लोगों को समझ में नहीं आया कि हसें या रोयें.
अगर कलह, असंतोष और अशांति उनके विपक्षी फैला रहे हैं तो गोहत्या या बच्चा चोरी के नाम पर निर्दोषों को पीट-पीटकर मार डालने वाली भीड़ अनिवार्य रूप से नरेंद्र मोदी के जयकारे ही क्यों लगाती हैं?
यकीनन, यह स्थिति इस सवाल को और बड़ा कर देती है कि प्रधानमंत्री अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से निभाने के बजाय उनकी याद दिलाये जाने पर अलानाहक विपक्ष पर क्यों बरसने लगते हैं? अपने गिरेबान में क्यों नहीं झांकते?
क्यों नहीं समझते कि आलोचना में असर तभी पैदा होता है, जब जो गुड़ खाने के लिए सामने वाले को कोसा जाये, उसे खुद भी न खाया जाये. लेकिन, कबीर के ही शब्दों में, अभी तो हमारे प्रधानमंत्री घर-घर मंतर देते फिरते हैं. अपनी महिमा का अभिमान नहीं छोड़ते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)