नरेंद्र मोदी और अमित शाह केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस नाम पर सहमत नहीं थीं. अशोक परनामी के इस्तीफ़ा देने के बाद ढाई महीने से ख़ाली था पद.
राजस्थान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के मुद्दे पर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच पिछले 73 दिन से जारी रस्साकशी आख़िरकार ख़त्म हो गई. राज्यसभा सांसद मदन लाल सैनी अब प्रदेश में पार्टी के नए कप्तान होंगे. वे अशोक परनामी की जगह लेंगे, जिन्होंने 16 अप्रैल को इस्तीफ़ा दे दिया था.
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन मुख्यमंत्री वुसंधरा राजे ने इस पर सहमति व्यक्त नहीं की.
पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने राजे को राज़ी करने के लिए सभी जतन किए, लेकिन मुख्यमंत्री टस से मस नहीं हुईं. यानी मोदी-शाह की पसंद पर वसुंधरा का वीटो भारी पड़ गया.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री और अमित शाह के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद संभवत: यह पहला मौका है जब इन दोनों को पार्टी के किसी क्षेत्रीय क्षत्रप ने न केवल सीधी चुनौती दी, बल्कि घुटने टेकने पर भी मजबूर कर दिया.
जबकि माना यह जाता है कि मोदी-शाह की मर्ज़ी के बिना भाजपा में पत्ता भी नहीं हिलता. यदि इस जोड़ी की राय में संघ की सहमति भी शामिल हो जाए तो यह पार्टी के लिए पत्थर की लकीर होती है.
काबिल-ए-ग़ौर है कि गजेंद्र सिंह शेखावत के नाम पर मोदी-शाह ने ही नहीं, संघ ने भी मुहर लगाई थी. असल में संघ को ही यह शिकायत सबसे ज़्यादा थी कि वसुंधरा राजे ने प्रदेश भाजपा पर क़ब्ज़ा कर रखा है. मुख्यमंत्री तो वे हैं ही, संगठन में भी उनका ही वर्चस्व है. इस वजह से पार्टी की हालत पतली है, जिसका ख़ामियाजा विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में भुगतना पड़ेगा.
संघ की इस चिंता के बाद ही पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने वुसंधरा के ‘यस मैन’ माने जाने वाले अशोक परनामी से इस्तीफ़ा मांग लिया. उन्होंने 16 अप्रैल को अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रीय अध्यक्ष को भेज दिया.
तब यह माना जा रहा था कि एकाध दिन में राजस्थान में भाजपा को नया कप्तान मिल जाएगा. इसी बीच ख़बर सामने आई कि पार्टी नेतृत्व ने गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम तय कर दिया है.
शेखावत का नाम सामने आते ही वसुंधरा खेमा सक्रिय हो गया. उन्होंने यह कहकर इस नाम का विरोध किया कि इससे जातिगत समीकरण गड़बड़ा जाएंगे.
पार्टी के वरिष्ठ नेता देवी सिंह भाटी ने तो सार्वजनिक रूप से ही कह दिया कि गजेंद्र सिंह शेखावत की शुरू से ही जाट विरोधी छवि रही है. यदि उन्हें प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया तो जाट भाजपा को वोट नहीं देंगे.
पार्टी नेतृत्व को इस जातीय गणित को समझाने के लिए वसुंधरा सरकार के कई मंत्रियों ने दिल्ली तक परेड की.
शुरुआत में तो अमित शाह ने वसुंधरा राजे के इस अप्रत्याशित रुख़ पर सख़्त ऐतराज़ जताया. उन्होंने वसुंधरा के दूत बनकर दिल्ली आए कई मंत्रियों से मिलने तक से इनकार कर दिया.
उन्होंने प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना, सह प्रभारी वी. सतीश व संगठन महामंत्री चंद्रशेखर के ज़रिये यह संदेश भिजवाया कि जब भैरों सिंह शेखावत से जाट नाराज़ नहीं हुए तो गजेंद्र सिंह शेखावत से क्यों होंगे, लेकिन वसुंधरा ने इस तर्क को तवज्जो नहीं दी.
मामले को सुलझाने के लिए अमित शाह ने 14 जून को वसुंधरा राजे को दिल्ली तलब किया. जब पहले दौर की बातचीत में कोई रास्ता नहीं निकला तो ओम माथुर ने मध्यस्तता की.
चर्चा है कि वसुंधरा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने का समय मांगा था, लेकिन उन्होंने ओम माथुर से मिलने का संदेश भेज दिया. बैठकों के कई दौर चले मगर राजे के हठ की वजह से गजेंद्र सिंह शेखावत के नाम पर सहमति नहीं बन पाई जबकि दूसरे किसी नाम पर पार्टी नेतृत्व तैयार नहीं हुआ.
चूंकि अब विधानसभा चुनाव में छह महीने से भी कम का समय बचा है और सात जुलाई को प्रधानमंत्री मोदी का जयपुर में कार्यक्रम भी निर्धारित है इसलिए भाजपा नेतृत्व ने वसुंधरा के ज़िद के आगे समर्पण करते हुए गजेंद्र सिंह शेखावत के नाम को ‘कोल्ड स्टोरेज’ में डाल दिया.
इस सियासी घटनाक्रम से राज्य सरकार के पंचायतीराज मंत्री राजेंद्र राठौड़ का ‘राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा है’ कहना एक बार फिर सही साबित हो गया.
मदन लाल सैनी वैसे तो संघ पृष्ठभूमि से हैं, लेकिन वे प्रदेश अध्यक्ष वसुंधरा राजे की सहमति के बाद ही बने हैं. दरअसल, राजे ऐसे किसी नेता को अध्यक्ष नहीं बनने देना चाहती थीं जो भविष्य में उनके लिए सियासी चुनौती बन जाए.
सैनी 75 साल के हो चुके हैं और चुनावी राजनीति में उनका अनुभव बहुत कम हैं. वे संगठन में ज़रूर कई पदों पर रहे हैं. उनके अनुभव को देखते हुए इस बात की संभावना कम ही है कि वे वुसंधरा की खींची लकीर को इधर-उधर जा पाएंगे.
अब यह तय है कि सत्ता और संगठन, दोनों की कमान वसुंधरा के ही हाथों में रहेगी. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि विधानसभा चुनाव वे मदन लाल सैनी शायद ही राजे की ओर से दिए जाने वाले नामों पर विरोध करें.
सैनी वैसे भी अब तक की राजनीति में ‘लो प्रोफाइल’ रहे हैं. उनके पीछे चलने वाले ऐसे नेता इक्का-दुक्का ही हैं जो विधानसभा चुनाव में टिकट मांगने की स्थिति में हैं. वे संघ की ओर से दिए जाने वाले नामों की पैरवी ज़रूर करेंगे, लेकिन इनमें से अधिकतर पर वसुंधरा की भी रज़ामंदी रहती है.
भाजपा के भीतर 73 दिन चली इस सियासी जंग में भले ही वसुंधरा विजेता बनी हों मगर इससे पार्टी को बहुत नुकसान हुआ है. पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक कहते हैं, ‘चुनावी साल में इतने दिन से संगठन का कामकाज ठप होना मायने रखता है. सबसे बड़ा नुकसान गजेंद्र सिंह शेखावत का अध्यक्ष के लिए नाम चलना और फिर उन्हें नहीं बनाने से होगा. राजपूत पहले से ही पार्टी से नाराज़ चल रहे हैं अब और नाराज़ हो जाएंगे.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं.)