केंद्रीय मंत्री जैसे और भी कई हैं जो एक संपन्न और शिक्षित पृष्ठभूमि से आते हैं, जो दिखते उदारवादी हैं लेकिन जिनके मन में सांप्रदायिक सड़ांध भरी होती है.
केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा के लिंचिंग मामले के आठ अभियुक्तों से मिलने से ज्यादा घृणास्पद उनकी इस विवाद पर प्रतिक्रिया थी. उन्होंने कहा कि वे सिर्फ ‘कानूनी प्रक्रिया का सम्मान’ कर रहे थे. उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास होने को लेकर भी कुछ कहा लेकिन इस सवाल को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया कि उन्होंने ऐसे लोगों, जो बीते साल हुई एक हत्या के दोषी पाए गए हैं, का इस तरह स्वागत करने की सोची ही क्यों.
उन्होंने इसके बाद कुछ ट्वीट्स किए, अगर वो चाहते तो वे यह भी कह सकते थे कि मामले को ‘गलत तरह से’ देखा गया और केवल तस्वीर से असली बात का पता नहीं लगाया जा सकता- लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
संक्षेप में कहें तो उन्होंने इसे पूरी बेशर्मी से स्वीकार किया और अपने किए को न्यायसंगत ठहराते हुए ऐसे जताया कि न्यायिक प्रक्रिया के साथ ही कुछ गलत हुआ है. उनकी बात ‘मैं स्पष्ट रूप से हिंसा के हर कृत्य की निंदा करता हूं’ से शुरू होकर ‘मैं बार-बार फास्ट ट्रैक कोर्ट के सभी को उम्रकैद की सज़ा देने के फैसले पर अपना संदेह ज़ाहिर कर चुका हूं’ पर खत्म हुई.
वो उसे यहीं छोड़ सकते थे लेकिन उन्होंने इन आरोपियों को, जब वे ज़मानत पर निकलकर उनसे मिलने पहुंचे, फूलमाला पहनाना चुना- साफ है कि उन जैसे समझदार को इस बात का भान तो रहा होगा कि इससे जनता में क्या संदेश जाएगा. लिबरल्स इस बात पर भले ही कितना विरोध जता लें, लेकिन क्या उससे फर्क पड़ता है? सिन्हा को तो बिल्कुल नहीं पड़ता.
सिन्हा एक समझदार व्यक्ति हैं इसमें तो कोई शक नहीं है. उनके जैसा बायोडाटा ज्यादातर मां-बाप अपने बच्चों के लिए चाहते हैं- आईआईटी, यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिल्वेनिया, हार्वर्ड, फिर मैक्किंसे और ओमिदयार नेटवर्क जैसी जगह पर नौकरी और इसके बाद सीधे केंद्रीय मंत्री के तौर पर राजनीति में आना.
सरल शब्दों में कहें तो वे ओवरअचीवर हैं. वैसे भी उनकी छवि साफ ही रही है, अंग्रेज़ी बोलने वाला नेता जिस पर उसके अतीत का कोई दाग नहीं है, जो उन्हें ऐसे हिंदुत्ववादियों के बीच बिल्कुल अलग रखता है जो अपने नफ़रत भरे भाषणों के जरिये अब सामने आ रहे हैं. बीते चार सालों में उन्होंने कोई सांप्रदायिक बयान नहीं दिया, किसी भी तरह के विवाद से दूर रहते हुए अपने कामों में लगे रहे.
जो लोग किसी गिरिराज सिंह या किसी आदित्यनाथ को लेकर चिंतित हो जाते हैं, सिन्हा आपके-हमारे जैसे ही व्यक्ति हैं, जो भाजपा में हैं और इसके शहरी चेहरे की पहचान बने हैं.
लेकिन फिर भी, जब उनकी हिंदुत्ववादी कट्टरता सामने आई तो ये उन संगीत सोम की टक्कर की थी, जो फ्रिज में गोमांस होने के शक में पीट-पीटकर मार दिए गए मोहम्मद अखलाक़ के परिवार को जेल भेज देना चाहते थे. क्या सिन्हा भी मांग करेंगे कि अंसारी के परिवार के परिवार पर मामला दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया जाए? यही उनका अगला कदम हो सकता है.
यह भी कहा जा रहा है कि सिन्हा ने अपने राजनीतिक बॉस द्वारा पार्टी के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित करने के दबाव के चलते ऐसा किया है. नेतृत्व चाहता है कि जयंत न केवल वो करें जो बाकी कर रहे हैं बल्कि इससे उनके पिता यशवंत सिन्हा, जो बीते काफी समय से मोदी सरकार पर हमले कर रहे हैं, को नीचा भी दिखाया जा सके.
बताया जा रहा है कि पिता-पुत्र के बीच बीते कुछ समय से ही खटास आई है और जयंत के ऐसा करने से यह दरार और बढ़ेगी. खुद जयंत को अंदाज़ा भी नहीं है कि एक बार ऐसा शुरू करने के बाद उनके लिए इस ‘संघी’ छवि से निकल पाना आसान नहीं होगा.
लेकिन इस तरह की सफाई देना जयंत को उनके किए से बरी करने जैसा है. जयंत एक वयस्क हैं और अपने करिअर में उन्होंने तमाम तरह के दबाव झेले होंगे. कंसल्टेंसी या कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करने वाले अक्सर ही ऐसी स्थितियों से दो-चार होते रहते हैं. कुछ इससे निकलने का रास्ता बना लेते हैं तो कुछ इसके आगे झुक जाते हैं लेकिन नैतिकता के रास्ते चलने वाले फिर भी अपने लिए एक सीमा रेखा तय कर लेते हैं.
ऐसी सीमा रेखा थी- जयंत चाहते तो न कह सकते थे, या कोई ऐसा तरीका ढूंढ सकते थे, जिससे बरसों से बनाई गयी उनकी छवि को कम नुकसान पहुंचता. लेकिन उन्होंने न केवल पूरे जोश से उन्हें सौंपा गया काम पूरा किया, बल्कि उसके बारे में बात करने से भी इनकार कर दिया.
घटना के वीडियो में वे झिझकते नहीं दिख रहे- वे पूरे जोशो-खरोश से ऐसा करते दिख रहे हैं. वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, साथ ही वे यह भी जानते हैं कि अब जब चुनाव बस आने को ही हैं, वोटरों के ध्रुवीकरण के जरिये हिंदू वोट बैंक तैयार किया जा सकता है. वे विस्तृत रूप से ही भले संघ परिवार का हिस्सा न रहे हों, लेकिन उन्हें वहां का संदेश मिल चुका है.
लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों किया? उन्होंने अपना ‘लिबरल’ दिखने वाला चोला उतारकर अपने ‘भगवा रंग’ दिखाने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? क्या उन्हें नहीं मालूम था कि इससे बवाल खड़ा होगा? या फिर वे मोदी या संघ के साथ जुड़े रहकर मिलने वाले दूरगामी राजनीतिक लाभ के बारे में सोच रहे हैं?
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अगर बीते सालों में जयंत ने कोई बेतुका या सांप्रदायिक बयान नहीं दिया, तो उन्होंने किसी तरह की उदारवादी सोच भी सामने नहीं रखी है. केवल उनकी संपन्न पृष्ठभूमि, उनकी शिक्षा, अंतरराष्ट्रीय अनुभव और कॉस्मोपॉलिटन लोगों में उठने-बैठने के आधार पर ऐसा सोच लिया गया था कि वे ‘अलग’ हैं, कि वे अंदर ही अंदर अपने आस-पास हो रहे पर शर्मिंदा होते होंगे, लेकिन राजनीतिक या करिअर के कारण चुप्पी साधे हुए हैं. यह एक कायराना बात है लेकिन व्यावहारिक भी है और वे लोग जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कई तरह के समझौते करते हैं, इसे समझ सकते हैं.
लेकिन कट्टरता फैलाने वाले तरह-तरह के होते हैं, वे अलग-अलग वर्गों, पृष्ठभूमि से आते हैं- सांप्रदायिकता फैलाने वाले अनपढ़ भी मिलेंगे, और बेहद पढ़े लिखे, तहजीब से बात करने वाले भी. वे बड़े-बड़े शिक्षा संस्थानों से भी आते हैं, किसी छोटे शहर से भी.
कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपनी सोच ज़ाहिर करने और उसके प्रसार का कोई मौका नहीं छोड़ते और कई ऐसे भी होते हैं जो मन में ढेर सारा ज़हर लेकर चुप रहते हैं. अक्सर उनकी विनम्रता और तौर-तरीकों के मुखौटे के पीछे छिपी सांप्रदायिकता और पूर्वाग्रहों का उनके करीबियों को भी पता नहीं होता.
ऐसे ‘डिज़ाइनर’ कट्टर लोग देश की किसी धूल भरी सड़क पर नहीं बल्कि किसी बड़े शहर के सजे-धजे ड्रॉइंग-रूम में हो रही कॉकटेल पार्टियों में मिलते हैं. ऐसे में सिन्हा अकेले नहीं हैं- उनके जैसे कई और हैं, पिछले कुछ समय से कुछ ने तो अपने अंतर्मन की आवाज़ को कहना शुरू कर दिया है, कुछ अभी इंतजार में ही हैं. लेकिन अल्पसंख्यकों से नफरत और हिंदुत्व को सिर-आंखों पर रखने में ये सब साथ हैं.
जयंत एक शिक्षित और संपन्न पृष्ठभूमि से हैं लेकिन इस बात पर यकीन करने की कोई वजह नहीं दिखती कि इससे उन्होंने इससे किसी तरह की उदारवादी सोच सीखी. आप अपने अनुभवों से वही सीखते हैं जो आप सीखना चाहते हैं और अक्सर ये हमारे अंदरूनी पूर्वाग्रहों के अनुसार होता है. और फिर ज़िंदगी में आगे बढ़ते हुए यहीं सोच और मज़बूत होती जाती है. ऐसा नहीं है कि लोग बदलते नहीं हैं, लेकिन ऐसा कम ही होता है.
जयंत सिन्हा का यह रूप सामने आना चौंकाने वाला भले ही लगता है लेकिन यह केवल ‘ऊपरी’ निर्देश मानने और अपनी जगह बचाए रखने की कवायद नहीं हो सकती. उन्होंने अपने असल विचारों को ज़ाहिर किया है. यह किसी निर्देश के अनुसार उठाया हुआ कदम नहीं है बल्कि अपनी इच्छा से अपनी स्वाभाविकता में लौटने जैसा है. जयंत सिन्हा की ‘घर वापसी’ हुई है.
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