अविश्वास प्रस्ताव के दौरान सत्ता और विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ऐसी चार्जशीट बनाने की हड़बड़ी में थे, जिसे 2019 के लोकसभा चुनाव में जनता की अदालत में पेशकर जता सकें कि उसके सबसे बड़े और सच्चे शुभचिंतक वास्तव में वही हैं.
नरेंद्र मोदी की चार साल पुरानी सरकार ने अपनी पूर्व सहयोगी तेलुगु देशम पार्टी द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव को भारी संख्या बल से गिरा दिया है तो ‘गिरे हुए’ प्रस्ताव को सर्वथा निरर्थक बताने में न हिचकने वाले कई महानुभाव लोकसभा में उस पर हुई समूची बहस को ही ‘वक्त की बरबादी’ बताने पर उतर आये हैं.
काश, वे जानते कि देश का अब तक का संसदीय इतिहास गवाह है कि अविश्वास प्रस्तावों का उद्देश्य हमेशा सरकारें गिराना नहीं होता. होता तो हमारी लोकसभा विश्वास प्रस्तावों को अविश्वास प्रस्तावों से ज्यादा सरकारें गिराते नहीं देखती.
यह भी नहीं ही होता कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारोें का अविश्वास प्रस्ताव से तो बाल भी बांका न हो, लेकिन विश्वास प्रस्तावों पर वे कभी एक वोट से तो कभी मतदान से पहले ही गच्चा खा जाएं.
वैसे भी अविश्वास प्रस्तावों को चर्चा हेतु मंजूर कराने के लिए नियमानुसार पचास सांसदों का समर्थन ही चाहिए होता है. हां, वे जब भी लाए जाएं, अनिवार्य रूप से सरकार को घेरकर कठघरे में खड़ी करने के लिए होते हैं और उनके तुरंत बाद चुनाव होने वाले हों तो उनमें लोकसभाध्यक्ष को कम जनता या कि मतदाताओं को ज्यादा संबोधित किया जाता है.
इस तथ्य से उनकी स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्तापक्ष या विपक्ष का संख्या बल क्या है? तेलुगुदेशम के अविश्वास प्रस्ताव को भी नहीं ही पड़ा.
प्रसंगवश, अगस्त, 1963 में जेबी कृपलानी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ देश का पहला अविश्वास प्रस्ताव रखा तो उसके पक्ष में केवल 62 वोट पड़े थे, लेकिन इससे उसका महत्व कतई कम नहीं हुआ.
1978 में मोरार जी देसाई की सरकार के खिलाफ आए अविश्वास प्रस्ताव के मुकाबले भी नहीं, जिसमें अपनी हार का अंदाजा लगते ही मोरारजी ने मतविभाजन से पहले ही प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था.
सच्चाई तो यह है कि उस पहले अविश्वास प्रस्ताव के जरिये देश की जनता ने आजादी के सोलह साल बाद पहली बार जाना था कि लोकतंत्र में सरकारों को जवाबदेह बनाने का एक औजार यह भी है.
बड़े-बुजुर्ग अभी भी याद करते हैं कि कैसे जेबी कृपलानी के अविश्वास प्रस्ताव पर बहस में 62 सदस्यों वाले विपक्ष ने 347 सदस्यों के भारी बहुमत से आश्वस्त नेहरू सरकार की नाक में दम करके रख दिया था.
इस लिहाज से देखें तो नरेंद्र मोदी सरकार भले ही अपने खिलाफ आये पहले, और संभवतः आखिरी भी, अविश्वास प्रस्ताव को गिराकर, जैसी कि उसकी आदत है, विजयदर्प से भरी जा रही हो, यह नहीं कहा जा सकता कि उस पर बहस में ‘कमजोर’ विपक्ष उसे घेरने में विफल रहा और सरकार ‘और निष्कलंक’ या कि निखरी हुई नजर आई.
बहस को अपनी उपलब्धियों के प्रचार के लिए इस्तेमाल करने का उसका मंसूबा भी नहीं ही पूरा हुआ. इस बहस के हंगामी होने के आसार तो इस तथ्य के बावजूद कि सरकार के भविष्य को कोई खतरा नहीं है, पहले से थे, लेकिन उसमें गरज चमक के दृश्य भी भरपूर देखने को मिले और बारिश भी कुछ कम नहीं हुई.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भाजपा समेत पूरे संघ परिवार पर सीधा हमला बोला और कहा कि प्रधानमंत्री सामने बैठे होने के बावजूद उनकी आंखों से आंखें नहीं मिला पा रहे क्योंकि सच्चे नहीं रह गये हैं, बहस के जवाब में प्रधानमंत्री अपनी उस सीमा के पार नहीं जा सके, जो उन्होंने पिछले चार सालों में खुद बना ली है और जिसके तहत वे, जब भी उन पर कोई आरोप लगाया जाता है, उनका जवाब देने के बजाय आरोप लगाने वाले की आलोचना करने लग जाते हैं.
यही कारण है कि भले ही कांग्रेस को कोसने की उन्होंने अपनी एक भी राजनीतिक चतुराई नहीं छोड़ी, देश को विपक्ष द्वारा उन पर लगाए गए किसी भी आरोप का टु द प्वाइंट उत्तर नहीं मिला.
यों, देश के लोगों को उनके और राहुल दोनों के भाषणों में ‘कुछ ज्यादा’ की तलाश थी, जो पूरी नहीं हुई. दरअसल, दोनों ही पक्ष एक दूजे के खिलाफ ऐसी चार्जशीट बनाने की हड़बड़ी में थे, जिसे बाद में 2019 के लोकसभा चुनाव में जनता की अदालत में पेशकर जता सकें कि उसके सबसे बड़े और सच्चे शुभचिंतक वास्तव में वही हैं.
यकीनन, 2019 की भिड़ंत का एजेंडा सेट करते हुए दोनों पक्षों में से कोई भी इस प्रस्ताव को शक्ति या विश्वास के परीक्षण के तौर पर नहीं देख रहा था. विपक्ष में भी प्रस्ताव के हश्र को लेकर शायद ही किसी को गलतफहमी रही हो.
उसके निकट यह लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरने से पहले का वार्म अप मैच भर था. हां, प्रस्ताव से पहले कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी कह रही थीं कि उनके पास पर्याप्त संख्या बल है, तो यह वैसे ही एक राजनीतिक दांव था, जैसा इस प्रस्ताव पर चर्चा मंजूर कराकर भाजपा ने खेला.
सत्ता में होने के कारण स्वाभाविक ही इस मैच का कार्यक्रम भी भाजपा ने ही बनाया. नरेंद्र मोदी सरकार ने इसमें बैटिंग भी अपनी सुविधा से की और बॉलिंग भी.
वरना तेदेपा ने तो इस प्रस्ताव का नोटिस मार्च में बजट सत्र के दौरान ही दिया था लेकिन तब लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन लोकसभा में हंगामे के चलते उसके समर्थक पचास सांसदों की गिनती ही नहीं कर पाईं. इसलिए कि तब मोदी सरकार पर्याप्त संख्या बल के बावजूद संयुक्त विपक्ष की आलोचना का सामना करने के मूड में नहीं थी, क्योंकि कर्नाटक विधानसभा का चुनाव नजदीक था और वहां से कांग्रेस की बेदखली के लिए उसका आक्रामक रहना परिस्थितियों का तकाजा था. लेकिन मानसून सत्र आया तो उसकी विपक्ष के इस ‘झूठ’ के पर्दाफाश की इच्छा प्रबल हो उठी कि वह चर्चा से भाग रही है.
इसलिए कि अगले विधानसभा चुनाव राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले हैं, जहां उसकी ‘अपनी’ सरकारें हैं, जो बचनी हैं तो उसके अकड़ती दिखने से नहीं, इस विनम्रता के प्रदर्शन से ही बचनी हैं कि ‘मैं गरीब भला आपसे आंख कैसे मिला सकता हूं.’
वरना सत्ताविरोधी लहर का क्या ठिकाना कि वह इन राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्रियों को किस घाट लगा दे. सरकार मार्च में आये अविश्वास प्रस्ताव से इसलिए भी डरी हुई थी कि उसमें मुख्य भूमिका तेदेपा की होनी थी, जिसने उन्हीं दिनों उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से किनारा किया था, जिससे गठबंधन में बिखराव का संदेश प्रसारित होने लग जाने का भी अंदेशा था.
तब नीरव मोदी के बैंक घोटाले का मामला भी नया-नया था और उसके कारण सरकार बैकफुट पर थी. इसलिए तब सरकार ने अविश्वास प्रस्ताव को दरकिनार करने में ही भलाई समझी थी.
हां, अब प्रस्ताव पर चर्चा में न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बल्कि सरकार की ओर से बोलने वाले प्रायः सारे नेताओं/मंत्रियों ने जिस तरह भावनात्मक मुद्दों पर ही तकिया रखा, वह उनकी सुविचारित रणनीति के तहत ही था-विधानसभा चुनाव वाले राज्यों के मतदाताओं को संदेश देने के लिए.
उनका दुर्भाग्य कि वे फिर भी इस वार्म अप मैच का रुख एकतरफा तौर पर अपनी ओर नहीं ही मोड़ सके. न सरकार की नैतिक चमक प्रभावित होने से बच पायी और न प्रधानमंत्री की चैकीदारी ही बेदाग रह पाई.
अलबत्ता, इस प्रस्ताव का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि सत्ता व विपक्ष दोनों को पता चल गया कि संकट की घड़ी में कौन उनके साथ रहने वाला है और कौन नहीं. लोगों ने यह भी देख ही लिया कि अपराजेय संख्या बल के बावजूद भाजपा इसके खेल में उपचुनावों में हार से पैदा हुए इस अहसास से डरी-डरी दिखी कि मोदी की तथाकथित लहर या सुनामी अब शांत पड़ चुकी है और 2019 में सत्ता में वापस आना है तो उसे कुछ नया करना होगा.
बहस के जवाब में प्रधानमंत्री ने खुद को प्रस्ताव से पीड़ित जताने और सहानुभूति पाने के लिए दो परस्परविरोधी बातें कह डालीं. पहली यह कि ‘बेचारा’ विपक्ष संख्याबल के लिहाज से तो कंगाल ही है और दूसरी यह कि वह अस्थिरता पैदा करने के लिए यह प्रस्ताव ले आया.
दरअसल, वे कहना चाहते थे कि विपक्ष, खासकर उसका कांग्रेसी खेमा, अपनी औकात भूलकर उनकी अहर्निश देशसेवा का सिला उन्हें ‘उठो-उठो’ कहकर दे रहा है और इस चक्कर में भूल गये कि बिना संख्याबल वाले विपक्ष पर उनका अस्थिरता के लिए अविश्वास प्रस्ताव लाने का आरोप चस्पां ही नहीं होता.
और बात है कि उनके भाषण से कुछ-कुछ इसका संकेत भी मिल गया कि कोई महीने भर बाद 15 अगस्त को वे लालकिले की प्राचीर से क्या कहने वाले हैं.
अब तक के चलन के उलट विपक्ष, खासकर कांग्रेस को, कथित अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, जम्मू कश्मीर और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर घेरने की उनकी और उनके सहयोगियों की कोशिश ने अविश्वास प्रस्ताव की चर्चा तक की यात्रा कर उनके मंसूबे बहुत कुछ साफ कर दिए हैं.
यह बात भी अब, उन्हें नजर आये या नहीं, लगभग साफ ही है कि विपक्ष ने उन पर और उनकी सरकार पर अविश्वास के जो कारण बताये हैं, उन पर गौर कर और आत्मावलोकन की राह चलकर वे देशवासियों के ज्यादा विश्वस्त हो सकते हैं.
इसके विपरीत अपनी अब तक की ‘परंपरा’ के अनुसार वे नए-नए अविश्वासों की सृष्टि में ही लगे रहे तो क्या पता कि अंजाम क्या हो!
आखिरकार, वे देश को यह कैसे समझा सकते हैं कि कोई सांसद सदन में उनको, जबरन ही सही, गले लगा ले, तब तो उसका आचरण ‘अमर्यादित’ होता ही है, वह अपने किसी दोस्त को आंखों से कोई इशारा करे तो भी दोस्त से ज्यादा प्रधानमंत्री की हेठी होती है.
इतना ही नहीं, विपक्ष उनको घेरने का अपना संवैधानिक दायित्व निभाते हुए भी ‘कुसूर’ ही कर रहा होता है लेकिन वे, उनकी सरकार और उसके नेता व मंत्री सारी लोकलाज बिखराकर विपक्ष के सवालों के जवाब देने के बजाय उलटे उसी पर पिल पड़ें और उसकी लानत मलामत पर उतर आएं तो लोकतंत्र के नए मानदंड निर्मित कर रहे होते हैं!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)