भारत में 80 लाख लोग जी रहे गुलामी का जीवन, विश्व में संख्या सबसे अधिक: रिपोर्ट

मानवाधिकार संगठन 'वॉक फ्री फाउंडेशन' द्वारा जारी वैश्विक दासता सूचकांक के मुताबिक जबरन मज़दूरी कराना, क़र्ज़दारों से काम कराना, जबरन शादी और मानव तस्करी इसका मुख्य कारण हैं.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

मानवाधिकार संगठन ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ द्वारा जारी वैश्विक दासता सूचकांक के मुताबिक जबरन मज़दूरी कराना, क़र्ज़दारों से काम कराना, जबरन शादी और मानव तस्करी इसका मुख्य कारण हैं.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: विश्व में गुलामी का जीवन जी रहे लोगों पर जारी एक मानवाधिकार संगठन की हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत भले ही 70 साल पहले आजाद हो चुका हो लेकिन आज भी यहां विश्व में सबसे अधिक तादाद में गुलाम पाए जाते हैं.

ऑस्ट्रेलिया के ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ के 2018 के वैश्विक दासता सूचकांक में विश्वभर में गुलामी का जीवन जी रहे लोगों के आंकड़े पेश किए गए हैं.

इन आंकड़ों में सामने आया है कि भारत में करीब 80 लाख लोग उक्त अवधि के दौरान गुलामी का जीवन जी रहे थे. यह आंकड़ा विश्व के किसी भी देश से अधिक है. हालांकि, 2016 की अपेक्षा दासता में जी रहे लोगों की संख्या में कमी आई है.

दो साल पहले यह संख्या करीब 1.83 करोड़ थी.

आंकड़े 167 देशों से जुटाए गए थे.

हालांकि, जनसंख्या पर प्रति व्यक्ति प्रतिशत निकाला जाए तो भारत का स्थान 167 देशों में 53वां है. यहां प्रति 1000 व्यक्ति पर दासता का जीवन जी रहे लोगों की संख्या 6.1 है.

इस मामले में उत्तर कोरिया शीर्ष पर आता है. वहां प्रति हज़ार व्यक्ति पर 104.6 लोग आधुनिक दासता के शिकार हैं.

वहीं, भारत का पड़ोसी देश चीन, जो कि एक गैरलोकतांत्रिक देश है, सूचकांक में प्रति हजार पर 2.8 व्यक्ति की दर के साथ सूचकांक में 111वें पायदान पर है.

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, वॉक फ्री फाउंडेशन का कहना है कि इस रिपोर्ट के संदर्भ में विशिष्ट क़ानूनी अवधारणाएं जैसे कि जबरन मजदूरी कराना, कर्जदारों से काम कराना, जबरन शादी, गुलामी और मानव तस्करी जैसे मुद्दे शामिल हैं.

वहीं, रिपोर्ट के परिणामों पर सरकार ने सवाल उठाए हैं और संस्था की प्रश्नावली और सैंपल साइज को गलत ठहराया है.

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का इस पर कहना है कि सूचकांक त्रुटिपूर्ण व्याख्या देता है क्योंकि इस्तेमाल की गई शब्दावली बहुत व्यापक है और ‘जबरन मजदूरी’ जैसे शब्दों को भारतीय संदर्भ में और अधिक विस्तृत तौर पर परिभाषित करने की आवश्यकता है जहां सामाजिक-आर्थिक मानदंडों में विविधता है.