उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस मदन बी. लोकुर ने बच्चों और किशोरों से जुड़े मामलों की सुनवाई करने वाली विशेष अदालतों को संवेदनशील बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए कहा हम इस देश में यूं बर्बर नहीं हो सकते.
इंदौर: उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस मदन बी. लोकुर का मानना है कि बलात्कार और हत्या के जघन्य अपराधों के हर मामले में किशोर मुजरिमों को मौत की सज़ा अनिवार्य तौर पर नहीं सुनाई जा सकती और ऐसे मुक़दमों में सबूतों के आधार पर न्यायिक निष्कर्ष पर पहुंचना ज़रूरी है.
जस्टिस लोकुर ने किशोर न्याय अधिनियम 2015 के प्रभावी क्रियान्वयन पर केंद्रित क्षेत्रीय विमर्श में बीते शनिवार की शाम इंदौर में कहा, ‘हर एक मामले में ऐसा नहीं हो सकता कि जघन्य अपराध करने वाले किसी मुजरिम को सिर्फ इसलिए मौत की सज़ा सुनाई ही जाए कि उसकी उम्र 17 साल या 18 साल के क़रीब है. आपको अब भी सबूतों के आधार पर काम करना होगा और किसी नतीजे पर पहुंचना होगा.’
शीर्ष अदालत की किशोर न्याय समिति के अध्यक्ष ने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि (किशोर मुजरिमों के उक्त संदर्भ में) हर हत्या और प्रत्येक बलात्कार के जुर्म की एकमात्र सज़ा फांसी ही है. मेरा मतलब है कि हम इस देश में यूं बर्बर नहीं हो सकते.’
जस्टिस लोकुर ने बच्चों और किशोरों से जुड़े मामलों की सुनवाई करने वाली विशेष अदालतों को संवेदनशील बनाने की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया. इसके साथ ही, कहा कि लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) के प्रकरणों की सुनवाई करने वाली अदालतों और बाल न्यायालयों की कार्यप्रणाली को बेहतर बनाने के उपाय किए जाने चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘यह देखा जाना चाहिए कि पॉक्सो अदालतें ठीक तरह काम कर रही हैं या नहीं. कुछ अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि ये अदालतें शायद उस तरह काम नहीं कर रही हैं, जिस तरह उन्हें काम करना चाहिए. हमें देखना होगा कि इसके क्या कारण हैं और इस सिलसिले में हमारे सामने कौन-सी चुनौतियां हैं.’
जस्टिस लोकुर ने कहा कि देशभर में बड़ी तादाद में बच्चों के गुम होने, बच्चों की तस्करी और बाल श्रम जैसी समस्याओं से निपटने के लिये केंद्र और राज्य सरकार के अलग-अलग विभागों तथा बाल अधिकार संरक्षण आयोगों का मिलकर काम करना निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण है.
दैनिक जागरण की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस लोकुर ने कहा कि देश में हर साल बच्चों द्वारा करीब 30 हज़ार अपराध किए जाते हैं. चिंता की बात है कि बच्चों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों की संख्या 90 हज़ार से ज़्यादा है. बच्चों द्वारा किए गए अपराध के मामले में सज़ा सुनाते वक़्त हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारे दबाव में कोई बच्चा उस अपराध की स्वीकारोक्ति न कर ले जो उसने किया ही नहीं. उनकी सज़ा के विकल्प पर भी विचार करना चाहिए.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)