हरे पेड़ों को काटने के एवज में नए पेड़ लगाना ऐसी एजेंसियों का पसंदीदा हथियार है, जो समाज और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान की कीमत पर भी विकास को बढ़ावा देना चाहती हैं. उनका मानना है कि पारिस्थितिकी बदलना शहरी विकास के वर्तमान तरीकों को बदलने से ज़्यादा आसान है.
केंद्रीय सरकार की नई दिल्ली पुनर्विकास योजना कुछ समय से सुर्ख़ियों में है क्योंकि इसके अंतर्गत शहर में बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जाने की योजना है. बताया जा रहा है कि इस परियोजना में आधुनिक निर्माण तकनीकों और हरित निर्माण नियमों का पालन किया जायेगा.
लेकिन दिल्ली के नागरिकों द्वारा पूछे गए सवालों के कारण धीरे-धीरे इस परियोजना से होने वाले पारिस्थितिकीय विनाश और पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में पता चल रहा है. कई कॉलोनियों की रेसीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए) और नागरिक संगठनों ने पर्यावरण मंत्रालय को इस परियोजना को दी गयी मंजूरियां रद्द करने के लिए लिखित में अपील की है क्योंकि इससे ‘पेड़ों का बड़ी संख्या में कटान होगा, पानी का अत्यधिक दोहन होगा और धूल व ध्वनि प्रदूषण बढ़ेंगे. दिल्ली पहले से ही गंभीर वायु प्रदूषण की चपेट में है और डॉक्टरों ने नागरिकों, खासकर बच्चों के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को लेकर चेतावनी दी है.’
हर सवाल का केंद्र सरकार के पास एक ही बिना सोचा-समझा जवाब है क्षतिपूरक वनीकरण यानी हरे पेड़ काटे जाने के एवज में नए पौधे लगाना.
आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय का कहना है कि ‘क्षतिपूरक वनीकरण में पौधारोपण 1:10 के अनुपात में लगाए जा रहे हैं, मतलब हर एक पेड़ के नुकसान पर दस पेड़ लगाए जा रहे हैं. यानी 1,35,460 पेड़ लगाए जायेंगे, जिससे एक शहरी जंगल बन जायेगा.’ लेकिन इससे हमारे नीति निर्माताओं की इस विषय समझ कितनी कम है, यह साफ झलकता है.
मंत्रालय के इस फैसले को लेकर आम नागरिकों ने उन्हें प्रतिक्रियाएं दी हैं कि दिल्ली से कोसों दूर पेड़ लगाए जाने से दिल्ली के नागरिकों को प्रदूषित हवा, धूल, गर्मी, और भूमिगत पानी की समस्याओं में कोई मदद नहीं मिलने वाली. इसके अलावा, कुछ अन्य कारण भी हैं जो साबित करते हैं कि क्षतिपूरक वनीकरण महज एक छलावा है, जिसे अत्यधिक संसाधनों का इस्तेमाल करने वाली परियोजनाएं अपने फायदे के लिए उपयोग करती आई हैं.
प्रस्तावित वनीकरण के क्षेत्र का आकलन न होना
पुनर्विकास के लिए चुनी गयीं सात जगहों में से 2 को जो स्वीकृति पत्र दिए गए हैं, उनके अनुसार पूरे बड़े पेड़ों को काटने के बदले, दक्षिणी दिल्ली में कुल 39,550 पौधे लगाए जायेंगे.
नेशनल बिल्डिंग्स कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एनबीसीसी) को 22.54 करोड़ रुपये उप-वनसंरक्षक (डीसीएफ) के पास जमा करने के लिए कहा गया है, जिन्हें दिल्ली वृक्ष संरक्षण अधिनियम, 1994 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए पेड़ अधिकारी का पद दिया गया है.
दिल्ली पुनर्विकास मास्टरप्लान का ‘ओ’ ज़ोन यमुना नदी का बाढ़ क्षेत्र यानी खादर है, जो उत्तर से दक्षिण तक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सीमा के साथ साथ ही चलता है. मास्टरप्लान के अनुसार यह लगभग 9,700 हेक्टेयर क्षेत्र है. इस क्षेत्र को नियमित तौर पर दिल्ली की क्षतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. इस परियोजना के लिए भी पेड़ लगाने के लिए बताया गया क्षेत्र यही है.
अगर इस परियोजना का पारिस्थितिक आधार क्षतिपूरक वनीकरण पर इतना ज़्यादा निर्भर करता है, तो क्या किसी ने अध्ययन करने की कोशिश भी की है कि आख़िर बाढ़ क्षेत्र वनीकरण के लिए उपयुक्त है भी या नहीं? इससे भी ज़्यादा ज़रूरी यह है कि क्या बाढ़ क्षेत्र को जंगल में तब्दील किया जाना चाहिए?
क्या इन क्षेत्रों की अपनी कोई पारिस्थितिकी नहीं है, जो समाज के लिए महत्व रखती है? क्या किसी को यह भी पता है कि इससे नदी पर क्या प्रभाव पड़ेगा जो बाढ़ क्षेत्र और कभी-कभी अपने किनारों से बाहर भी बहती है? परियोजना की रिपोर्ट में इन सवालों का कोई जवाब नहीं है.
अप्रत्यक्ष प्रभाव
सच तो यह है कि पर्यावरण प्रभाव आकलनों (एनवायरनमेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट) में परियोजना की असलियत छुपाने की आदत बन चुकी है, जिससे परियोजनाएं आसानी से स्वीकृत हो जाएं. आदर्श स्थिति तो होनी चाहिए कि अगर ऐसी पुनर्विकास योजनाओं के लिए पेड़ काटने के एवज में किसी अन्य जगह पर बड़ी संख्या पर पेड़ लगाए जाते हैं, तो उस जगह को भी ‘प्रोजेक्ट साइट’ माना जाना चाहिए.
इस बात का ध्यानपूर्वक आकलन किया जाये कि वहां कौन रहता है, उस ज़मीन का किस तरह से उपयोग हो रहा है, वनीकरण के लिए कौन सी स्थितियां मददगार होंगी और कौन सी बाधक, इसका ज़िम्मेदार कौन रहेगा और पौधारोपण परियोजना पर निगरानी कौन रखेगा?
लेकिन इन सब बारीकियों के बारे में कोई नहीं सोचता, तब भी नहीं जब वनीकरण को पेड़ों की कटाई के आसान हल के रूप में पेश किया जाता है.
कई वनीकरण परियोजनाओं में प्राकृतिक वनों की जगहों पर वृक्षारोपण किया गया- इनके कारण जिस ज़मीन का भूमिहीन किसान उपयोग किया करते थे, वो बंद हो गया और ये लोग इन ‘हरे भरे क्षेत्रों’ से विस्थापित हो गए. इसका पर्यावरणविदों और स्थानीय समुदायों की ओर से काफी विरोध हुआ.
इसने यह भी दिखाया कि ‘विकास’ परियोजनाएं न केवल निर्माणाधीन स्थल को बदल देती हैं, बल्कि क्षतिपूरक वनीकरण जैसे तरीकों के चलते दूसरी जगहों पर भी भूमि उपयोग को बदल देती हैं. इस मामले में भी कई नागरिकों ने सही चिंता जताई है कि क्षतिपूरक वनीकरण कारगर नहीं होगा क्योंकि इसके लिए अलग से ज़मीन ही नहीं मिलेगी.
इसलिए यह आश्चर्य या इत्तेफ़ाक की बात नहीं है कि भारत में क्षतिपूरक वनीकरण की सफलता की दर बेहद कम है. नियंत्रक और लेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 – 2017 में दिल्ली में क्षतिपूरक वनीकरण के अंतर्गत पौधारोपण में 67% कमी रही.
2018 की एक कैग रिपोर्ट के अनुसार, ‘एनबीसीसी ने पूर्वी किदवई नगर परियोजना के अंतर्गत 2014 – 2017 के बीच 1,123 पेड़ों को काटने की इजाज़त ली और इसके लिए ज़मानत के रूप में 4.51 करोड़ रुपये जमा किये. डीसीएफ (दक्षिण) ने इजाज़त दी, लेकिन डिवीज़न ने 2014 – 2017 के दौरान कोई क्षतिपूरक पौधारोपण नहीं किया, जबकि एनबीसीसी ने 8,165 पेड़ों की बजाय केवल 1,354 पेड़ ही लगाए. वन विभाग की फाइलों में कोई सबूत नहीं था जिससे सुनिश्चित हो कि एनबीसीसी ने पौधारोपण किया या नहीं.’
बाढ़ क्षेत्रों को खाली पड़ी ज़मीन समझना
शहरी विकास मंत्रालय, जो कि यमुना नदी का बाढ़ क्षेत्र में ‘शहरी जंगल’ पैदा करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध दिखता है, उसे यह पारिस्थितिकीय परिदृश्य एक विशाल खाली क्षेत्र नज़र आता है.
यह पहली बार नहीं है कि किसी परियोजना ने इसे बर्बाद करने की कोशिश की है. आर्ट ऑफ़ लिविंग प्रोजेक्ट और कॉमनवेल्थ खेलगांव निर्माण मामले में चल रहे कानूनी केसों में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही गयीं. इन मामलों में अदालतों ने कहा :
‘नदी का बाढ़ क्षेत्र कोई बेकार पड़ी ज़मीन नहीं है. इसे बंजर ज़मीन की तरह नहीं देखा जाना चाहिए…’ (2016 की ओ.ए. संख्या 65)
‘हालांकि इन शहरी नियोजन प्रस्तावों में ज़ोर दिया गया है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र – दिल्ली के जीवन में नदी को शामिल किया जाये, लेकिन बाढ़ क्षेत्र की पारिस्थितिकीय भूमिका और इसके संरक्षण की आवश्यकताओं, ज़मीन और पानी के आपसी तालमेल और सौंदर्य, मनोरंजन तथा आवाजाही की संभावनाओं पर जितना ध्यान देना चाहिए था, वो नहीं दिया गया है… (2008 की विशेष अवकाश याचिका संख्या 29055 – 29056)
इसके बावजूद, स्वीकृति देने वाले प्राधिकरणों, जैसे पर्यावरण मंत्रालय और वन विभाग अभी भी बाढ़ क्षेत्र को बड़े पैमाने पर पौधारोपण के लिए उपलब्ध जगह के रूप में ही देखते हैं.
क्षतिपूर्ति के खतरे
आज व्यापक रूप से माना जाने लगा है कि हर परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव होते हैं. लेकिन, इस पर ध्यान देना, इसका आकलन करना और इसकी योजना बनाना बेहद ज़रूरी है कि विकास परियोजनाओं की पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति के परिणाम क्या हैं. अक्सर इन्हें ऐसी जगहों और लोगों पर थोप दिया जाता है, जो उस समय आसानी से नज़र में नहीं आते.
क्षतिपूरक वनीकरण उन एजेंसियों का पसंदीदा हथियार है जो समाज और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान की कीमत पर विकास को बढ़ावा देना चाहती हैं. उनका मानना है कि पारिस्थितिकी को बदलना शहरी विकास के वर्तमान रास्ते को बदलने से ज़्यादा आसान है. लेकिन आज के समय में इस धारणा के आधार पर काम करना बेवकूफी होगी.
दिल्ली के नागरिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें शहर के पेड़ों से प्यार है और वे उन्हें कटने नहीं देंगे. और शायद यही वे लोग हैं, जो यमुना के खादर की सरकार के विकास के तरीके से रक्षा कर पाएंगे.
मंजू मेनन और कांची कोहली सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, नई दिल्ली में पर्यावरणीय शोधार्थी हैं.
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. निधि अग्रवाल द्वारा हिंदी में अनूदित.