यह वह दिन है, जब तत्कालीन वित्तमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में वित्तवर्ष 1991-92 का आम बजट पेश करते हुए भारत के आर्थिक नीतियों में बदलाव की घोषणा की थी.
आज 24 जुलाई है और देश के नए-पुराने इतिहास के लिहाज से हमारे पास इसे याद करने के बहुत से संदर्भ हैं. जैसे यह ‘भारत कुमार’ के नाम से चर्चित लोकप्रिय फिल्म अभिनेता मनोज कुमार (जन्म: 1937), शायर नाजिश प्रतापगढ़ी (जन्म: 1924), स्नूकर और बिलियर्ड्स खिलाड़ी पंकज आडवाणी (जन्म: 1985) और विप्रो कारपोरेशन के अध्यक्ष व बहुचर्चित उद्योगपति अजीम प्रेमजी (जन्म: 1945) का जन्मदिन तो है ही, हिंदी व बंगला फिल्मों में अभिनय के नए प्रतिमान रचने वाले अभिनेता उत्तम कुमार (निधन: 1980) के साथ मशहूर वैज्ञानिक व शिक्षाविद यशपाल (निधन: 2017) की पुण्यतिथि भी है.
देश की सीमा के पार जाएं तो 1823 में इसी दिन चिली ने मानव इतिहास की क्रूरतम विडम्बनाओं में से एक दास प्रथा का जुआ अपने कंधों से हमेशा के लिए उतार फेंका और उसके कलंक से मुक्ति पा ली थी.
लेकिन आप देश में चौतरफा व्याप रहे भूमंडलीकरण की सर्वग्रासी व मानवविरोधी नीतियों से पीड़ित हैं और उनसे निजात पाना चाहते हैं तो आपको अपने निकटवर्ती इतिहास की एक और चौबीस जुलाई को याद करना होगा: 24 जुलाई, 1991 को. अलबत्ता, कभी न भूले जा सकने वाले सबक की तरह.
दरअसल, यह वह दिन है, जब तत्कालीन वित्तमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में वित्तवर्ष 1991-92 का आम बजट पेश करते हुए स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान नौ अगस्त, 1942 को शुरू किए गए ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की समूची भावना को पलट दिया था.
प्रसंगवश, 1942 में अंग्रेज शासकों के हाथों अपनी दुर्दशा से त्रस्त होकर हमने कहा था कि वे हमें हमारे हाल पर छोड़कर चले जायें, ताकि हम अपने भविष्य का खुद अपने हाथों निर्माण कर सकें.
लेकिन 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव और वित्तमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की जोड़ी को स्वर्णभंडार गिरवी रखने की हद तक खस्ताहाल हो चुकी देश की अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए भूमंडलीकरण नाम की ‘सर्वाइबल आफ द फिटेस्ट’ की नई व्यवस्था की अगवानी और उसके तहत विदेशी पूंजी का बेरोकटोक प्रवाह सुनिश्चित करना ही एकमात्र तरीका दिखा.
तब उन्होंने महात्मा गांधी के दरिद्रनारायण यानी देश के जनसाधारण को तो भगवान भरोसे छोड़ ही दिया, स्वावलम्बन व आत्मनिर्भरता जैसे मूल्यों को धता बता कर, प्रकारांतर से, दुनिया भर के ‘अंग्रेजों’ को भारत वापस आने का न्यौता दे डाला.
हमारा वर्तमान गवाह है कि उनका यह न्यौता एक ऐसे अर्थतंत्र की विधिवत स्थापना का श्रीगणेश था, जो राजनीति से नियंत्रित होने के बजाय खुद उसे नियंत्रित करने का अभिलाषी था. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मार्फत राष्ट्र-राज्य की शक्तियों के घोर अतिक्रमण का महत्वाकांक्षी भी.
सच पूछिये तो यह एक जनतांत्रिक देश में अंतरराष्ट्रीय पूंजी के सर्वव्यापीकरण की शुरुआत थी, जो गांव के स्थान पर नगर तथा नागरिक के स्थान पर उपभोक्ता को स्थापित करने वाली थी. यह उस मिश्रित अर्थव्यवस्था की अन्त्येष्टि या कि असफलता की आधिकारिक घोषणा भी थी, जिसे आजादी के नायकों ने देश के लिए मुफीद मानकर चुना था.
नए अर्थतंत्र में भारतीय राष्ट्र-राज्य को अनिवार्य रूप से अपनी संप्रभुता के कुछ भागों की बलि चढ़ाकर अपने संस्थागत उत्तरदायित्वों के निरंतर क्षरण की पटकथा लिखनी थी, जबकि 1942 में देश इसी खोई हुई संप्रभुता को पाने के लिए ‘करो या मरो’ की स्थिति से गुजरता हुआ इसमें बाधक अंग्रेजों से देश छोड़कर चले जाने को कह रहा था.
अकारण नहीं कि बाद में प्रधानमंत्री बनने पर भी डाॅ. मनमोहन सिंह अर्थशास्त्र की उस कुख्यात ट्रिकिल डाउन थियरी के सबसे बड़े पैरोकारों में शामिल रहे, जो मानती है कि सत्तातंत्र द्वारा अमीरों का आर्थिक संरक्षण व पोषण अंततः समूचे देश के समग्र व समावेशी विकास का महत्वपूर्ण लाभकारी कारक बन जाता है क्योंकि अमीरों द्वारा किए जाने वाले बेपनाह खर्चों की मार्फत अमीरी क्रमशः छनकर तीन पायदान नीचे खिसक आती और कमजोर व वंचित वर्गों की रोजी-रोटी की समस्याओं का समाधान कर उन्हें गरीबी के दल-दल से बाहर खींच लाती है.
आज यह तो नहीं कह सकते कि अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को इस तथ्य का पता नहीं था कि आमतौर पर अमीरी को छनकर नीचे उतरना कतई कुबूल नहीं होता और वह कपूर की तरह ऊपर ही ऊपर उड़ती रह जाती है क्योंकि उसके लिए सबसे ऊपर उसका स्वार्थ ही होता है.
उसका कोई देश नहीं होता और न ही उसके पास देशप्रेम जैसी कोई चीज होती है. इसलिए यही कहना होगा कि तब उन्होंने किसी मजबूरी के तहत जानबूझकर उसकी अवज्ञा कर दी थी.
अब, जब वे प्रधानमंत्री के रूप में अपनी दस साल लंबी पारी तो खत्म कर ही चुके हैं, उनके उत्तराधिकारी नरेंद्र मोदी ने भी पिछले चार सालों में उनकी बनाई नीतियों में किसी परिवर्तन की जरूरत नहीं महसूस की है और देश को उन्हीं के हाइवे पर उनसे ज्यादा तेज गति से दौड़ाए लिए जा रहे हैं, किसी को नहीं मालूम कि इन नीतियों के ढाई से ज्यादा दशकों में देश में जितनी तेजी से खरबपतियों, अरबपतियों व करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है, उनके देश छोड़ जाने की गति उससे कहीं ज्यादा तेज होती गई है.
न्यू वर्ल्ड वेल्थ और एलआईओ ग्लोबल की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2014 के चौदह बरसों में ही कोई इकसठ हजार हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स यानी खरबपति-अरबपति भारत छोड़कर जा चुके थे और इसे महज संयोग नहीं कह सकते कि इन जाने वालों का सबसे पसंदीदा देश वह ब्रिटेन ही था, डाॅ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में अपनी लंदन यात्रा के दौरान भारत में जिसके रंगभेदी व शोषक राज की जमकर तारीफ कर आये थे.
नरेंद्र मोदी राज में भी यह सिलसिला थमा नहीं है. घोटाले करके देश के धन पर कुंडली मारकर बैठ जाने वाले नीरव मोदियों और विजय माल्याओं को छोड़ दें तो भी खरबपतियों-अरबपतियों के पलायन के लिहाज से भारत दुनिया भर में चीन के बाद दूसरे स्थान पर जा पहुंचा है.
ये खरबपति-अरबपति अपने पलायन के मुख्य रूप से तीन कारण बताते हैं. पहला, ‘भारी भरकम’ कराधान, दूसरा, सुरक्षा को खतरा और तीसरा, बच्चों की बेहतर शिक्षा की सुविधाओं का अभाव. लेकिन इन कारणों पर विचार करते हुए वे उन सहूलियतों पर तनिक भी नहीं सोचते, जो उन्हें इस देश में मिलीं और जिनके कारण वे अमीर होकर विदेश में जा बसने लायक हुए.
इससे पैदा हुई विसंगतियों पर गौर करें तो एक ओर हमारे प्रधानमंत्री दुनिया भर में घूम-घूमकर पूंजीनिवेश आमंत्रित करने को अभिशप्त हैं, प्रवासियों को पटाने के लिए उन्हें अनेक लाल गलीचों का लालच दे रहे हैं और दूसरी ओर हम अपने ही देश की व्यवस्था व संसाधनों का लाभ उठाकर ऊंचे उठे खरबपतियों व अरबपतियों की बड़ी संख्या को गवां दे रहे हैं.
हमारे उद्योगपति हमसे ही कमाये मुनाफे की बिना पर बाहर जाकर विदेशी कम्पनियों का अधिग्रहण कर रहे हैं और हम अपनी अर्थव्यवस्था के बूम के लिए विदेशी निवेशकों का मुंह जोह रहे हैं.
ऐसे में यह जानना भी बहुत दिलचस्प है कि खरबपतियों व अरबपतियों की तेज बढ़वार और उनके पलायन की भेड़चाल का देश के गरीबों को कितना लाभ मिल रहा है?
बहुत दूर जाने या बहुत गहरे अध्ययन की जरूरत नहीं, इसे समझने के लिए यह मिसाल ही काफी है कि उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के अतरौलिया थाना क्षेत्र का बूढ़नपुर निवासी एक दलित छात्र पॉलिटेक्निक प्रवेश परीक्षा में खासी अच्छी रैंक से पास होने के बाद भी प्रवेश के लिए जरूरी शुल्क जुटाने में असफल रह जाता तो इससे पैदा हुई निराशा में अपना गला काट लेता है.
फिर भी हम ऐसी गलाकाट व्यवस्था को ढोते जा रहे हैं, जो निवेशकों के लिए बांहें फैलाए हुए है और वंचित नागरिकों के लिए सारे दरवाजे बंद करती जा रही है. दूसरी ओर अपनी अमर्यादित समृद्धि के बूते खरबपति-अरबपति अपनी शर्तों पर ही देश में रहना और कारोबार करना चाहते हैं.
इंस्पेक्टर राज का खात्मा, सेज और मन मुताबिक श्रम सुधार जैसी तमाम सहूलियतें उन्हें छोटी लगती हैं और खुद पर निर्भरता की हमसे और बड़ी कीमत वसूलना चाहते हैं.
आखिर में यह कहे बिना बात अधूरी रहेगी कि जब इन नीतियों के प्रवर्तन के कारण 1991 में उस 24 जुलाई के प्राण-प्रण से प्रतिरोध की जरूरत थी, तब हमारे आज के सत्ताधीश, विपक्ष में होने के कारण यह प्रतिरोध जिनका पहला दायित्व था, अयोध्या में ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण के लिए ‘मरे’ जा रहे थे.
वे उस वक्त अपना दायित्व निभाते तो हम आज ऐसी दुर्दशा को प्राप्त नहीं होते, जिसमें सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था का तमगा भी हमारे किसी काम का नहीं रह गया है. मुजफ्फर ‘रज्मी’ ने अपने एक प्रसिद्ध शेर में ठीक ही कहा है: यह जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने, लमहों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)