कांग्रेस ने यह संकेत दिया है कि राहुल की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए वह भाजपा के ख़िलाफ़ प्रस्तावित विपक्षी महागठबंधन को ख़तरे में नहीं डालने वाली.
देश की सत्ता की दौड़ में शामिल दोनों बड़ी पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस, ने इधर जैसी तेजी से इलेक्शन मोड में आकर अपने चेहरे-मोहरे दुरुस्त करने शुरू किए हैं और उनकी देखा-देखी बहुमत के तराजू के पलड़े ऊपर नीचे करने में पासंगों का काम करने वाले क्षत्रपों ने अपने-अपने तीर तरकश सहेजने शुरू किए हैं, उससे लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों का परिदृश्य साफ होने में अब ज्यादा देर नहीं है.
इन पार्टियों की कवायदों से यह एक बात तो अभी से साफ हो गयी है कि चुनाव की रणभेरी जब भी बजे और उसमें जो भी गणित या समीकरण बनें या चलें, राजनीतिक महारथी नीतियों, कार्यक्रमों और सिद्धांतों पर ज्यादा निर्भर नहीं करने वाले.
कारण यह कि अब ये पार्टियां न लोकतंत्र को जीवनदर्शन मानती हैं, न ही अपने अस्तित्व की अनिवार्य शर्त. इसीलिए न उनमें कोई नीतिगत अलगाव बचा है, न ही वास्तविक प्रतिपक्ष. सबकी सब आंतरिक लोकतंत्र से पूरी तरह महरूम हो चुकी हैं और उनके निकट लोकतंत्र अपने किसी भी रूप में सत्ता की प्रतिद्वंद्विता की सुविधा भर रह गया है.
इससे, स्वाभाविक ही, नीतियां हों या नियम, सब फिजूल या ‘कहने की बातें’ होकर रह गए हैं और जहां तक तकिए की बात है, वह सारा का सारा नेताओं के चेहरों व मोहरों पर ही रखा जाने लगा है.
आपको याद होगा, इन दिनों सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्षी पार्टी के तौर पर 2014 का लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ा था- बाकायदा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर और विकास का महानायक बनाकर.
तब कांग्रेस की ओर से न तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह उनके सामने ठहर सके थे, न ही प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारियां निभाने को लेकर ‘अगंभीर’ बताये जाने वाले राहुल गांधी. सो, मोदी का ‘जादू’ चल गया था और बाजी भाजपा के हाथ रही थी. बाद में दिल्ली, बिहार, पंजाब और कर्नाटक को छोड़ कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में भी उनका जादू कम या ज्यादा भाजपा के काम आता रहा.
ऐसे में पिछले चार सालों में उनके करिश्मे के उतार पर आ जाने के बावजूद भाजपा 2019 के लिए उन्हीं पर निर्भर कर रही है और उन्होंने उसके अध्यक्ष अमित शाह के साथ अघोषित तौर पर ही सही, अपना अभियान शुरू कर दिया है, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं.
हां, तब चेहरों की लड़ाई में पिछड़ गयी कांग्रेस अपने सारे दुर्दिनों के बावजूद इस बार कतई चूकना चाहती और इधर उसके लिहाज से एक अच्छी बात यह दिखती है कि अब वह और उसके नेता अपने ऊंट को कभी इस तो कभी उस करवट बैठाकर भाजपा के खेमे को मुश्किल में डालना और छकाना सीख गए हैं.
इसे यूं समझ सकते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव के वक्त जब यह कहा कि 2019 में उनकी पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहता है, तो वे प्रधानमंत्री जरूर बनेंगे, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां की अपनी जनसभाओं में सारा जोर यह सिद्ध करने में लगा दिया कि राहुल का ऐसा कहना कांग्रेस के उनसे वरिष्ठ नेताओं की ‘सीनियॉरिटी’ का अपमान तो है ही, उसके प्रस्तावित गठबंधन के नेताओं की ‘संभावनाएं’ कमजोर करना भी है.
इधर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल को पार्टी का शुभंकर घोषित करते हुए कहा गया है कि आगे किसी भी मुहिम में पार्टी का चेहरा वही होंगे और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी यह कहकर उनकी लाइन क्लियर कर दी कि देशहित में वे राहुल का समर्थन करेंगे, तब तो प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी ने अपनी उक्त प्रतिक्रिया की बची-खुची हदें भी तोड़ दीं.
शायद इसीलिए अब जब कांग्रेस ने अपनी ओर से साफ कर दिया है कि लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री के रूप में उसे विपक्ष का ऐसा कोई भी नेता स्वीकार होगा, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि का न हो, तो भाजपा के प्रवक्ताओं को समझ में नहीं आ रहा कि वे उस पर कैसे प्रतिक्रिया दें.
यकीनन यह कांग्रेस की राजनीतिक चतुराई ही है कि उसने अपनी ओर से 2019 में मुकाबले के मोदी बनाम राहुल होने में कोई संदेह नहीं रहने दिया है, लेकिन यह भी जता दिया है कि राहुल की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए भाजपा के खिलाफ प्रस्तावित विपक्षी महागठबंधन को खतरे में नहीं डालने वाली.
बहुत संभव है कि इसके पीछे राहुल की ही ‘दूरदर्शिता’ हो. वैसे भी गत 20 जुलाई को अविश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में हुई बहस में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जैसी चुनौती दी, उससे, उनके कई विरोधी भी मानते हैं कि उन्होंने उनमें एक नया राहुल देखा, और वो जो भी हो, ‘पप्पू’ तो एकदम नहीं था.
तभी तो उसने न सिर्फ प्रधानमंत्री बल्कि भाजपा समेत समूचे संघ परिवार व सरकार को अपने गंभीर व अगंभीर दोनों तरह के सीधे हमलों से तो छकाया ही, कभी अप्रत्याशित रूप से गले मिलकर तो कभी आंख मारकर महफिल लूट ली और उन्हें रक्षात्मक होने पर मजबूर किया. इससे न सिर्फ उसका ‘प्रशिक्षण’ पूरा हो जाने का संकेत मिला, बल्कि यह भी कि नयी और गंभीर भूमिकाएं निभाने में हिचक वाले दिन वह पीछे छोड़ आया है.
एक विश्लेषक ने तो इसे राहुल द्वारा प्रधानमंत्री के खिलाफ की गई सर्जिकल स्ट्राइक भी बता डाला है- अलबत्ता, प्रेम की सर्जिकल स्ट्राइक.
यूं प्रधानमंत्री के गृहराज्य गुजरात के विधानसभा चुनाव में उनके जमीनी बताये जाने वाले करिश्मे को कड़ी टक्कर देकर जीतते-जीतते रह जाने और कर्नाटक में जनता दल सेकुलर से नया गठबंधन कर सत्ता की हारी हुई बाजी पलटने में सफल हो जाने का श्रेय भी कांग्रेस द्वारा राहुल के ही खाते में डाला जाता रहा है.
इनमें जनता दल सेकुलर से गठबंधन का इतना लाभ तो कांग्रेस को, कर्नाटक में मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के आंसुओं से सनी किचकिच के बावजूद फौरन मिलता दिखाई दिया कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने बिना देर किए कह दिया कि उनके जनता दल सेकुलर को राहुल की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से कोई दिक्कत नहीं है.
उनका यह कहना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि उत्तर प्रदेश के सभी चार लोकसभा उपचुनावों में सपा व रालोद के बैनर पर साझे विपक्षी प्रत्याशियों की विजय से पैदा हुए उत्साह के माहौल में कांग्रेस 2019 को लेकर देशव्यापी गठबंधन की संभावनाएं तलाश रही है.
इस क्रम में वह अलग-अलग राज्यों की राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप भाजपा को टक्कर देने में समर्थ क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों से समझौते के फेर में है. पिछले दिनों इसे उसकी कमजोरी मानकर संभावित गठबंधन के साझीदार दलों ने अपने-अपने सूत्रधारों को प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर किया था.
स्वाभाविक ही कई भाजपा समर्थक विश्लेषक इस नतीजे पर पहुंच गए थे कि वे राहुल का प्रधानमंत्रित्व तो कतई नहीं स्वीकार करने वाले. अब कांग्रेस की ओर से यह कहकर उनकी मुश्किलें बढ़ा दी गई हैं कि वे राहुल को नहीं तो कांग्रेस ही उनमें से किसी गैरसंघी पृष्ठभूमि वाले नेता को स्वीकार कर लेगी.
अब प्रस्तावित विपक्षी गठबंधन के ऐसे विरोधियों के मुंह तो बंद ही हो जाने चाहिए, जो कह रहे थे कि वहां तो प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की भीड़ ही सारा गुड़ गोबर कर डालेगी.
एक कार्टूनिस्ट ने तो अपने कार्टून में यहां तक लिख दिया था कि राहुल के लिए लोकसभा में प्रधानमंत्री को गले लगाना तो फिर भी सरल था, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों को गले लगाना गरल का पान करने जैसा होगा. लेकिन लगता है कि राहुल और कांग्रेस समझ गए हैं कि उनकी जीत, अगर वे उसके हकदार हैं, तो वह इस गरलपान के डर के आगे ही है.
इसलिए और भी कि अब मोदी या भाजपा की लोकप्रियता का वैसा डर नहीं रह गया है, जैसा दो तीन साल पहले दिखता था और जिसके चलते अनेक क्षेत्रीय दलों को अपना अस्तित्व तक खतरे में दिखाई देता था, इसलिए भावी गठबंधन की शर्तें तय करते वक्त उनकी महत्वाकांक्षाएं और स्वार्थ पांव पसारेंगे ही.
इसीलिए जैसा राहुल गांधी न सिर्फ अपनी पार्टी को आगे की कठिन लड़ाई में प्राणप्रण से और एकजुट होकर जूझने को कह रहे हैं, प्रस्तावित विपक्षी गठबंधन की राह के कांटे भी बुहार रहे हैं.
अलबत्ता, वे आश्वस्त हैं कि 2019 में विपक्ष के सेनापति भले ही अलग-अलग क्षेत्रों में अलग अलग रहें, देशव्यापी उपस्थिति कांग्रेस की ही होगी और अपर हैंड भी उसका ही रहेगा.
हां, 2014 के मुकाबले इस बार राहुल की एक बड़ी सुविधा यह भी है कि अब उनकी पीठ पर किसी मनमोहन सरकार के किए-धरे का बोझ नहीं है और वे 20 जुलाई की ही तरह संघ, भाजपा, नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर भरपूर आक्रमण कर उसके खिलाफ असंतोष भड़काकर उसका लाभ उठा सकते हैं.
इन दिनों वे जिस तरह सत्तापक्ष की आंखों में गड़ रहे हैं, वह भी उनके पक्ष में जाता है. उनके द्वारा मोदी के ‘नये भारत’ को ‘क्रूर’ बताने और जवाब में भाजपा द्वारा उन्हें ‘मर्चेन्ट आॅफ हेट’ कहने का सिलसिला आगे बढ़ा तो वैसे भी मुकाबला ‘मोदी बनाम राहुल’ होने में देर नहीं लगेगी. तब लोकसभा में जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी बड़ी दावेदारी होगी.
अच्छी बात है कि उनकी पार्टी ने समय रहते अपनी तन्द्रा त्याग दी है और प्रमुख विपक्षी दल की अपनी भूमिका के प्रति गंभीर दिखने लगी है. भले ही इन दिनों वह सिर्फ पांच राज्यों में सत्ता में है, देश भर में सांगठनिक उपस्थिति के कारण वह नरेंद्र मोदी की रीति-नीति से नाखुश सारे हलकों की उम्मीदों के केंद्र में है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)