क्या सचमुच ‘भूतों’ के पेट में जा रहा है मिड डे मील?

आधार के समर्थन में आई कुछ मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया कि लाखों ‘छात्रों के भूत’ मिड डे मील का लाभ उठा रहे हैं. ये दावे न तो प्रमाणिक हैं, न गंभीर जांच पर आधारित हैं.

/

आधार के समर्थन में आई कुछ मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया कि लाखों ‘छात्रों के भूत’ मिड डे मील का लाभ उठा रहे हैं. ये दावे न तो प्रमाणिक हैं, न गंभीर जांच पर आधारित हैं.

aadhar
प्रतीकात्मक तस्वीर. फोटो साभार: ILO in Asia and the Pacific/ Flickr (CC BY-NC-ND 2.0)

मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा मिड डे मील के लिए आधार को अनिवार्य किये जाने की अधिसूचना जारी किये जाने के कुछ दिनों के भीतर ही इस योजना में भ्रष्टाचार की खबरें मीडिया की सुर्खियों में छा गयी. कुछ इस तरह जैसे, उन्हें कोई सूत्र मिल गया हो.

आधार संबंधी प्रोपगेंडा से जो लोग वाकिफ हैं, उन्हें इसमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ. किसी दावे की छानबीन करने की जरूरत महसूस किए बगैर मीडिया एजेंसियों और टिप्पणीकारों द्वारा भ्रष्टाचार की भरमाने वाली खबरों की पोटली खोल दी गई.

पहली रिपोर्ट एक चैनल ने झारखंड के सबसे गरीब जिले साहेबगंज की राजगढ़ पहाड़ी पर जाकर की. अगर आप काफी अंदरूनी हिस्सों में जाएं, तो बहुत मुमकिन है कि आपका सामना ज्यादातर समय बंद रहने वाले स्कूलों से हो जाए.

इस टीवी चैनल के दल ने भी कुछ ऐसा ही देखा- दो लगभग बंद पड़े हुए स्कूल. हमें कहा गया कि मिड डे मील की व्यवस्था न होने के कारण स्थानीय बच्चे चूहे और खरगोशों पर अपना गुजारा कर रहे हैं.

यह एक हिला देने वाली खबर है, लेकिन हकीकत में इसका मिड डे मील में व्याप्त भ्रष्टाचार से कोई ताल्लुक नहीं है. यह सिर्फ कागज पर ही मौजूद दो स्कूलों कहानी है. न इससे ज्यादा, न इससे कम.

आगे बढ़ें, तो यह समझना होगा कि स्थानीय बच्चों के आधार नंबर को डेटाबेस में दर्ज करने से ही समस्या का समाधान नहीं होगा. सैद्धांतिक रूप में बात करें, तो दैनिक बायोमेट्रिक सत्यापन से स्कूलों को पुनर्जीवित किया जा सकता है, लेकिन ग्रामीण झारखंड के लिए यह तकनीक किसी काम की नहीं है.

यहां तक कि रांची में भी सरकारी कर्मचारियों की ‘आधार’ आधारित बायोमेट्रिक हाजिरी बेकार ही पड़ी है. दो दिन पहले एक और भरमाने वाली खबर एक राष्ट्रीय अखबार में प्रकाशित हुई. इसका शीर्षक था: ‘मिड डे मील योजना: आधार ने तीन राज्यों में 4.4 लाख फर्जी विद्यार्थियों का पता लगाया’.

कुछ दिनों के अंदर ही 4.4 लाख फर्जी विद्यार्थी या भूत का पता लगना, अब तक के सारे रिकॉर्डों को तोड़ने वाला है. एक बार फिर एक दावे को तथ्यात्मक सूचना के तौर पर बरता गया और मुख्यधारा के मीडिया ने इसे जमकर प्रसारित करने का काम किया.

इस खबर का संबंध जिन तीन राज्यों से है, उनमें एक है झारखंड. झारखंड के संबंधित विभाग ने इस संबंध में मुझे विस्तार से स्पष्टीकरण दिया. उनके कहने का लब्बोलुआब यह था कि इसका संबंध किसी भी तरह से मिड डे मील से नहीं है.

हो यह रहा है कि झारखंड के सभी स्कूली विद्यार्थियों, फिर चाहे वे निजी स्कूल में दाखिल हों, या सरकारी स्कूल में, का आधार नंबर इकट्ठा किया जा रहा है. इसका उद्देश्य बच्चों को निगरानी में लाना है. इस क्रम में यह बात सामने आयी कि कई बच्चों का नाम सरकारी स्कूलों के साथ-साथ निजी स्कूलों में भी लिखवाया हुआ है.

ऐसा खासकर शहरी क्षेत्रों में ज्यादा देखा गया. अपने आप में यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं है. यह दशकों से, न सिर्फ झारखंड में बल्कि अन्य राज्यों में भी गैर-मान्यता प्राप्त प्राइवेट स्कूलों द्वारा इस्तेमाल में लाई जा रही एक तरकीब है.

इसका एक मकसद यह सुनिश्चित करना है कि इन स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों को भी सर्टिफिकेट मिल सके. शायद यह एक खराब रिवाज है, लेकिन ‘आधार’ के जरिये ऐसे बच्चे को पकड़ना समस्या का कोई समाधान नहीं है.

यह मुद्दा स्कूल प्रणाली के गहरे संकट हो दिखाता है, जो अब ज्यादा गंभीर हो गया है, क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत ऐसे गैर-मान्यताप्राप्त सरकारी स्कूल तकनीकी रूप से गैर-कानूनी हैं.

इसी लेख में यह कहा गया कि ‘झारखंड में 2.2 लाख फर्जी विद्यार्थियों का नाम स्कूली रिकॉर्ड से काट दिया गया है.’ लेकिन संबंधित विभाग ने इससे इनकार किया.

वास्तविकता यह है कि सरकारी स्कूल के रजिस्टर से दोहरे नामांकन वाले छात्रों का नाम काटना अपने आप में कोई हल नहीं है. इसका परिणाम इन छात्रों को गैर-कानूनी स्कूलों के हवाले करना होगा. जबकि जरूरत यह है कि इन छात्रों के लिए स्कूल प्रणाली में सही जगह का निर्माण किया जाए, जो कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के नियमों के अनुरूप हो.

जैसा कि जाहिर है, यह भी मिड डे मील से जुड़ा मसला नहीं है. मिड डे मील के लिए भोजन खाद्य सामग्री और धन का आवंटन हाजिरी के आधार पर किया जाता है, न कि नामांकन के आधार पर.

रिकॉर्ड के मुताबिक झारखंड में वर्तमान समय में 48 लाख बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, लेकिन किसी भी औसत दिन 30 लाख बच्चों का ही भोजन पकता है और उतने के बराबर ही पैसा दिया जाता है.

यह आंकड़ा असामान्य ढंग से ज्यादा होने की जगह, चिंताजनक रूप से कम है. झारखंड के अनुभव की बात करें, तो इन स्थिति के कारणों में कम दैनिक हाजिरी और धन के आवंटन में देरी- दोनों शामिल हैं.

यह मामला प्राथमिकता के आधार पर जांच और कार्रवाई की मांग करता है, लेकिन यह अपने आप में भ्रष्टाचार का कोई सबूत नहीं है. ऊपर दिये गये तर्कों का उद्देश्य सार्वजनिक खर्च के दूसरे क्षेत्रों की ही तरह मिड डे मील योजना में भ्रष्टाचार को नकारना नहीं है.

मेरा पक्ष यह है कि मिड डे मील संबंधित भ्रष्टाचार- पहली बात, बहुत बड़ा नहीं है. दूसरी बात, यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे आधार द्वारा रोका जा सकता है. इस भ्रष्टाचार का पता लगाने के लिए गंभीर जांच की दरकार है, न कि लापरवाह ढंग से बिना सबूत के किये गये दावों का प्रसार करने की.

(ज्यां द्रेज रांची विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट आॅफ इकोनाॅमिक्टस में विजिटिंग प्रोफेसर हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq