प्रेमचंद का ‘सूरदास’ आज भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है

1925 में आए प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि में किसान सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ खड़े हो जाते हैं. जो बात रंगभूमि में सूरदास ने कहने की कोशिश की थी, वही आज जब कोई किसान कह रहा है तो उसे निशाना साधकर गोली मारी जा रही है.

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1925 में आए प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि में किसान सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ खड़े हो जाते हैं. जो बात रंगभूमि में सूरदास ने कहने की कोशिश की थी, वही आज जब कोई किसान कह रहा है तो उसे निशाना साधकर गोली मारी जा रही है.

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प्रेमचंद (जन्म: 31 जुलाई 1880 – अवसान: 08 अक्टूबर 1936) (फोटो साभार: stampboards.com)

31 जुलाई… यह तारीख हिंदी भाषी जनता के लिए महत्वपूर्ण वज़ह उपलब्ध कराती है कि वह अपने शानदार और जमीनी लेखक प्रेमचंद की उपस्थिति का जश्न मनाए. मध्यकालीन भक्त संतों के बाद वे ऐसे पहले लेखक हैं जो बीसवीं शताब्दी के पहले पचास वर्षों में उतने ही लोकप्रिय थे जितने आजादी के बाद के वर्षों में.

पचास करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाले हिंदी प्रदेश की यदि कोई वैचारिक भूमि और साहित्यिक दृष्टि अस्तित्व में है और उसके सोचने-समझने की साझा भूमि विकसित हुई है तो इसे बनाने में जिन लोगों का योगदान हो सकता है तो उसमें प्रेमचंद सबसे अव्वल दर्ज़े पर स्थित हैं.

कदाचित भारत का ऐसा कोई रेलवे जंक्शन होगा जहां उनके उपन्यास और कहनियों के संग्रह न बिकते हों. हिंदी प्रिंट की दुनिया में वे कबीर और तुलसीदास के बाद पहले लेखक हैं जिन्हें अर्ध साक्षर और निरक्षर जनों ने अपनाया है. पढ़े-लिखे लोगों के बीच वे लगातार चर्चा में तो रहे ही हैं.

प्रेमचंद ने अपने युग के अनुरूप उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में आरम्भिक शिक्षा पाई थी. इसके बाद उन्होंने किस्सागोई की उर्दू परंपरा से अपनी शुरुआत की. उन्होंने कुछ ही समय के बाद अपने आपको हिंदी भाषा के संसार में झोंक दिया.

यह वही युग था जब अल्ताफ हुसैन हाली और महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी-उर्दू की दुनिया की आधारभूमि बना रहे थे. बंगाल विभाजन होकर समाप्त हो चुका था. गांधी हमेशा के लिए भारत आ चुके थे और ब्रिटिश उपनिवेशवाद अपने चरम पर था.

1920 से 1936 तक के दौर में जब प्रेमचंद लिख रहे थे तो भारत में रेलवे का अंतिम विस्तार हो चुका था और अंग्रेजों का समर्थन करने वाला एक अभिजात वर्ग अस्तित्व में आ चुका था. भारत के अंदरूनी इलाक़े सड़कों से जोड़े जा रहे थे.

नकदी फसलें किसानों की परेशानियां बढ़ा चुकी थीं और अब भारत में सिगरेट की फैक्ट्रियां लगायी जा रही थीं. गन्ना एक नकदी फसल बन चुकी थी और कोल्हू से पेरे जाने वाले गन्ने के गुड़ की जगह चीनी मिलों में बनने वाली चीनी छोटे कस्बों तक पहुंच गयी थी.

भारत के गांवों में गन्ने की खेती करने वाले बड़े जमींदार और शहरों में मिल मालिक, बैंकर और दलाल अस्तित्व में आ चुके थे. उनका उपन्यास गोदान उपनिवेशवाद के इसी विस्तार का इतिहास है.

जालियांवाला बाग हत्याकांड हो चुका था, अंग्रेजी शासन की राजनीतिक रियायतों ने रायसाहबों का एक नया वर्ग पैदा किया था. डाक्टर आंबेडकर विदेश से पढ़कर वापस आ चुके थे. उनके और उनसे भी पहले अछूतानंद के प्रयासों से दलित समुदायों में एक दबा-दबा सा आत्मविश्वास आ रहा था. स्त्रियां बाहर निकल रही थीं और वेश्याओं ने अपनी नियति एक बन रहे राष्ट्र में तलाशनी शुरू कर दी थी.

प्रेमचंद उत्तर भारत के इसी सामाजिक वातावरण में अपना कथा साहित्य रच रहे थे. उन्होंने अपने साहित्य में न केवल इन सबको जगह दी बल्कि उन्हें लोकप्रिय और गंभीर साहित्यिक कल्पनाओं का हिस्सा बना दिया.

इसे देखते हुए ही हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उन्हें भारतीय समाज का परिचय लेखक कहा था. उनके कथा साहित्य में सेठ-साहूकारों, मिल मालिकों, मजदूरों, किसानों, कुंजड़ों, वेश्याओं, छात्रों, फेरी और खोमचा लगाने वालों का जीवन उनकी हसरतों, नाकामियों और दुश्वारी के साथ आता है.

उन्‍होंने 1918 में सेवासदन  उपन्‍यास लिखा जिसे मूल रूप से उन्‍होंने ‘बाजारे-हुस्‍न’ नाम से पहले उर्दू में लिखा था लेकिन इसे देवनागरी हिंदी में ‘सेवासदन’ के शीर्षक से प्रकाशित कराया. यह वही दौर था जब विक्टोरियन नैतिकताबोध से भारतीय समाज के ऊपर कानून लाद दिए गए थे और भारतीय पुरुष समाज सुधारक जैसे मान चुके थे कि स्त्री का उद्धार करना उनका पुनीत कर्तव्य है.

दूसरी तरफ वेश्याओं और नाचने-गाने से जीविका चलाने वाली महिलाओं का अपना विश्वबोध था. विवेकानंद और महात्मा गांधी भी वेश्यावृत्ति को बुरा मानते थे. यह सब हम ‘सेवासदन’ में देख सकते हैं.

1918 में पहला विश्वयुद्ध समाप्त हुआ और अंग्रेजी शासन अपने चरम रूप में सामने आया. उदारवादी भारतीय जनों को आशा थी कि ब्रिटेन भारत को राजनीतिक रियायत देगा लेकिन जगह-जगह किसानों को नए-नए टैक्सों से दबाया जाने लगा. विरोध करने पर लाठीचार्ज अलग बात थी.

यही वह दौर था जब अंग्रेजी सरकार भारत में लोगों की जमीनें अधिग्रहण कर रही थी और अवध में किसान आंदोलनों की श्रृंखला चल पड़ी थी. यही वह दौर था जब इंग्लैंड से बैरिस्टरी की डिग्री लेकर जवाहरलाल नेहरू सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कर रहे थे और प्रतापगढ़ में बाबा रामचंद्र किसानों से कह रहे थे कि वे अंग्रेजों को टैक्स न दें.

प्रेमचंद ने प्रेमाश्रम  और रंगभूमि  में इन किसान आंदोलनों की भावभूमि, उसकी निर्मिति, छोटे किसानों की दिक्कत और उनके प्रतिरोधों को दर्ज़ करने की कोशिश की. अपने उपन्यास प्रेमाश्रम में वे उतने मुखर और स्पष्ट नहीं हैं लेकिन 1925 में आए अपने उपन्यास रंगभूमि में तो सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ खड़े हो जाते हैं.

इस उपन्यास का सबसे मजबूत पात्र सूरदास लगातार ब्रिटिश शासन के कानूनों और उनके भारतीय नुमाइंदों की मुखालफ़त करता रहता है. सरकार द्वारा दी गयी जमीन की कीमत के खिलाफ़ न केवल सूरदास बोलता है बल्कि उसे लताड़ता भी है.

1930 के घटनापूर्ण दशक में यह स्पष्ट हो रहा था कि देश की अब आज़ादी दूर नहीं है. इसी दशक में अखिल भारतीय किसान सभा स्थापित हुई. ब्रिटिश शासन की उप-उत्पाद साहूकारी व्यवस्था ने हर ग्रामीण को कर्ज़दार बना दिया था.

जैसे हर व्यक्ति को क़र्ज़ में मर जाना लिख गया था. गोदान में किसान होरी अपनी ज़मीन खोता है, बटाईदार बनता है और इसके बाद मजदूर बनकर मर जाता है.

प्रेमचंद को कथा सम्राट कहा जाता है. यह वास्तव में उनकी लोकप्रियता को ही नहीं दर्शाता है और केवल यही नहीं बताता है कि उन्होंने दर्जनों उपन्यास और सैकड़ों कहनियां लिखी थीं बल्कि यह बताता है कि भारतीय जीवन को उन्होंने कितनी नजदीकी से देखा था.

भारतीय विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र एक विषय के रूप में बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में पढ़ाया जाना शुरू हुआ और इतिहास उससे पहले पढ़ाया जा रहा था लेकिन आधुनिक भारतीय समाज के बनने की प्रक्रिया को उसकी पूरी जटिलता के साथ दर्ज़ करने वाले प्रेमचंद पहले आधुनिक साहित्यकार कहे जा सकते हैं.

जहां एक एक किसान अपने खेत में अच्छी फसल, एक बेरोजगार नौजवान अपनी जीविका चलाने के लिए शहर में खोमचा लगाने की जगह, मजदूर अपनी मजदूरी, दलित आत्मसमान की खोज में दिखाई पड़ते हैं.

अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किसान अपने इलाक़े के साहूकार और रायसाहबों की चापलूसी करने के लिए क्यों मजबूर थे, कोई पढ़ी-लिखी महिला पुरुष वर्चस्व से क्यों नहीं निकल पाती और बुद्धिजीवी अपना पक्ष क्यों नहीं निर्धारित कर पाते- यह सब प्रेमचंद लिख रहे थे. और यह सभी वर्ग पूंजीवाद के खिलौनों के रूप में कैसे कार्य कर रहे थे, इसे प्रेमचंद अपने एक वैचारिक लेख ‘महाजनी सभ्यता’ में लिख रहे थे.

हम एक ऐसे दौर में हैं जहां प्रेमचंद को फिर से पढ़ा जाना चाहिए और ख़ुशी की बात है कि उन्हें पढ़ा जा रहा है. अभी एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी प्रकाशक ने उनकी लगभग सभी महत्वपूर्ण कहानियों का अनुवाद प्रकाशित किया है. वे दुनिया प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जा रहे हैं. इसका केवल सौंदर्यशास्त्रीय और साहित्यिक आधार ही नहीं है बल्कि सामाजिक और राजनीतिक आधार भी.

हालात यह हैं कि यदि किसी बड़े सेठ को भारत के किसी हिस्से में जमीन का कोई टुकड़ा पसंद आ जाए तो उसे सरकार से कहने भर की देर है. सरकारों ने कानून बना रखा है और वे कानून की मदद से किसी की जमीन लेकर सेठ साहूकार को दे सकते हैं.

सड़क बनाने के लिए, हवाईअड्डा बनाने के लिए, शीतल पेय बनाने के लिए जमीनें जबरदस्ती ली जा रही हैं और किसानों को जबरदस्ती उसकी कीमत लेने को मजबूर कर दिया जाता है. जो बात रंगभूमि में सूरदास ने कहने की कोशिश की थी, वही बात आज जब कोई किसान कह रहा है तो उसे निशाना साधकर गोली मारी जा रही है.

(रमाशंकर सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो हैं.)