प्रशांत भूषण और सतही ​समझ के धार्मिकों का अधर्म

भारतीय परंपरा और लड़कियों की सुरक्षा की ओट में पुरानी पीढ़ी का आधुनिकता विरोध एक ऐसे सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को मज़बूती दे रहा है जो आगे जाकर भारतीय सभ्यता से समन्वयवाद का पूरा सफाया करने में संकोच नहीं करेगा.

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भारतीय परंपरा और लड़कियों की सुरक्षा की ओट में पुरानी पीढ़ी का आधुनिकता विरोध एक ऐसे सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को मज़बूती दे रहा है जो आगे जाकर भारतीय सभ्यता से समन्वयवाद का पूरा सफाया करने में संकोच नहीं करेगा.

Indian Republic Reuters
(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

लगता है आसमान में इन दिनों नाहक वितंडा पैदा करने वाले कुछ दुष्ट नक्षत्रों का योग बना हुआ है. वर्ना कोई वजह न थी कि जाने-माने न्यायविद् और मानवाधिकारवादी प्रशांत भूषण के ऊपर (उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा एंटी रोमियो दस्ते के गठन पर) रोमियो और अनेकों रमणियों के साथ आनंद से विहार करने वाले कृष्ण में साम्य है, कहने पर इतनी बड़ी गाज गिरती.

दिक्कत यह है कि इन दिनों राजनीति के खेमे में धर्माधर्म विवेचन की बातें कुछ अधिक होने लगी हैं, पर उनके पीछे अक्सर कोई गहरा दर्शन नहीं बस धर्म की एक सतही सी समझ होती है. और उसके तहत दलीय कार्यकर्ताओं द्वारा धार्मिक भावनाएं आहत होने का नारा उठाते ही स्कूली तरह के सवाल पूछे और दंड तय किए जाने शुरू हो जाते हैं.

धर्म का गैरधार्मिक उपयोग करने वाले सभी नेतागण इस तथ्य से अनजान हों, ऐसा भी नहीं. पर राजनीति में या और कहीं वैचारिक तौर से प्रखर चुनौती देने वालों को इस तरह के लांछन से भड़काऊ दस्तों से घेरना और चुप कराना आज अपेक्षया आसान पड़ता है.

समाज की परस्पर विरोधी ताकतों को साथ लाने और जनाधार को बड़े से बड़ा बनाने से आज के राजनीतिक दल एक अधकचरी समझ वालों की भीड़ में तब्दील होने लगे हैं, जिससे किसी का भला नहीं होगा.

खासकर उनका जो नई व्यवस्था बनाना चाहते हैं, लेकिन संख्याबल बनाए रखने के लिए पुरानी समझ वालों को भी दूर नहीं करना चाहते. वे खुद भले धर्म को संवैधानिक तौर से धर्म निरपेक्ष देश की राजनीति का इकलौता आधार न कहें, लेकिन धर्म के छाते तले बड़ा जनाधार बना सकने वाले नेता को अद्वितीय होने की मान्यता तो दे ही देते हैं. इससे देश में लोकतंत्र आज एक ऐसा ही हाथी हो गया है जिसके प्राण कई बार एक चींटी के कारण जोखिम में नज़र आते हैं.

सच तो यह है कि हमारे भागवत आदि पुराणों में गोपाल-कृष्ण की जो कहानियां हैं उन सभी में प्रेम के प्रतीक कृष्ण का विवाहिता गोपियों के साथ सरस रासलीला का बखान बड़ा महत्वपूर्ण है. बंगाल के चैतन्य संप्रदाय में तो परकीया प्रेम को भी बड़ा ऊंचा पवित्र दर्जा दिया जाता रहा है.

वह तो बहुत बाद में (वल्लभ संप्रदाय में) भागवत कथा का अलग मतलब लगाकर साबित किया गया कि जितनी गोपियां थीं वे सब दरअसल कृष्ण की ही पत्नियां थीं. पं. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार बौद्ध ग्रंथों, कथावत्थु जातक और मज्झिम निकाय में भी परकीया प्रेम का कई जगह उल्लेख मिलता है.

कवि ठाकुर तो अन्यथा मानने वालों को गोपियों की तरफ से सीधी खमठोंक चुनौती देते हैं,

कवि ‘ठाकुर’ प्रीति करी है गुपाल सों टेरि कहौं सुन ऊंचे गले |
हमैं नीकि लागी सो हमने करी, तुम्हें नीकि लगै न लगै तो भलै ||

प्रशांत भूषण बाद में स्पष्टीकरण दे चुके हैं कि उनकी बात का गलत मतलब लगाया गया. वे तो कृष्ण के प्रेमी रूप की भी याद दिलाकर प्रकारांतर से सत्ताधारियों को रोमियो विरोधी दस्तों द्वारा युवाजनों के प्रेम संबंधों पर सरकारी पहरा बिठाने की निरर्थकता का अहसास दिलाना चाहते थे.

पर बात इस बीच कहां से कहां पहुंचा दी गई और सतत खुराफाती दस्ते सीधे उनके घर जा कर नामपट्ट पर कालिख पोत आए. यह घर, कहना न होगा, उत्तर प्रदेश के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आता है, जहां की पुलिस को हाल में टीवी पर कहते सुना गया था कि एक जवान लड़के और लड़की में तो दोस्ती हो ही नहीं सकती. मिलना-जुलना हो तो घर जाकर माता-पिता की उपस्थिति में किया जाए.

यानी भारतीय परंपरा और लड़कियों की सुरक्षा की ओट में पुरानी पीढ़ी का आधुनिकता विरोध एक ऐसे सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को मज़बूती दे रहा है जिसकी रुझानें आगे जाकर भारतीय सभ्यता से समन्वयवाद का पूरा सफाया करने में संकोच नहीं करेंगी. नकली घी खाकर कोई जाति जीवित रह सकती है लेकिन ऐसे विचारों पर पल कर नहीं.

एक मायने में हिंदी फिल्में हमारे यहां आज की लोकरुचि का गहरा प्रतिनिधित्व करती हैं. हालिया हिट फिल्मों के आईने में झांकें तो वहां भी हमारे समाज का जो रुख युवा प्रेम को लेकर नज़र आता है वह उस वैष्णव परंपरा से अलग नहीं, जहां कृष्ण को सत् चित् आनंद का प्रतीक और (उत्तर वैष्णव संप्रदाय में) राधा की लीला का आश्रय कह कर उनका ‘सखियों’ से अभेद स्थापित किया जाता रहा है.

तब स्वघोषित रूप से धर्मपारायण संस्कारी सत्ताधारी लोगों का (और उनकी देखा-देखी मीडिया के एक खासे भाग का) गोपिकाओं या राधा के साथ कृष्ण की लीलाओं की बात उठाने पर तुरंत अप्रिय मतलब निकालते हुए बवाल काटना समझ से परे है.

ऐसे रसविमुख रूखे धार्मिक कर्मकांड में उलझे जनों को उद्धव के बहाने सूरदास ने गोपियों के मुंह से खूब खरी-खरी सुनाई है:

आसन, ध्यान, वायु आराधन, अलि मन चित तुम ताये |
मुद्रा भस्म, विषान, त्वचामृग, ब्रज युवतिन्हि नहिं भायें ||

 

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं.)