आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय की पूर्वी किदवई नगर पुनर्विकास परियोजना के ख़िलाफ़ आस-पास के रहवासियों ने आवाज़ तो उठाई, लेकिन अब उन्हें बड़े पैमाने पर चल रही इस परियोजना से उपजी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
पिछले तीन सालों से, दिल्ली के लोग पूर्वी किदवई नगर सरकारी आवास कॉलोनी का ‘पुनर्विकास’ देख रहे हैं, जो आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय की एक परियोजना है. खचाखच ट्रैफिक से भरी रिंग रोड पर बनी इमारतों में सरकारी आवास बने हुए हैं, जो रात को रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगाते हैं.
इन ऊंची इमारतों के पीछे, आईएनए मार्केट तक के क्षेत्र में बने पुराने 2,331 सरकारी घरों के बदले अब 4,840 ‘आवासीय इकाइयां’ बनायी जाएंगी. परियोजना की लागत 4,264 करोड़ रुपए है और इसे सरकार के बड़े नेताओं सहित उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू भी ‘आदर्श‘ बता रहे हैं.
लेकिन अगर आप इस निर्माण स्थल पर पीछे से जाते हैं, आईएनए मार्केट के बगल की किसी गली से, तो आप उस जगह पर पहुंच जायेंगे जहां हाल ही में ‘नागरिक आवास बनाम सरकारी आवास’ पर संघर्ष हुआ है. लगभग तीन साल तक, कुछ मुट्ठीभर मकान मालिक समूची सरकारी व्यवस्था के खिलाफ कानूनी जंग लड़ते रहे, जहां सरकार पूर्वी किदवई नगर जैसी मूल्यवान ज़मीन की रियल इस्टेट क्षमता को भुनाना चाहती है.
अप्रत्याशित बोझ
इस साईट के उत्तर-पूर्वी किनारे पर, 2,958 वर्ग मीटर में 40 फ्रीहोल्ड मकान बने हुए हैं, जो 1960 के दशक में, ‘किदवई नगर रिहाउसिंग योजना’ में बनाये गए थे. इनमें से सात नई दिल्ली नगरपालिका के हैं. इन घरों को इन परिवारों ने या तो विरासत में पाया है या जिन्हें ये घर मिले थे, उन्होंने उनसे खरीदे हैं.
इन घरों के ब्लॉक को ‘लाल क्वार्टर रेसिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन’ के बोर्ड से पहचाना जा सकता है.
जब पूर्वी किदवई नगर के पुनर्विकास का प्रस्ताव बनाया गया था, तब सरकार ने जानबूझकर या गलती से, ध्यान नहीं दिया कि उन्हें इन घरों के मालिकों से ये ज़मीन खरीदनी होगी.
उनके पास विकल्प था कि वे भूमि अधिग्रहण का रास्ता अपना सकते थे. लेकिन, चूंकि भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास में उचित मुआवज़े और पारदर्शिता अधिनियम 2013 में ही पास हुआ था, उसके चलते सरकार को इन परिवारों को कम से कम बाज़ार की कीमत से चार गुना ज़्यादा कीमत देनी पड़ती.
वहां के निवासियों के अनुसार, पूरे प्लॉट की कीमत 250 करोड़ आंकी गयी थी और अधिग्रहण के लिए सरकार को भारी रकम चुकानी पड़ती.
लेकिन सम्मानजनक तरीके से वहां के मकान मालिकों से बात करने के बजाय, कंपनी (एनबीसीसी) और सरकार ने पूरी कोशिश की कि ज़ोर-ज़बरदस्ती करके मालिकों को उनके मकानों से बाहर निकाल दें. यहां के रहने वाले बताते हैं कि कैसे उन दिनों उनकी बिजली काट दी जाती थी और फोन लाइन ब्लॉक कर दी जाती थी.
कोर्ट के कागज़ दर्शाते हैं कि वहां के लोगों ने इस तरह से प्रताड़ित किये जाने पर, परियोजना निर्माताओं के खिलाफ रेस्ट्रेनिंग ऑर्डर भी मांगा था. 16 अक्टूबर, 2014 को, लाल क्वार्टर रेसिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन बनाम भारत सरकार व अन्य (2014 की जनहित याचिका संख्या 7142) की पहली सुनवाई में, कोर्ट ने आदेश दिया: ‘इस बीच, प्रतिवादी द्वारा ज़बरदस्ती का कोई कदम नहीं उठाया जायेगा.’
कोर्ट को पूरी सुनवाई के दौरान इस अंतरिम आदेश को दोहराते रहना पड़ा. आदेश दर्शाते हैं कि वहां रहने वालों को डेवलपर्स ने बनाये जाने वाले अपार्टमेंट में मकान देने का ऑफर भी दिया.
29 मई, 2015 को कोर्ट में एनबीसीसी के रिकॉर्ड किये गए वक्तव्य में कहा गया है, ‘इन क्वार्टर के निवासियों को पुनर्विकास स्कीम में बनाये जाने वाले मकान देने का प्रस्ताव दिया गया है, जो बनकर तैयार हैं, और पहले ही क्वार्टर के निवासियों को ऑफर दिया जा चुका है.’
लेकिन इन लोगों ने वहां से हटने से मना कर दिया क्योंकि ज़मीन के स्वामित्व का मामला अब भी कोर्ट में चल रहा था. इस मामले का फैला अंततः उनके पक्ष में हुआ. डेवलपर्स द्वारा दिया गया प्रस्ताव कि ज़मीन के बदले वे अपार्टमेंट ले लें, न तो न्यायोचित था, साथ ही गैर कानूनी भी था.
पहुंच के लिए सड़क
15 मई, 2015 को कोर्ट ने एनबीसीसी का आवेदन मान लिया कि वे लाल क्वार्टर ‘गेटेड कॉलोनी की चारदीवारी के बाहर विकास कार्य शुरू कर सकते हैं’. लेकिन इसके लिए शर्त रखी गयी कि निर्माण कार्य से कॉलोनी के मुख्य द्वार में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए.
एक समय पर तो परियोजना ने यहां के निवासियों के लिए उपलब्ध एकमात्र सड़क ले लेने का भी प्रस्ताव कर दिया था. इसके कारण जज ने पूछ भी लिया कि ‘क्या परियोजना चाहती है यहां के लोग हेलीकॉप्टर लेकर हवाई रास्ते से अपने घरों से आना जाना करेंगे.’
18 जनवरी, 2018 को, एनबीसीसी के लिखित वादे, कि ‘परियोजना के पूरा हो जाने पर, इस गेट तक पहुंचने के लिए दो चौड़ी सड़कें बनाई जाएंगी’, के बाद ही उच्च न्यायालय ने मामले को अंततः ख़ारिज कर दिया. कोर्ट में इन सड़कों के नक़्शे जमा किये गए और ये आदेश में भी शामिल किये गए है.
कुशक नाला आईएनए मार्केट को किदवई नगर से अलग करता है. एक समय पर यह नाला पक्षियों के लिए बड़ा आश्रय हुआ करता था. कल्पवृक्ष पर्यावरण समूह से प्राप्त 1980-90 के दशक के आंकड़ों के अनुसार, इस नाले के दक्षिणी दिल्ली के 1.7 किलोमीटर में देखने वालों ने लगभग 80 पक्षियों की प्रजातियां रिकॉर्ड की थी.
लेकिन अब, चारों तरफ निर्माण कार्यों, जैसे पीडब्ल्यूडी के बारापुला फ्लाईओवर और पूर्वी किदवई नगर, के कारण यह एक गंदा नाला बन कर रह गया है. डेवलपर्स ने यहां के निवासियों और नाले के किनारे अस्थायी रूप से रहने वालों के इस्तेमाल के लिए लोहे का एक हल्का-सा पुल बना कर दिया है. पहली ही बारिश में सीवर में बाढ़ आ जाती है और यह पुल इंसानों और पशुओं के मल-मूत्र की गंदगी से भर जाता है.
साथ हुआ नुकसान
जब केस चल रहा था, तब भी साईट पर रिंग रोड की तरफ की सीमा पर काम चालू था और यह आईएनए की तरफ बढ़ रहा था. यहां के निवासियों को इतने बड़े स्तर पर हो रहे निर्माण की धूल और शोर के साथ अपनी जिंदगी बितानी पड़ रही थी.
उनका कहना है कि एक समय तो ठेकेदारों ने ईंट की भट्टी भी साईट के बीचों-बीच लगा ली थी, जिसमें से काला धुआं निकलता था. अगर एनबीसीसी ने 2012 में दी गयी पर्यावरणीय मंज़ूरी की शर्तों का बोर्ड लगाया होता, तो उसमें से एक यह ज़रूर लिखा होता: ‘निर्माण अवधि के दौरान उचित मात्र में पानी के स्प्रिंक्लर लगा कर धूल प्रदूषण को रोकने के लिए उचित कदम उठाये जायेंगे .’
साईट पर निर्माण कार्य पूरे जोर-शोर से चल रहा है. लेकिन हाल की कुछ रिपोर्टों के अनुसार, पूर्वी किदवई नगर में लगाये गए पेड़ जैसे होने चाहिए थे, वैसे बिल्कुल नहीं हैं. नाम भर के पेड़ लगाये गए हैं और उनकी भी हालत अनिश्चित है.
जिस तरह इस साईट पर लैंडस्केपिंग की गयी है, उसमें नीम, अंजीर और अन्य ऐसे बड़े पेड़ों के लिए कोई जगह नहीं है, जो पहले यहां हुआ करते थे. सिर्फ सजावटी पेड़ जैसे ताड़ और घास ही नज़र आते हैं, जिनके किनारे बाड़ वाली झाड़ियां और फूलों के पौधे हैं.
फरवरी 2018 की एक कैग रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली वन विभाग के वन अधिकारी से अनुमति ले कर साईट पर 1,123 पेड़ काटे गए थे. क्षतिपूरक पौधारोपण यानी हरे पेड़ काटे जाने के एवज में जितने नए पौधे लगाए जाने थे, उसका भी केवल 16.5% ही किया गया.
दिल्ली मास्टरप्लान के मुताबिक जिन ‘सामाजिक आधारभूत संरचनाओं‘ का निर्माण किया जाना है, वो सब साईट के एक कोने में कर दिया गया है, जिसके चारों ओर कोई जगह नहीं है. इसमें शामिल है एक स्थानीय बाज़ार, एक उच्च माध्यमिक विद्यालय और एक बैंक्वेट हॉल. इन बिल्डिंगों के नीचे 450 गाड़ियों के लिए पार्किंग दी गयी है.
इस सब निर्माण के बीच में दरया खान स्मारक भी बड़ी संवेदनशील स्थिति में खड़ा है, जिसके चारों ओर एएसआई के नियमों के अंतर्गत कुछ ज़मीन छोड़ दी गयी है. विडंबनापूर्ण बात यह है कि यह स्मारक दिल्ली सल्तनत के लोदी राजवंश के संस्थापक बहलोल लोदी की अदालत के चीफ जस्टिस का स्मारक है. यह स्मारक दिल्ली के 174 राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों की सूची में शामिल है.
असुरक्षित भविष्य
जनवरी 2018 में लाल क्वार्टर रेसिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के परिवारों के पक्ष में फैसला आया और उन्हें अपने मकान रखने की इजाज़त मिल गयी, लेकिन सरकारी समर्थन प्राप्त ‘पुनर्विकास परियोजना’ के खिलाफ खड़े होने के परिणाम उनके लिए अभी शुरू ही हो रहे हैं.
उन्हें अपने घरों के नज़दीक इस विशाल पैमाने पर चल रही निर्माण परियोजना के चलते खड़ी हो रही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
इस निर्माण के पूरा हो जाने पर उन्हें इस नई बसाहट के हाशिये पर रहना पड़ेगा और सार्वजनिक जगहों, पानी और अन्य सुविधाओं के लिए उनके साथ निरंतर संघर्ष करना पड़ेगा. शहर की प्राकृतिक व सांस्कृतिक विरासत को तो शायद वो मौका भी न मिले.
मंजू मेनन और कांची कोहली सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, नई दिल्ली में पर्यावरणीय शोधार्थी हैं.
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. निधि अग्रवाल द्वारा हिंदी में अनूदित.