जब बंगाल में ऐसी धोतियां फैशन में थीं जिनके किनारों पर ‘खुदीराम बोस’ लिखा रहता था

शहादत दिवस पर विशेष: सामान्य युवा इतना भले ही जानते हैं कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन ने देश को सरदार भगत सिंह जैसा शहीद-ए-आज़म दिया, लेकिन सबसे कम उम्र के शहीद के बारे में कम ही लोग जानते हैं.

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शहादत दिवस पर विशेष: सामान्य युवा इतना भले ही जानते हैं कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन ने देश को सरदार भगत सिंह जैसा शहीद-ए-आज़म दिया, लेकिन सबसे कम उम्र के शहीद के बारे में कम ही लोग जानते हैं.

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खुदीराम बोस (जन्म: 3 दिसंबर 1889, मृत्यु: 11 अगस्त 1908) फोटो साभार: HindGrapha

भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में क्रांतिकारी आंदोलन के अप्रतिम योगदान के बावजूद हमारी आज की नई पीढ़ी का बड़ा हिस्सा उससे अपरिचित-सा हो चला है तो इसका एक बड़ा कारण इस बाबत उसे बताने के उपक्रमों का अभाव भी है.

इस अभाव का कुफल यह हुआ है कि सामान्य युवा इतना भले ही जानते हैं कि इस आंदोलन ने देश को सरदार भगत सिंह जैसा शहीद-ए-आजम दिया, उसके पहले और सबसे कम उम्र के शहीद के बारे में कुछ नहीं जानते.

तीन सितंबर, 1889 को अविभाजित बंगाल के मिदनापुर जिले के एक अनाम से गांव में पैदा हुए खुदीराम बोस ने 11 अगस्त, 1908 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले की जेल में पहला और सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी शहीद होने का गौरव हासिल किया था.

प्रसंगवश, खुदीराम बोस की यह शहादत लंबे वक्त तक क्रांतिकारी युवकों की प्रेरणा बनी रही थी. बंगाल के बुनकर उन दिनों ऐसी खास धोतियां बुना करते थे, जिनके किनारों पर ‘खुदीराम बोस’ लिखा रहता था. युवक ऐसी खुदीराम बोस लिखी धोतियां पहनकर खुद को इस कदर गौरवान्वित अनुभव करते थे कि इन धोतियों का फैशन चल निकला था.

खुदीराम बोस के जीवन की यादों पर पड़ी विस्मृति की धूल झाड़ें तो पता चलता है कि अभी उनका बचपन भी नहीं गुजरा था कि उन्होंने एक-एक करके अपनी माता लक्ष्मीप्रिया और पिता त्रैलोक्यनाथ दोनों को खो दिया.

बड़ी बहन ने उन्हें ‘अनाथ’ होने से बचाकर अपनी देख-रेख में जैसे-तैसे उनकी स्कूली शिक्षा शुरू ही कराई थी कि वे क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गए और उनकी सभाओं व जुलूसों में शामिल होने लगे.

1905 में लार्ड कर्जन ने अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत एक अलग मुस्लिम बहुल प्रांत बनाने के उद्देश्य से बंग-भंग यानी बंगाल का विभाजन कर डाला तो उद्धेलित खुदीराम बोस क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ बोस का नेतृत्व स्वीकार कर सक्रिय स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े. उस वक्त उनकी उम्र महज 15 साल थी. इस कारण नाना अभावों के चलते पहले से ही घिसट-घिसट कर चल रही उनकी पढ़ाई अधूरी रह गई.

सत्येन्द्रनाथ बोस को ‘सत्येन बोस’ नाम से भी जाना जाता है. उस समय, ‘युगांतरकारी दल’ के बैनर तले संचालित हो रही उनकी क्रांतिकारी कार्रवाइयों से तो अंग्रेजों की नाक में दम था ही, उनका लिखा ज्वलंत पत्रक ‘सोनार बांगला’ उन्हें फूटी आंखों भी नहीं सुहाता था. सो, उन्होंने उस पत्रक पर प्रतिबंध लगा रखा था, जबकि दल द्वारा ‘वंदेमातरम’ के परचे के साथ यह पत्रक बांटने की जिम्मेदारी भी खुदीराम को सौंपी गई थी.

1906 में मिदनापुर में लगी औद्योगिक व कृषि प्रदर्शनी में प्रतिबंध की अवज्ञा करके खुदीराम उसे बांट रहे थे, तो एक सिपाही ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की. उन्होंने आव देखा न ताव, उसके मुंह पर एक जोरदार घूसा मारा और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का नारा लगाते हुए बाकी बचे पत्रकों के साथ भाग निकले.

अगली 28 फरवरी को पकड़े गये तो भी पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहे. दो महीनों बाद अप्रैल में फिर पकड़ में आए तो उन पर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया, लेकिन एक तो उनकी उम्र कम थी और दूसरे उनके खिलाफ एक भी गवाह नहीं मिला, इसलिए 16 मई को महज चेतावनी देकर छोड़ दिए गए.

6 दिसंबर, 1907 को उन्होंने दल के ऑपरेशनों के तहत नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन के पास बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन और 1908 में अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम फेंके. लेकिन अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण क्रांतिकारी ऑपरेशन को उन्होंने 30 अप्रैल, 1908 को अंजाम दिया.

यह ऑपरेशन बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के सत्र न्यायाधीश किंग्सफोर्ड की हत्या से संबंधित था. दरअसल, बंग भंग के वक्त किंग्सफोर्ड कलकत्ता में मजिस्ट्रेट था और उसने वहां आंदोलन करते हुए पकड़े गए क्रांतिकारियों को जानबूझकर एक से बढ़कर एक क्रूरतम सजाएं दी थीं. इससे खुश ब्रिटिश सत्ता ने उसे पदोन्नत करके मुजफ्फरपुर का सत्र न्यायाधीश बना दिया था.

युगान्तरकारी दल के क्रांतिकारी उसके प्रति बदले की भावना से भरे हुए थे. सो, दल ने गुप्त रूप से उसकी हत्या का संकल्प लिया और इसका जिम्मा खुदीराम बोस व प्रफुल्लकुमार चाकी को सौंपा. ये दोनों हत्या के लिए तय तिथि 30 अप्रैल से दस बारह दिनों पहले ही मुजफ्फरपुर जा पहुंचे और रेलवे स्टेशन के बगल स्थित एक धर्मशाला में ठहरकर अपना लक्ष्य पाने की योजनाएं बनाने लगे.

दल ने ऑपरेशन के लिए दोनों को एक-एक पिस्तौल व बम दे रखे थे. लेकिन अभी वे किंग्सफोर्ड की अदालत में जाकर उसे, उसकी लाल बग्घी व उसके घोड़ों का रंग पहचानने में ही लगे थे कि गुप्तचरों से उनके दल के निश्चय का पता लगा लिया.

फलस्वरूप, किंग्सफोर्ड की सुरक्षा खासी कड़ी कर दी गई. उसकी कोठी से थोड़ी दूरी पर एक क्लब था, जहां किंग्सफोर्ड व अन्य अंग्रेज अधिकारी आया-जाया करते थे. अंततः खुदीराम और प्रफुल्लकुमार ने तय किया कि किंग्सफोर्ड देर शाम अपनी बग्घी पर चढ़कर क्लब से कोठी की ओर जाने लगेगा तो वे बम फेंककर उसका काम तमाम कर देंगे.

घने अंधेरे में वे पास के वृक्षों की आड़ में जा छिपे थे और उसकी वापसी की बाट जोह रहे थे. जैसे ही लाल रंग की एक बग्घी क्लब से बाहर निकलकर किंग्सफोर्ड की कोठी के रास्ते पर आयी, उनकी शिकार बन गई. बग्घी में बैठी एक संभ्रांत अंगे्रज महिला व उनकी बेटी का तत्काल ही प्राणांत हो गया. लेकिन अफसोस, किंग्सफोर्ड उस बग्घी में था ही नहीं. किसी कारण वह क्लब में ही रुका रह गया था.

हमले के बाद खुदीराम व चाकी दोनों नंगे पैर ही वहां से भागे और 24-25 मील दूर वैनी रेलवे स्टेशन पर पहुंचकर ही दम लिया. लेकिन किंग्सफोर्ड की सुरक्षा में तैनात जिन सिपाहियों ने उन्हें दिन में देखकर वहां से चले जाने को कहा था और जिन्हें बहानों में उलझाकर वे वहां बने रहे थे, उनके एफआईआर दर्ज कराने के फौरन बाद वारंट जारी हुआ और व्यापक पुलिस छापों के बीच अगले ही दिन खुदीराम पकड़ लिए गए. उनके पास से दो पिस्तौल और तीस कारतूस मिले.

जिला मजिस्ट्रेट के सामने पेश किये जाने पर उन्होंने वीरतापूर्वक बम फेंकना स्वीकार कर लिया. अंततः उन्हें फांसी की सजा सुनाई गयी और 11 अगस्त, 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में शहीद कर दिया गया.

उन्हें लटकाने का आदेश देने वाले मजिस्ट्रेट ने बाद में कहा था, ‘खुदीराम शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फांसी के तख्ते की ओर बढ़ा.’ उस वक्त उनकी उम्र महज 17 वर्ष थी. उनके शोक में कई दिनों तक स्कूल कॉलेज बंद रहे थे.

प्रफुल्ल कुमार चाकी को भी पुलिस नन्दलाल बनर्जी नाम के अपने एक ‘कर्तव्यनिष्ठ’ सिपाही की बदौलत एक मई, 1908 को ही ट्रेन से समस्तीपुर से कल्कत्ता जाते हुए गिरफ्तार करने में सफल हो गई थी, लेकिन उनके अंजाम के बारे में दो तरह की बातें कही जाती हैं. पहली यह कि पुलिस ने उसी रोज उन्हें निर्ममता से गोलियों से भून डाला था और दूसरी यह कि उन्होंने खुद अपनी ही पिस्तौल से अपना प्राणोत्सर्ग कर डाला था.

हां, जिस किंग्सफोर्ड को वे मारने में सफल नहीं हो पाये थे, उसके मन-मस्तिष्क पर उस हमले का ऐसा खौफनाक असर हुआ कि उसने डर के मारे अपनी नौकरी ही छोड़ दी. जैसा कि बता आये हैं, खुदीराम बोस की शहादत लंबे समय तक क्रांतिकारी युवकों की प्रेरणा बनी रही.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)