इतिहासकार सुधीर चंद्र ने अपनी किताब ‘गांधी: एक असंभव संभावना’ में गांधी के विचारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है.
पिछली सदी के भारत में सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करने वाले महात्मा गांधी को सबसे कम समझा गया. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, बंटवारा, हिंसा की राजनीति और हिंसक सियासी आकांक्षाओं की सबसे ज़ोरदार काट पेश करने वाले गांधी के पास हर चीज़ का अहिंसक और सर्वाधिक मानवीय दृष्टिकोण मौजूद रहा, लेकिन उसे हमेशा नज़रअंदाज़ किया गया. इतिहासकार सुधीर चंद्र ने अपनी किताब ‘गांधी: एक असंभव संभावना’ में गांधी के विचारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है. पेश है उसी पुस्तक का अंश:
गांधी देश का बंटवारा बचाना चाहते थे, न बचा सके. फिर लग गए दिलों का बंटवारा रोकने में. कहते हुए कि देश का बंटवारा हो गया सो हो गया, अब दिलों का बंटवारा नहीं होना चाहिए. जानते हुए कि दिलों का बंटवारा न हो गया होता तो देश का बंटवारा कभी न होता. जूझते हुए इस विरोधाभास से. चूंकि वह समझ रहे थे कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान में से किसी का भी स्वार्थ सिद्ध नहीं होना था बगैर आपसी सौहार्द के. कि अगर एक नरक बनता है तो दूसरा स्वर्ग नहीं बन सकता.
तब से अब तक 70 साल बीत गए. इस बीच दिलों का बंटवारा शायद और गहरा हुआ है दोनों देशों की सीमा के आर-पार और सीमा के अंदर भी. दिलों के नए बंटवारे भी हुए हैं दोनों देशों में इस बीच. गांधी की चेतावनी पहले से भी ज़्यादा प्रासंगिक हो गई है आज.
हम देख सकें तो. देख सकना आसान नहीं होता. जब देख न सकें लोग तो कुछ बोल या कर पाना और कठिन हो जाता है.
क्यों गांधी भाग रहे थे एक जगह से दूसरी जगह अपने बुढ़ापे में? इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए? हिंदुओं और सिखों को मुसलमानों से बचाने के लिए? मुसलमानों को हिंदुओं और सिखों से बचाने के लिए? या इनसान को इनसान से बचाने के लिए? इनसान की इनसानियत बचाने के लिए?
गांधी की बेचारगी का यह हाल था कि बारी-बारी से उन्हें सभी की भर्त्सना करनी पड़ रही थी, चूंकि सब ही पागल हो रहे थे. वह जानते थे, और बार-बार कह रहे थे, कि हिंदू और मुसलमान में से ‘एक जानवर न बने यही इसमें से निकलने का सीधा रास्ता है.’ पर कोई भी उनकी सुनने, जानवर न बनने को, तैयार नहीं था. वह हिंदू और सिख को सबक सिखाते तो उनसे कहा जाता कि देखो मुसलमान क्या कर रहे हैं पाकिस्तान में, और यह भी कि जो मुसलमान हिंदुस्तान में रह रहे हैं वे गद्दार हैं. गांधी जो सुनते उस पर गौर करते, और खुलकर अपनी प्रतिक्रिया देते. पर लोगों की मानसिकता उस सामूहिक दीवानगी में कुछ ऐसी हो गई थी कि गांधी मुसलमानों के लिए कुछ भी करें तो हिंदुओं और सिखों को वह सरासर पक्षपात लगता, और जब वह-गांधी-मुसलमानों की आलोचना करें या उनको नसीहत दें तो उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता.
गांधी ने लोकतंत्र में नागरिक दायित्व के साथ-साथ मानवता पर ज़ोर देते हुए कहा:
अगर इनसान बेरहम बनकर अपने भाई पर ज़ुल्म न करता तो राहत शिविरों में ये हज़ारों मर्द, औरतें और मासूम बच्चे बेआसरा और उनमें से बहुत से भूखे न रहते… क्या यह सब अनिवार्य है? मेरे भीतर से मज़बूत आवाज़ आई- नहीं. क्या यह महीने भर की आज़ादी का पहला फल है? …क्या दिल्ली के नागरिक पागल हो गए हैं? क्या उनमें ज़रा-सी भी इनसानियत बाक़ी नहीं रही है? क्या देश का प्रेम और उसकी आज़ादी उन्हें बिल्कुल अपील नहीं करती?
इसका पहला दोष हिंदुओं और सिखों को देने के लिए मुझे माफ़ कर दिया जाए. क्या वे नफ़रत की बाढ़ को रोकने लायक इनसान नहीं बन सकते? मैं दिल्ली के मुसलमानों से ज़ोर देकर यह कहूंगा कि वे सारा डर छोड़ दें. भगवान पर भरोसा करें और अपने सारे हथियार सरकार को सौंप दें. क्योंकि हिंदुओं और सिखों को यह डर है कि मुसलमानों के पास हथियार हैं, इसका यह मतलब नहीं कि हिंदुओं और सिखों के पास कोई हथियार नहीं हैं. सवाल सिर्फ़ डिग्री का है. किसी के पास कम होंगे, किसी के पास ज़्यादा. या तो अल्पमत वालों को न्याय करने के लिए भगवान पर या उसके पैदा किए हुए इनसान पर भरोसा रखना होगा, या जिन लोगों पर वे विश्वास नहीं करते उनसे अपनी हिफ़ाज़त करने के लिए उन्हें अपने बंदूक, पिस्तौल वगैरा हथियारों पर भरोसा करना होगा.
मेरी सलाह बिल्कुल निश्चित और अचल है. उसकी सच्चाई ज़ाहिर है. आप अपनी सरकार पर यह भरोसा रखिए कि वह अन्याय करने वालों से हर नागरिक की रक्षा करेगी, फिर उनके पास कितने ही ज़्यादा और अच्छे हथियार क्यों न हों… दिल्ली के लोग अपनी करतूतों से पाकिस्तान सरकार से न्याय मांगने का काम मुश्किल बना देंगे. जो न्याय चाहते हैं, उन्हें न्याय करना भी होगा. उन्हें बेगुनाह और सच्चे होना चाहिए. हिंदू और सिख सही क़दम उठाएं और उन मुसलमानों से लौट आने को कहें जिन्हें अपने घरों से निकाल दिया गया है.
अगर हिंदू और सिख हर तरह से यह उचित क़दम उठाने की हिम्मत दिखा सकें तो वे निराश्रितों की समस्या को एकदम आसान-से-आसान कर देंगे. तब पाकिस्तान ही नहीं, सारी दुनिया उनके दावों को मंज़ूर करेगी. वे दिल्ली और हिंदुस्तान को बदनामी और बरबादी से बचा लेंगे.
‘जो न्याय चाहते हैं, उन्हें न्याय करना भी होगा.’ यह कोरा आदर्शवाद नहीं था. कारगर व्यावहारिक नीति का सूत्र दे रहे थे गांधी. वैसे किसी सभ्य समाज में, गांधी के शब्दों में, ‘अगर बैर का बदला लेना मुनासिब हो तो वह हुक़ूमत ही के ज़रिए हो सकता है, हर एक आदमी के ज़रिए हरगिज़ नहीं…
गांधी को विश्वास था कि अगर हिंदुस्तान में मुसलमानों की सलामती पक्की हो जाती है तो वह पाकिस्तान जाकर वहां के अल्पसंख्यकों के लिए बहुत कुछ कर सकेंगे. उन्होंने कहा:
जो मुसलमान यहां से चले गए उनका क्या करें? मैंने कहा कि उनको हम कभी नहीं लाएंगे. पुलिस के मार्फ़त, मिलिटरी के मार्फ़त थोड़े ही लाना है! जब हिंदू और सिख उन्हें कहें कि आप तो हमारे दोस्त हैं, आप आइए अपने घर में, आपके लिए कोई मिलिटरी नहीं चाहिए, कोई पुलिस नहीं चाहिए, हम आपकी मिलिटरी हैं, पुलिस हैं, हम सब भाई-भाई होकर रहेंगे तब उन्हें लावेंगे. हमने दिल्ली में ऐसा कर बतलाया, तो मैं आपको कहता हूं कि पाकिस्तान में हमारा रास्ता बिल्कुल साफ हो जाएगा. और एक नया जीवन पैदा हो जाएगा. पाकिस्तान में जाकर मैं उनको नहीं छोड़ूंगा. वहां के हिंदू और सिखों के लिए जाकर मरूंगा. मुझे तो अच्छा लगे कि मैं वहां मरूं. मुझे तो यहां भी मरना अच्छा लगे, अगर यहां जो मैं कहता नहीं हो सकता है तो मुझे मरना है.
एक नया जीवन पैदा हो, ऐसी कामना है गांधी की. 1947 के वहशीपन में एक नए जीवन की कामना. वरना अपना जीवन उत्सर्ग कर देने का संकल्प.
किस तरह काम करता था गांधी का दिमाग? सांप्रदायिक आक्रोश, घृणा और प्रतिशोध के बीच परस्पर संदेह और भय के बीच, एक मानवीय शुरुआत की संभावना देख और दिखा रहे थे वह. असंभव का कोई तसव्वुर था गांधी को?
असंभव ही थी क्या गांधी की चाहना?
हममें से हरेक को इस सवाल पर अपने तईं गौर करना होगा. साथ ही यह भी सोचना होगा कि गांधी के लिए वह चाहना इतनी सहज कैसे हो सकी. कैसे उस वहशी वक़्त में वह सोच भी सके कि, पाकिस्तान में जो भी हो रहा हो, हिंदुस्तान के हिंदू और सिख विस्थापित मुसलमानों को स्नेह और सम्मान से उनके घरों में वापस लौटा लाएंगे? इतना भर किसी तरह समझ सकें हम तो यह मानने में उतनी दिक्कत नहीं होगी कि वैसा हो जाने पर वाकई गांधी के लिए संभव हो जाता पाकिस्तान जाकर वहां के हिंदुओं और सिखों के लिए, बगैर मरे हुए, काफी कुछ कर पाना.
अगर क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम मानव स्वभाव को उतने ही सशक्त तरीक़े से परिचालित करता है जितना कि हम मानते हैं, तो हिंदुस्तान में मुसलमानों को मिले न्याय और सम्मान का प्रभाव पाकिस्तान के मुसलमान हुक़्मरानों और अवाम पर भी पड़ना ही था. यह मात्र तर्क की बात नहीं है. कलकत्ता के आमरण अनशन के बाद गांधी के प्रति मुसलमानों में आया बदलाव यह मानने की वजह देता है कि सारे देश में अगर मुसलमानों में आया बदलाव यह मानने की वजह देता है कि सारे देश में अगर मुसलमानों की स्थिति अच्छी हो पाती तो जिस तरह का बदलाव गांधी के प्रति आया वैसा ही बदलाव सामान्य हिंदुओं और सिखों के प्रति अपने लगता. गांधी का दिल्ली का आमरण अनशन भी प्रभावकारी रहा पाकिस्तान में सद्भावना पैदा करने में.
सवाल यह था- और ऐसी विषम मानवीय स्थितियों में हमेशा होता है- कि क्या कोई क्रिया-प्रतिक्रिया के दुष्चक्र को तोड़ने की कारगर पहल करने को तैयार है. जानवर बने न रहने की पहल. गांधी जिसे ‘शराफ़त का असर’ कहते थे उसमें विश्वास कर उसके मुताबिक आचरण करने की पहल.
जब शराफ़त की पहल असंभव लगने लगे तो संभव क्या रह जाता है?
यही कि पुलिस आएगी और नागरिकों की हिंसा का दमन करेगी. फिर पुलिस भी आम नागरिकों वाली सांप्रदायिकता से ग्रसित हो जाएगी और अर्धसैनिक बल बनाए और बुलाए जाएंगे. उनका भी वैसा ही मानसिक कायाकल्प होगा, और सेना तलब की जाएगी नागरिक शांति क़ायम करने के लिए. कब तक सैनिक अछूते रहेंगे सांप्रदायिक विद्वेष से? अछूते रह भी गए, तो सांप्रदायिकता से ओतप्रोत समाज द्वारा लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए शासक क्या उन सैनिकों को बुलाएंगे, या करने देंगे अपना काम?
ये कोरे अकादमिक सवाल नहीं हैं. गांधी सोच भी नहीं सकते थे कि पुलिस और फ़ौज को बुलाना सांप्रदायिक समस्या का समाधान हो सकता है. आज हमारी पहली प्रतिक्रिया होती है कि फ़ौज को तैनात कर दिया जाए सांप्रदायिक हिंसा पर क़ाबू पाने के लिए. भले ही बाद में हम बात करने लगें दूरगामी हस्तक्षेप की अनिवार्यता की. पर आज स्थिति ऐसी हो गई है कि यह बात-दूरगामी हस्तक्षेप की-अकादमिक भर होकर रह गई है. आज बहस यह है कि पुलिस, फ़ौज और दूसरी सेवाओं में अल्पसंख्यकों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हुए बग़ैर हमारे विभिन्न सशस्त्र बल या प्रशासनिक सेवाएं बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता से प्रभावित रहेंगी और ईमानदारी से अपने दायित्व को नहीं निभाएंगी. इतना निर्भर हो चुके हैं हम सांप्रदायिक हिंसा के समय सशस्त्र बलों के हस्तक्षेप पर कि उसी को कारगर बनाने की युक्तियों पर इतना केंद्रित रहता है हमारा ध्यान.
क्या वास्तव में संभव है वह जिसे संभव मानने के हम आदी हो गए हैं? संभव की यह सीमित और भ्रामक परिकल्पना ही शायद हमें गांधी के संभव को संभव मानने नहीं देती. न ही देखने देती है कि वास्तव में हमारा संभव ही असंभव है. कि हमारा संभव समस्या है, समाधान नहीं.
संभव-असंभव के भेद को समझने की असमर्थता ही हमें धीरे-धीरे वहां ले आई है जहां सांप्रदायिक हिंसा केवल नागरिक उन्माद से नहीं होती वरन् एक प्रांत की लोकतांत्रिक सरकार के तत्वावधान में होती है. वहां जहां केंद्र में सत्तासीन अनेक राजनैतिक दलों का गठबंधन मौन साध लेता है उस प्रांतीय सरकार के दुष्कृत्य पर. वहां जहां, न केवल तात्कालिक उन्माद के बहाव में बल्कि उसके पांच साल बाद अपेक्षाकृत संयत वातावरण में भी, उस प्रांत की जनता ऐसे दुष्कृत्य को पुरस्कृत करती है चुनावों में उसी सरकार को भारी बहुमत देकर.
गांधी एक बुनियादी बात कहते थे: ‘एक सभ्य समाज में मूल अधिकारों पर अमल करने के लिए बंदूकों से रक्षा की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए.’ अल्पसंख्यकों-केवल मुसलमान ही नहीं- और कमज़ोरों के मूल अधिकारों की रक्षा तो बंदूकों से भी नहीं हो पा रही. न हो पाएगी अगर गांधी का संभव हमारे लिए असंभव ही बना रहा.
ऐसा नहीं है कि पुलिस फ़ौज, प्रशासन और मंत्रिमंडल के संप्रदायीकरण की समस्या गांधी के समय नहीं थी. भले ही आज जितनी विकृत न रही हो. उसी प्रवचन में [18 सितंबर, 1947] जिसमें उन्होंने एक नया जीवन पैदा होने की आस जताई थी, गांधी ने अपने पास आई एक ‘बड़ी शिकायत’ का ज़िक्र किया:
जो हमारे सिपाही लोग, मिलिटरी वाले हैं, हिंदू हैं, सिख भी हैं, उसमें क्रिस्टी भी पड़े हैं, गोरखे पड़े हैं, वे सब रक्षक हैं पर भक्षक बन गए हैं. यह कहां तक सच है और कहां तक झूठ है, मैं नहीं जानता हूं. लेकिन मैं अपनी आवाज़ उन पुलिस वालों तक पहुंचाना चाहता हूं कि आप शरीफ़ बनें. कहीं तो सुना है कि वे ख़ुद लूट लेते हैं. मुझको आज सुनाया गया कि कनॉट प्लेस में कुछ हो गया और वहां जो सिपाही और पुलिस के लोग थे उन्होंने लूटना शुरू कर दिया. मुमकिन है कि वह सब ग़लत हो. लेकिन उसमें कुछ भी सच्चाई हो तो मैं सिपाही और मिलिटरी से कहूंगा कि अंग्रेज़ का ज़माना चला गया. तब जो कुछ करना चाहते थे वे कर सकते थे, लेकिन आज तो वे हिंदुस्तान के सिपाही बन गए हैं, उन्हें मुसलमान का दुश्मन नहीं बनना है, उनको तो हुक़्म मिले कि उसकी रक्षा करो तो वह करनी ही चाहिए.
जिस नए जीवन की आस गांधी ने जताई, और जिसके बग़ैर किसी लोकतंत्र की कल्पना करना कठिन है, वह आज भी हमारे सार्वजनिक जीवन में गांधी के समय से ज़्यादा संभाव्य नहीं बन पाई है. सच तो संभवत: यह है कि पिछले सत्तर सालों में संभव और असंभव का आपसी रिश्ता कुछ ज़्यादा ही भद्दे तरीक़े से उलट-पुलट गया है. जो गांधी संभव मानते थे और जिसकी व्यावहारिकता व उपयोगिता उनके अनेक समकालीन भी समझने लगे थे, आज, उपयोगी और आवश्यक लगने के बावजूद, लगभग असंभव और निहायत अव्यावहारिक लगने लगा है. दूसरी तरफ जिसकी कल्पना भी गांधी के लिए असंभव थी, हमने यथार्थ में संभव कर दिया है.
इस उलट-पुलट में अच्छा असंभव की दिशा में धकेला गया है, और बुरे को मुमकिन कर दिया गया है. मसलन, अहिंसा का रास्ता, जिसे गांधी कठिन किंतु एकमात्र सीधा और साफ रास्ता मानते थे, उत्तरोत्तर असंभव और अव्यावहारिक लगता रहा है इस बीच. इसी उलट-पलट के दूसरे पहलू को समझा जा सकता है, 18 सितंबर [1947] के ही प्रार्थना-प्रवचन में कही गई एक बात से. अपने घरों से भाग दिल्ली के राहत शिविरों में शरण लेने वाले और डरकर पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों के संदर्भ में गांधी ने कहा:
यहां तो दुनिया में सबसे बड़ी मस्जिद, जामा मस्जिद पड़ी है. हम बहुत से मुसलमानों को मार डालेें और जो बाक़ी बचें वे भय के मारे पाकिस्तान चले जाएं, तो फिर मस्जिद का क्या होगा? आप मस्जिद को क्या पाकिस्तान भेजोगे, या मस्जिद को ढहा दोगे या मस्जिद का शिवालय बनाओगे? मान लो कि कोई हिंदू ऐसा गुमान भी करे कि शिवालय बनाएंगे, सिख ऐसा समझे कि हम तो वहां गुरुद्वारा बनाएंगे. मैं तो कहूंगा कि वह सिख-धर्म और हिंदू-धर्म को दफ़नाने की कोशिश करनी है. इस तरह तो धर्म बन नहीं सकता है.
यहां गांधी जिस गुमान के ख़िलाफ़ चेतावनी दे रहे हैं, कह रहे हैं कि ऐसा करने से न सिर्फ़ हिंदू या सिख-धर्म ही बल्कि धर्म मात्र दफ़न हो जाएगा, उस गुमान का उन्हें अंदेशा भर है. उन्हें डर है कि तेज़ी से बढ़ रहे सांप्रदायिक उन्माद में लोग-आम हिंदू और सिख- वाकई धर्म के तत्व को भूल वैसे गुमान को सार्वजनिक अमल में ले आएंगे. जल्दी ही उनका डर सही साबित होने लगा. एक महीने के बाद ही, 21 नवंबर [1947] को, अपने प्रार्थना-प्रवचन में उन्हें कहना पड़ा:
मुझे जो सूचना मिली है उसके मुताबिक दिल्ली की क़रीब 137 मस्जिदें हाल के दंगों में बर्बाद कर दी गई हैं. उनमें से कुछ को मंदिरों में बदल डाला गया है. ऐसी एक मस्जिद कनॉट प्लेस के पास है, जिसकी तरफ किसी का भी ध्यान गए बिना नहीं रह सकता. आज उस पर तिरंगा फहरा रहा है. उसे मंदिर का रूप देकर उसमें एक मूर्ति रख दी गई है. मस्जिदों को इस तरह बिगाड़ना हिंदू और सिख-धर्म पर कालिख पोतना है. मेरी राय में यह बिल्कुल अधर्म है… उसे यह कहकर कम नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान में मुसलमानों ने भी हिंदू-मंदिरों को बिगाड़ा या उनको मस्जिदों का रूप दे दिया है. मेरी राय में ऐसा कोई भी काम हिंदू-धर्म, सिख-धर्म या इस्लाम को बर्बाद करने वाला काम है.
स्थिति बद से बदतर होने लगी. बीस दिन बाद, 10 दिसंबर [1947] को, गांधी ने कहा:
हिंदू-मुसलमानों के बारे में एक तरह से सुनता हूं कि ऐसे व्याख्यान भी चलते हैं अभी नाम नहीं बताउंगा, क्योंकि पूरा-पूरा नाम अभी नहीं आया है कि यहां चंद मुसलमान पड़े हैं, उनको रहने नहीं देंगे. जो मस्जिदें रह गई हैं उन पर क़ब्ज़ा करेंगे और उनमें रहेंगे. फिर क्या करेंगे, दैव जानता है, मैं नहीं जानता हूं… हम विनाश का काम कर रहे हैं.
गांधी वाकई नहीं जानते थे. पता नहीं दैव जानता था या नहीं. पर हम जानते हैं.
अब.
गांधी को अकल्पनीय डर लग गया था. हमने उनके अकल्पनीय को संभव बना दिखाया है. चालीस साल से थोड़ा ही ज़्यादा हमें लगा है गांधी, और गांधी के समय, के हेय को श्रेय बनाने में. भले ही उस समय दिल्ली के दंगों में सौ से ज़्यादा मस्जिदें बर्बाद कर दी गई हों-थोड़ी देर के लिए-और देश के दूसरे हिस्सों में भी ऐसी बर्बादी हुई हो-स्थायी तरीक़े से-पर न गांधी और न ही देश की सार्वजनिक चेतना गर्व से संचरित हुई थी उन कृत्यों के कारण. प्रतिशोध का आवेश था-बहुतों में- तब. भीतर शर्म भी थी कि यह ठीक नहीं है. और यह एहसास भी था कि गांधी की बात ठीक है. वह भावनात्मक और विचारधारात्मक उन्मेष नहीं था तब जो-भुलाकर गांधी का मासूम सवाल कि ढहा दोगे क्या मस्जिद को-मस्जिद ढहाने वालों को हिंदू धर्म और भारतीय राष्ट्र का परम हितैषी मान सम्मानित और पुरस्कृत करता है, सत्ता में बिठाता है आज. समझ सकने में असमर्थ गांधी की उस समय की चेतावनी: ‘अगर हम इनकी पाक जगहों को ढहा देंगे तो हम ख़ुद भी ढह जाएंगे.’
गांधी का डर बहुत गहरा था. बिगड़ती स्थिति पर फौरन नियंत्रण न किया गया तो परिणाम इतने ख़तरनाक हो सकते हैं कि उनका अंदाज़ा भी नहीं किया जा सकता. और, जैसा कि हम देखते ही रहे हैं, नियंत्रण का मतलब गांधी के लिए यह नहीं था कि येन-केन-प्रकारेण सांप्रदायिक हिंसा पर क़ाबू पा लिया जाए. ज़रूरी था लोगों के सोचने के तरीक़े को बदलना. सो अपनी ‘करो या मरो’ की धुन में गांधी लगे रहे हर पल लोगों को समझाने में.
9 सितंबर को पहुंचे थे गांधी दिल्ली. जो उनके बस में था करते रहे, तीन महीने तक. पर दिल्ली का ‘वायुमंडल’ न बदला. और अंत में गांधी को विश्वास हो गया कि ‘मरो’ पर अमल करने की घड़ी आ गई है…
13 जनवरी, 1948 से गांधी आमरण अनशन पर बैठ गए.