दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी में भीख मांगने को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है. अदालत ने कड़ी टिप्पणी करते हुए सरकार से पूछा था कि ऐसे देश में भीख मांगना अपराध कैसे हो सकता है जहां सरकार भोजन या नौकरियां प्रदान करने में असमर्थ है.
इस देश के सामाजिक मानस में भिक्षावृत्ति को लेकर हमेशा दो तरह के दृष्टिकोण रहे हैं. इसीलिए ‘उत्तम खेती, मध्यम बान’ कहने वाले महाकवि घाघ की नैतिकता ने ‘भीख निदान’ कहने से भी संकोच नहीं किया और इसे चाकरी से भी निषिद्ध घोषित कर गये तो ‘बाभन को धन केवल भिक्षा’ का उद्घोष करने वाले भक्त कवि नरोत्तमदास, जाति विशेष के संदर्भ में ही सही, न सिर्फ वैध बल्कि अधिकार तक करार दे गये हैं.
आज भी जहां कुछ ‘विभूतियां’ इस कारण गौरवान्वित की जाती हैं कि उन्होंने जीवन भर ‘कर तल भिक्षा, तरु तल वास’ की सीमा तक जाकर भिक्षाटन पर निर्भर किया, ज्यादातर भीख मांगने वालों को उनके नाकारेपन, आलस्य और कामचोरी से जोड़ दिया जाता है.
यों, अवध में कई माता-पिता अपनी नालायक संतानों को झिड़कते हुए कहते हैं कि ‘ऐसा ही रहा तो तुम्हें मांगे भीख भी नहीं मिलेगी’ तो ‘सफलतापूर्वक’ भीख मांग लेने को अनजाने ही ‘कला’ या कौशल से भी जोड़ देते हैं!
इसे ‘कला’ से कम तो खैर मध्यवर्ग के वे लोग भी नहीं मानते जो कहते हैं कि अब भिक्षावृत्ति कुछ लोगों के लिए ही ‘मजबूरी का सौदा’ रह गयी और बड़े पैमाने पर ऐसा धंधा बन चुकी है, जिसमें न पूंजी की आवश्यकता पड़ती है, शारीरिक श्रम की.
भले ही पिछले दिनों केंद्र सरकार को दिल्ली उच्च न्यायालय के इस सवाल का कोई माकूल जवाब नहीं सूझा कि क्या कोई अपनी इच्छा से भी भीख मांगता है, इनकी मानें तो ज्यादातर भिखारी जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरने के मनोविज्ञान के तहत इस वृत्ति के लिए मानवसुलभ दया व करुणा की भावनाओं का दोहन करते हैं. ऐसे लोगों को भिखारियों के मूलभूत मानवीय और मौलिक अधिकारों के पक्ष में खड़े होना भी गवारा नहीं होता.
भिक्षावृत्ति के बारे में इनके इस सर्वथा असंवेदनशील रवैये को स्वीकार कर लें तो ‘संदेह’ होता है कि कहीं इसीलिए तो नहीं देश में अरबपतियों की ही तरह भिखारी भी बढ़ते चले जा रहे हैं!
2011 की जनगणना के अनुसार देश में भिखारियों की कुल संख्या तीन लाख बहत्तर हजार थी, जो अब सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार बढ़कर चार लाख तेरह हजार छह सौ सत्तर हो गई है. हां, इनमें 21 प्रतिशत शिक्षित हैं, जिनमें प्रोफेशनल डिग्रीधारियों तक की कमी नहीं है.
यह और बात है कि तेजी से बढ़ते शहरीकरण के दौर में भी ये भिखारी शहरों से ज्यादा ग्रामीण क्षेत्रों में विचरण करते हैं, जिससे सिद्ध होता है कि हमारे शहर, जिनमें कम से कम एक सौ तो स्मार्ट भी होने जा रहे हैं, भौतिकताओं की दौड़ में भले ही बेजोड़ होने जा रहे हों, ‘दया-धरम’ अभी भी उनसे ज्यादा गरीब गांवों के पास ही है.
ऐसे दौर में भी, जब सरकारी गणना में गरीबों की संख्या तक विवादित बना दी गई है और भिखारियों की संख्या भी नाना प्रकार के भ्रमों के हवाले है. इतना ही नहीं, इस वृत्ति में कई संगठित गिरोह भी सकिय बताये जाते हैं, जिन्हें कई लोग ‘भिक्षा माफिया’ तक कहते हैं.
इनके द्वारा अनेक बच्चों को अपहृत कर अपने जाल में फसाने, अंगभंग कर उन्हें भिक्षावृत्ति के ‘उपयुक्त’ बनाने और उसमें धकेलने की खबरें भी जब-तब आती ही रहती हैं, जिनके मद्देनजर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग बाल भिखारियों की निजात व पुनर्वास के लिए कुछ भी उठा न रखने का दावा करता रहता है.
बहरहाल, बाईस राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों ने भिक्षावृत्ति के खिलाफ कानून बना रखे हैं, जिनमें से ज्यादातर के मूल में 1959 का बाम्बे भिक्षावृत्ति रोकथाम कानून ही है. यह कानून भीख मांगने वाली की दृष्टि से कितना अमानवीय है, इसको इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि यह पुलिस व प्रशासन को उनकी तुरंत और बिना वारंट गिरफ्तारी का अधिकार देता है.
हमारी पिछली पीढ़ी ने अरसे तक देखा है कि जैसे ही कोई सम्माननीय विदेशी अतिथि राजधानी आता, विदेशों में देश की प्रतिष्ठा धूमिल न होने देने के नाम पर दिल्ली पुलिस भिखारियों को थोक के भाव पकड़ती और उसकी निगाहों से दूर कर देती.
उत्तर प्रदेश में म्यूनिसिपैलिटी ऐक्ट, भीख के लिए अनुचित प्रदर्शन की मनाही करने वाली दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 133, रेलवे अधिनियम और 2015 में संशोधित किशोर न्याय कानून में भी इसका निषेध है.
इतने विधि-निषेधों के दिल्ली उच्च न्यायालय का पिछले बुधवार को यानी एक और स्वतंत्रता दिवस से महज डेढ़ हफ्ते पहले राष्ट्रीय राजधानी में भीख मांगने को अपराध की श्रेणी से बाहर करना और भिखारियों को दंडित करने के प्रावधान को असंवैधानिक व रद्द किये जाने लायक बताना इस अर्थ में कहीं ज्यादा काबिल-ए-गौर है कि न्यायालय ने आर्थिक विषमता और सामाजिक संवेदनहीनता में खासी तेज वृद्धि के बीच सामाजिक सुरक्षा के प्रायः सारे उपक्रमों को धता बता रही सरकारों को नाकामयाब करार देते हुए कई ऐसी टिप्पणियां की हैं, जो भविष्य के लिए मार्गदर्शक हो सकती हैं.
मसलन: ‘सरकारों के पास जनादेश सभी नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए होता है, लेकिन, आजादी के सात दशक बाद भी भीख मांगने वालों की मौजूदगी इस बात का सबूत है कि राज्य ऐसा करने में कामयाब नहीं रहा है…लोग सड़कों पर इसलिए भीख नहीं मांगते कि ऐसा करना उनकी इच्छा है, बल्कि इसलिए मांगते हैं क्योंकि ये उनकी जरूरत है. भीख मांगना जीने के लिए उनका अंतिम उपाय है और इसको अपराध बनाना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है.’
विडंबना यह कि जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी तो केंद्र इस बात पर सहमत था कि भिक्षावृत्ति के पीछे गरीबी हो तो उसे अपराध नहीं माना जाना चाहिए. फिर भी वह भिखारियों को बिना वांरट गिरफ्तार करने के कानूनी प्रावधान से पीछे हटने को तैयार नहीं था.
कह रहा था कि कोई मजबूरी में भीख मांग रहा है, खुशी-खुशी या उसे जबरन इस ओर धकेल दिया गया है, इसका पता लगाने के लिए उसे हिरासत में लेना जरूरी होता है. इतना ही नहीं, उसे संबंधित कानून में नियंत्रण और संतुलन के पर्याप्त प्रावधान भी नजर आ रहे थे.
लेकिन न्यायालय ने पूछा कि अगर सरकारी प्रयत्नों से लोगों की भोजन, आश्रय और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुंच नहीं हो पा रही यानी उनके जीने के अधिकार का कोई मतलब ही नहीं रह गया है तो उन्हें अपनी दुर्दशा से निपटने के मौलिक अधिकार से रोककर अपराधी कैसे ठहराया जा सकता है, तो केंद्र के पास कोई जवाब नहीं था.
जानना चाहिए कि केंद्र का यह रवैया तब था, जब केंद्रीय महिला और बाल विकासमंत्री मेनका गांधी तक इस मत की हैं कि भिक्षावृत्ति पर एक ऐसा कानून बनाने की जरूरत है जो भिखारियों के पुनर्वास और सुधार पर जोर देता हो, न कि इसे गैरकानूनी मानता हो.
मेनका कहती हैं, ‘बच्चों को उनके परिवार से अलग करके नहीं देखा जा सकता और भिक्षावृत्ति के खिलाफ जो भी तरीके अपनाये जायें, उनके पीछे यह सोच होनी चाहिए कि बालभिखारी अपराधी नहीं, पीड़ित हैं.’
जाहिर है कि इस पूरे मामले में केंद्र एक पल को भी सभी नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के जनादेश के अनुपालन के प्रति गम्भीर या संवेदनशील नहीं नजर आया. शायद इसीलिए न्यायालय ने आगे बढकर उससे वह असुविधाजनक सवाल भी पूछा जिसने उसका अंतिम लज्जावसन भी उतार लिया.
सवाल यह था कि ऐसे देश में भीख मांगना अपराध कैसे हो सकता है, जहां सरकार लोगों को भोजन और नौकरियां प्रदान करने में असमर्थ हो? न्यायालय ने यह भी पूछा कि अगर भीख के लिए मजबूर करने वाले गिरोहों पर काबू पाना ही उद्देश्य है तो सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर अनुभव आधारित विचार करके कोई वैकल्पिक कानून क्यों नहीं बनाया जाता?
क्या पता सरकार अभी इन सवालों की शर्म महसूस करने में कितना समय लगायेगी, लेकिन न्यायालय के सवालों में इतना और जोड़ दें कि कानून बनाये जाने के बावजूद बहुप्रचारित सरकारी खाद्य सुरक्षा चूं-चूं का मुरब्बा क्यों हो गई है, तो याद आता है कि मुंबई के डांस बारों के प्रकरण में बार-बालाओं को राहत प्रदान करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सड़कों पर भीख मांगने से उनका डांस करके चार पैसे कमाना कहीं बेहतर है.
ऐसे में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का अर्थ अगर यह है कि अब हालात इतने संगीन हो गये हैं कि जैसे बार बालाओं को डांस करके चार पैसे कमाने वैसे ही भिखारियों को भीख मांगकर भूख मिटाने से भी नहीं रोका जा सकता, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
बेहतर हो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी पंद्रह अगस्त को लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करें तो और नहीं तो रेडियो पर अगली ‘मन की बात’ में इस सवाल को संबोधित करें और तार्किक परिणति तक ले जायें.
उच्च न्यायालय में नहीं बताया, न सही, जनता के न्यायालय में तो बतायें कि अपने पांच सालों में वे जो न्यू इंडिया या कि नया भारत बनाने का दावा कर रहे हैं, उसमें उन लोगों का कोई ठौर होगा या नहीं जो आजादी के सात दशक बाद भी भिक्षावृत्ति से भूख मिटाने को मजबूर हैं?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)