जयंती विशेष: अंतरराष्ट्रीय ख्याति के मृदंगाचार्य रामशंकरदास उर्फ स्वामी पागलदास को खोकर अयोध्या आज भी उतनी ही उदास है जितनी वह मध्यकाल में वैरागियों द्वारा निर्गुण संत कवि पलटूदास को ज़िंदा जलाए जाने के वक़्त हुई होगी.
अयोध्या में एक कहावत जानें कब से चली आ रही है-जहां बुढ़वन कै संग हुआं खरचन कै तंग, जहां ज्वानन कै संग, हुआं बाजै मिरदंग! मतलब, जहां वृद्धजन जुटेंगे, नून तेल लकड़ी को लेकर सिर धुनेंगे ही धुनेंगे, लेकिन नौजवानों की जमात सिर धुनने लायक हालात में भी मातम नहीं मनाने वाली. वह जुटेगी तो जैसे भी बन पड़ेगा, अपने को उल्लसित रखेगी, मृदंग बजायेगी!
मृदंग, जिसका एक नाम पखावज भी है, उल्लास का वाद्य है, खुशी की अभिव्यक्ति का… लेकिन लगता है, 6 दिसंबर, 1992 को जो कुछ हुआ, उसके बाद अयोध्या के पास हर्ष व उल्लास का कोई एक भी सच्चा कारण नहीं बचा है. शायद इसीलिए वहां थोपे हुए सरकारी गैरसरकारी आयोजन भले ही होते हों, मृदंगवादन नहीं सुनाई देता. उसके किसी भी कोने से नहीं.
ऐसा नहीं है कि मृदंग बजाने वाले बचे ही नहीं हैं. पर अव्वल तो उनका बजाने का मन ही नहीं होता और मन को मारकर बजाने बैठें तो महसूस होता है कि बेवक्त की शहनाई बजा रहे हैं, मृदंग नहीं अपनी छाती पीट रहे हैं.
जानते हैं क्यों? नहीं जानते तो आपका यह न जानना वैसा ही है जैसे मझोली राज (देवरिया) की रहने वाली जानकी देवी ने 15 अगस्त, 1920 को अपनी कोख से बेटे को जन्म दिया और उसका नाम रामशंकर रखा तो उनको भी नहीं मालूम था कि यही रामशंकर एक दिन उनको अंतरराष्ट्रीय ख्याति के मृदंगाचार्य स्वामी पागलदास की जननी बना देगा और 20, 21 जनवरी, 1997 को अयोध्या के प्रमोद वन स्थित हनुमत विश्वकला संगीत आश्रम में उनकी हृदयगति रुकेगी तो लोगों को लगेगा कि उन्होंने उसके साथ एक संगीतज्ञ ही नहीं, सत्य, मर्यादा और न्याय का रक्षक भी खो दिया है.
यह वैसी ही बात थी जैसे तब कोई यह भी नहीं कह सकता था कि उसके जन्म की तिथि ही आगे चलकर देश की आजादी की तिथि बन जायेगी. दरअसल हुआ यह कि रामशंकर अभी 13-14 बरस का ही हुआ था कि उसका मन अपने घर से ऐसा उचटा कि वह भागकर अयोध्या चला आया और बंगाली बाबा नाम से प्रसिद्ध महंत रामकिशुन दास से दीक्षा लेकर हनुमानगढ़ी के बाबा रामसुखदास के यहां रहने लगा.
साल भर ही हुआ था कि उसके भीतर सोई अभिनय की आकांक्षा ने ऐसा जोर मारा कि वह बिहार की एक ड्रामा कंपनी से जुड़ गया. फिर तो एक के बाद एक ड्रामा कंपनियों में अपनी प्रतिभा दिखाते हुए उसने खूब नाम कमाया लेकिन उसका कलाकार मन इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ.
उसका असंतोष उसको पटना के प्रसिद्ध संगीतज्ञ नेपाल सिंह (अब स्वर्गीय) के पास ले गया, जहां उसने पांच वर्षों तक तबला बजाना सीखा. तदन्तर बीस वर्षों तक अयोध्या के स्वामी भगवानदास, बाबा ठाकुरदास व राम मोहिनीशरण से मृदंगवादन की शिक्षा ली.
मृदंगवादन में सिद्धहस्त होने के बावजूद उसे लगा कि अभी तबलावादन में उसको और दक्षता की जरूरत है तो पंडित संतशरण ‘मस्त’ के पास आकर उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया और अपने अगले दस वर्ष तबला वादन के नाम कर दिए. इन्हीं संतशरण ‘मस्त’ ने, जिन्हें वह अपना शिक्षा गुरु मानता था, उसको रामशंकर से पागलदास बनाया.
इसकी भी एक रोचक कथा है. रामशंकर अभिनय और संगीत का दीवाना तो था ही, पदों वगैरह की रचना के साथ कवि कर्म में भी हाथ आजमाने लगा था. एक दिन बातों ही बातों में ‘मस्त’ ने उससे कहा कि उसको अपने पद ‘पागल’ उपनाम से रचने चाहिये.
रामशंकर इसे गुरु की आज्ञा मानकर रामशंकरदास ‘पागल’ बन गया और अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते-करते पागलदास भर रह गया-हां, स्वामी पागलदास. बाद में अवध विश्वविद्यालय ने डी.लिट की मानद उपाधि से सम्मानित करके इस स्वामी को डॉक्टर भी बना दिया.
अलबत्ता, तब तक उसके खाते में देश के कोने-कोने के दर्जनों प्रतिष्ठित संगीत संस्थानों के सम्मान, अभिनंदन और उपाधियां आ चुकी थीं. संगीतज्ञ उसे मृदंग सम्राट, मृदंगमार्तन्ड, मृदंगमणि, मृदंगकेशरी, तबला शास्त्री, पखावज विजार्ड, संगतसम्राट और पखावजदास आदि जानें क्या क्या कहने लगे थे.
पद्मभूषण उस्ताद अलाउद्दीन ने तो उसको अपना मानसपुत्र ही बना लिया था और वे उसको ‘दूसरा कोदऊ सिंह’ कहने लगे थे. ‘दूसरे कोदऊ सिंह’ होने का अर्थ था-कोदऊ सिंह के नाम से ही जाने जाने वाले संगीत के अवधी घराने का प्रतिनिधिवादक होना.
ऐसी स्वीकृति विरले संगीत मनीषियों को ही सुलभ होती है और उनमें से भी विरले ही स्वतंत्रवादन, गायनवादन व नर्तन के साथ वादन शैली, वाक्पटुता, लयकारिता और व्याख्यात्मक प्रस्तुति आदि में एक जैसे समर्थ होते व सर्वसाधारण को प्रभावित कर पाते हैं, लेकिन स्वामी पागलदास इससे भी आगे जाकर संगीत सभाओं व समारोहों की शान बन गए.
जैसे ही किसी प्रस्तुति के लिए उनका नाम पुकारा जाता, दर्शक व श्रोता आतुर हो उठते. आकाशवाणी व दूरदर्शन बार-बार उनको अपने कार्यक्रमों में बुलाते. इसके बावजूद स्वामी पागलदास के जीवन व कर्म में गुमान या अभिमान के लिए कोई जगह नहीं थी.
वे चारों ओर से घूमकर आते और अयोध्या के अपने संगीत आश्रम में शिष्यों के साथ अभ्यास, सेवा व आराधना में तल्लीन हो जाते. इस संगीत आश्रम को उन्होंने अपनी लगन के सहारे खड़ा किया था और इसमें विलासिता के लिए कोई जगह नहीं थी.
कोई उनको मृदंग का उद्धारक या पुनः प्रतिष्ठापक कहता तो हंसकर टाल जाते या इसे खुद मृदंग का ही चमत्कार बताने लगते. आगे चलकर जय मृदंग ही उनका नारा व अभिवादन का साधन बन गया.
समय के साथ वे संगीत के सुयोग्य व्याख्याता और परीक्षक आदि भी बने और दो भागों में मृदंग तबला प्रभाकर और तीन भागों में तबला कौमुदी की रचना भी की. विभिन्न पत्रों व पत्रिकाओं में संगीत के विविध पक्षों पर लिखे उनके सैकड़ों लेख व टिप्पणियां आज भी बिखरी पड़ी हैं.
उनके शिष्य विजयराम दास बताते हैं कि उनकी दो पुस्तकें रसना रसायन (दो भाग) और श्रीहनुमत चरितामृत नाम से प्रकाशित हुई थीं जबकि दास दोहावली और नारदमोह से राम विवाह तक (रामलीला) अभी भी अप्रकाशित हैं.
लेकिन स्वामी पागलदास का परिचय तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक भाजपा व विश्व हिन्दू परिषद द्वारा ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण के बहाने छेडे गए उग्र आंदोलन के प्रतिरोध में उनकी भूमिका का जिक्र न किया जाए. उन दिनों इस आंदोलन के कभी मुखर तो कभी मौन प्रतिरोध से उन्होंने बार बार यह जताया कि एक राम मंदिर के लिए सत्य, मर्यादा व न्याय की बलि उनको कतई स्वीकार नहीं है और इस बलि के किसी भी प्रयत्न में वे और उनकी संगीत साधना भागीदार नहीं हो सकती.
अयोध्या में हिंदू-मुस्लिम सद्भाव की पैरवी के कारण वे प्रायः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वालों की आंख की किरकिरी बने रहते थे. एक वक्त विश्व हिंदू परिषद उनके विरुद्ध सभायें करने व उनकी भण्डारों की चिट्ठियां रुकवा देने पर भी उतर आयी थी.
यह एक तरह से उनकी साधुता व संगीत साधना के अपमानजनक तिरस्कार की कार्रवाई तो था ही, उनको अपनी ओर करने के लिए डाला जाने वाला नितांत अनुचित दबाव भी था. लेकिन स्वामी पागलदास झुके नहीं और न ही अपनी इस मान्यता में कोई परिवर्तन किया कि संगीतज्ञ होने के नाते उन्हें मनुष्य मात्र में जाति, धर्म और संप्रदाय वगैरह के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए.
रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद में उन्होंने अपने इस मत को मुखर करने से भी कभी गुरेज नहीं किया कि इसका समाधान ऐसा होना चाहिए जिसमें कोई भी पक्ष अपने को अपमानित महसूस न करे और अयोध्या का गौरव भी बढ़े.
कोई भी ऐसा समाधान जिसमें किसी को हार व किसी को जीत का एहसास होगा, टिकाऊ नहीं हो सकेगा. हिंदू-मुस्लिम घृणा के पैरोकारों से वे प्रश्न करते थे कि जिस देश में हिंदू स्त्रियों के सुहाग चिन्हों के उत्पादन व निर्माण तक में मुस्लमानों की बड़ी भूमिका है उसमें इस घृणा के लिए कहां और कितनी जगह होनी चाहिए?
पागलदास के शिष्य बताते हैं कि अयोध्या में शांति प्रयासों के क्रम में प्रख्यात रंगकर्मी सफदर हाशमी एक बार उनसे मिलने उनके संगीत आश्रम आए तो उन्होंने उनसे कहा था-आपकी शांति कामना का मैं स्वागत करता हूं मगर आपको समझना चाहिए कि वर्तमान परिस्थितियों में यह एक बहुत दुष्कर कार्य है.
बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद की ‘बदली हुई’ अयोध्या में पागलदास बहुत बेचैन रहने लगे थे, बहुत विचलित, उदास, असमंजस और अंर्तद्वंद्वों से पीड़ित. सच पूछिये तो वह वक्त ही कुछ ऐसा था और जिन मूल्यों व मर्यादाओं की वे यथासंभव हिफाजत करते आये थे, उनके ही आंगन में और उनके ही लोगों की उपस्थिति में उनका गला दबा रही शक्तियां हर किसी को निरुपाय बनाने और मुह चिढ़ाने पर आमादा थीं.
इतिहास बदलने के नाम पर वे इतिहास का ध्वंस कर रही थीं, वर्तमान का मानमर्दन और ऐसी स्थितियां पैदा कर रही थीं कि भविष्य की कल्पना से भी डर लगे.
पागलदास की यह उदासी उनकी अकेले की नहीं थी. उन सबकी थी जो न्याय चाहते थे/चाहते थे रक्षा हो सत्य की/बची रहे मर्यादा अयोध्या की/और जिन्हें सहन नहीं होता था कुछ भी उलटा सीधा! पागलदास के निधन के बाद हिंदी के उन दिनों के युवाकवि बोधिसत्व ने ‘पागलदास’ शीर्षक से ही एक बड़ी भावुक व मार्मिक कविता रची, जिस पर उन्हें 1999 का प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ.
इस कविता में वे उक्त उदासी के बारे में मफसील से बताते हैं: स्वामी पागलदास अयोध्या में उदास थे, भूतनाथ बनारस में, बुद्ध कपिलवस्तु में, कालिदास उज्जयिनी में, फसलें खेतों में, पत्तियां वृक्षों पर, लोग दिल्ली में, पटना में, दुनिया जहान में! ऐसे में पागलदास ने भी छोड दिया था मृदंग बजाना, भूल गए थे रंग भरना, तज दिये थे समारोह/, भूल गए थे कायदा, याद नहीं रहा था भराव का ढंग, बचने लगे थे लोगों से, लोम विलोम की गुंजाइश नहीं रही थी.
काबिले गौर है कि उस कातर असहायता के दौर में भी पागलदास ने न्याय के पथ से विचलित होना मंजूर नहीं किया था. भले ही उनको अयोध्या में वैसे रहना पड़ रहा था जैसे लंका में विभीषण!
1993 में 15 अगस्त को सहमत (सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट) ने शबनम हाशमी के नेतृत्व में अयोध्या में अपना बहुप्रचारित ‘मुक्तनाद’ किया तो उसे रोकने व विफल करने में लगी सरकार की टेढ़ी भृकुटियों की परवाह न करके स्वामी पागलदास उसका उद्घाटन करने गए.
यह और बात है कि प्रशासन ने उनके रास्ते में इतनी बंदिशें खड़ी कर दीं कि वे समय पर मुक्तनाद स्थल पर पहुंच ही न सके. पहले उनके वाहन को रोका गया, फिर सुरक्षा को खतरा बताकर पैदल जाने से भी रोकने की कोशिश की गई. लेकिन यह सब मुक्तनाद में उनकी भागीदारी नहीं रोक सका.
दैनिक ‘जनमोर्चा’ के सम्पादक शीतला सिंह का कहना है-स्वामी पागलदास तन से भी साधु थे, मन से भी, वचन और वेश से भी. अपने अंतिम दिनों में वे चाहते थे कि एक न्यास बनाकर अपने द्वारा स्थापित संगीत आश्रम को उसके हवाले कर दें.
एक दिन उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि मैं उनके द्वारा कल्पित न्यास का न्यासी बन जाऊं और उनके न रहने पर संगीत आश्रम की गतिविधियों के संचालन का दायित्व निभाऊं. मैंने असमर्थता जताई और सुझाव दिया कि संगीत आश्रम की बागडोर किसी योग्य शिष्य को सौंपना ही बेहतर होगा. ऐसे शिष्य को जो उसकी विरासत और गरिमा की रक्षा करते हुए उसकी कीर्ति का प्रसार करे. तब उन्होंने ऐसा ही किया.
आजीवन अविवाहित हनुमानभक्त स्वामी पागलदास का व्यक्तित्व कई मायनों में विलक्षण था. अभी वे स्वामी पागलदास बने ही थे कि एक दिन फैजाबाद स्थित दैनिक ‘जनमोर्चा’ के दफ्तर जा पहुंचे. संपादक से बोले-वृहत्तर मानव समुदाय के हितों की रक्षा के लिए जनमोर्चा का जो मोर्चा आपने इस अंचल में खोल रखा है, मैं भी उसका हिस्सा बनना चाहता हूं.
आपने इसे निजी मालिकाने की परिधि से बाहर रखा और स्वामित्व का सहकारी स्वरूप स्वीकार किया है, यह और अच्छी बात है. मैं इसकी समिति का सदस्य बनना चाहता हूं और इस हेतु दस हजार रुपयों का अंशदान करने का इच्छुक हूं.
दस हजार रुपये तब आज जितने कम नहीं होते थे. उन्होंने तत्काल वे रुपये दिये और जनमोर्चा प्रकाशित करने वाली प्रकाशन सहकारी समिति की सदस्यता ग्रहण कर ली. बाद में वे उसके संचालक, उपाध्यक्ष व कार्यकारी अध्यक्ष भी बने और ‘जनमोर्चा’ को स्वतंत्र व निष्पक्ष रखने में अपनी भूमिका निभाई.
उन्होंने अपनी जमा पूंजी का एक अंश उत्तरप्रदेश संगीत नाटक अकादमी को भी दिया था, जिससे अकादमी स्वामी भगवानदास मृदंगाचार्य की स्मृति में ध्रुपद समाराहों का आयोजन करती है. जैसा कि पहले बता आये हैं, स्वामी भगवानदास पागलदास के आराध्यों में से एक थे. अकादमी ने 1995 में स्वामी पागलदास को अपनी रत्न सदस्यता देने की घोषणा की थी पर यह उन्हें निधनोपरान्त 1999 में मिल पायी.
अयोध्या उन्हे खोकर आज भी उतनी ही उदास है जितनी वह मध्यकाल में अयोध्यावासी वैरागियों द्वारा निर्गुण संत कवि पलटूदास को जिंदा जलाये जाने के वक्त हुई होगी. उन वैरागियों को पलटू के ज्ञान से चिढ़ थी जबकि पागलदास का कसूर यह था कि वे घृणा को पंथ बनाने वालों के करतबों से दुःख पाते थे, उनकी तरह आनन्दित नहीं हो पाते थे और मृदंग नहीं बजाते थे. जानें अयोध्या की यह उदासी अब कब दूर होगी? फिलहाल वहां कोई पागलदास नहीं रहता. वैसे ही जैसे कोई अश्वघोष नहीं रहता.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)