जिस आकाशवाणी को प्रधानमंत्री अपने मन की बात देशवासियों तक पहुंचाने का सबसे उपयुक्त माध्यम मानते हैं उसमें काम करने वाले अपने ख़राब हाल के चलते लंबे समय से आंदोलित हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी छब्बीस अगस्त को बहुचर्चित ‘मन की बात’ का नया एपीसोड प्रसारित करने वाले हैं और उन्हें इस बाबत देशवासियों के सुझावों की दरकार है.
क्या आप उन्हें सुझा सकते हैं कि उसमें कुछ पल उसकी प्रसारक ‘आकाशवाणी’ के उन कार्यक्रम व प्रसारण अधिकारियों व दूसरे कर्मचारियों की भी चर्चा कर लें, जो लंबे अरसे से न सिर्फ अपनी उपलब्धियों बल्कि आकाशवाणी से प्रसारित हो रहे कार्यक्रमों की घटती गुणवत्ता को लेकर भी चिंतित हैं और पानी सिर से ऊपर हो जाने के बाद ज्वाइंट ऐक्शन फोरम आॅफ आल इंडिया रेडियो एंड दूरदर्शन प्रोग्राम प्रोफेशनल्स के बैनर पर आंदोलित हो उठे हैं.
नहीं, नहीं, आपसे यह बात हम नहीं, ‘आकाशवाणी’ के उक्त उत्पीड़ित अधिकारी व कर्मचारी ही कह रहे हैं और आप उनकी मानकर प्रधानमंत्री को कोई सुझाव दें या नहीं, आपकी मर्जी, लेकिन जागरूक नागरिक के तौर पर आपको चिराग तले के उस अंधेरे के बारे में तो जानना ही चाहिए, जिसके चलते ‘आकाशवाणी’ के उन्नयन व विकास की वे सारी उम्मीदें एकदम से नाउम्मीद होकर रह जा रही हैं, जो प्रधानमंत्री द्वारा उसे देशवासियों से अपने ‘मन की बात’ का माध्यम बनाने से एकबारगी बल्लियों उछलने लगी थीं.
यकीनन, तब लगा था कि कौन जाने, अब दशकों से रुकी हुई कार्यक्रम व प्रसारण अधिकारियों की नियुक्तियां व पदोन्नतियां गति पकड़ लें, जिससे केंद्र निदेशकों तक का अकाल झेल रही ‘आकाशवाणी’ की नियति भी बदले और वह नए समय के साथ कदम मिलाकर चल सके.
लेकिन, चार साल बीत गए, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और अभी भी हालत यह है कि इंडियन ब्रॉडकास्टिंग प्रोग्राम सर्विसेज के 1038 स्वीकृत पदों में से एक हजार रिक्त चले आ रहे हैं.
आपको ताज्जुब होगा, आकाशवाणी में जहां कार्यक्रम व प्रसारण अधिकारियों की पदोन्नतियां पिछले 35 साल से रुकी हुई हैं, वहीं बार-बार ध्यान दिलाये जाने पर भी इस ओर ध्यान न देकर उसके उपमहानिदेशक व अपरमहानिदेशक जैसे निर्णायक व महत्वपूर्ण पदों पर इंजीनियरिंग संवर्ग के ‘नान प्रोफेशनलों’ की तैनाती कर दी जा रही है. स्वाभाविक ही है कि उसकी भविष्य की परियोजनाओं व कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर इसका बेहद विपरीत असर पड़ रहा है.
इन अधिकारियों की यूनियनों की मानें तो इस सारी नाइंसाफी के पीछे वह प्रसार भारती ही है, लोक प्रसारक के रूप में आकाशवाणी व दूरदर्शन पर जरूरत से ज्यादा सरकारी नियंत्रण के खात्मे के लिए 1997 में कानून बनाकर उनका भविष्य जिसके हवाले कर दिया गया.
गलती यह हुई कि उसके बाद किसी भी स्तर पर इसकी चिंता नहीं की गई कि प्रसार भारती कानून उसकी पवित्र मंशा के साथ ठीक से लागू हो और उसके तहत आकाशवाणी व दूरदर्शन की पहुंच व प्रासंगिकता दोनों का निरंतर विस्तार हो.
प्रसंगवश, पहले आकाशवाणी के अराजपत्रित अधिकारी कर्मचारी चयन आयोग से और राजपत्रित अधिकारी संघ लोक सेवा आयोग से चयनित होकर आते थे. उनकी पदोन्नतियां भी संघ लोकसेवा आयोग ही किया करता था.
अलबत्ता, कई बार उसमें थोड़ा देर-सवेर होता था, लेकिन प्रसार भारती के गठन के बाद उसने यह कहकर खुद को इस काम से अलग कर लिया कि अब प्रसार भारती नियुक्तियों के अपने नियम बनाये. तब से बात जहां की तहां अटकी हुई है.
इसलिए कि पिछले 21 वर्षों में प्रसार भारती नियुक्तियों के अपने नियम (रिक्रूटमेंट रूल्स) ही नहीं बना सका है. इसका नतीजा यह है कि ‘आकाशवाणी’ में 1991 के बाद से राजपत्रित और 1994 से अराजपत्रित अधिकारियों की भर्तियां ही नहीं हो रहीं. 1991 में जो भर्तियां हुई थीं, उनके पद 1988 में विज्ञापित किए गए थे और उसके बाद से रिक्तियों का कोई विज्ञापन ही नहीं निकला.
ऐसे में अधिकारियों का अकाल तो वैसे भी होना ही था, वह इस तथ्य के मद्देनजर और बढ़ गया कि जो अधिकारी नियुक्त थे, रिक्रूटमेंट नियमों के अभाव में उनकी पदोन्नतियां भी, अनेक अधिकारी जिनका 1982 से ही इंतजार करते-करते सेवानिवृत्त हो गये या सेवानिवृत्ति के नजदीक पहुंच गए, मुमकिन नहीं हो पाईं.
इसके चलते आज की तारीख में अनेक अधिकारी उच्चतर पदों का दायित्व संभालने के बावजूद उच्चतर पदनाम और वेतनमान व उसकी परिलब्धियों से लगातार वंचित होते चले आ रहे हैं.
विडंबना यह कि इस बीच आकाशवाणी के इंजीनियरिंग यानी अभियांत्रिकी संवर्ग में नियमित अंतराल पर रिक्तियां विज्ञापित की जाती रहीं और उनके आधार पर नियुक्तियां व पदोन्नतियां भी होती रहीं. इसके चलते अब उसके कुल कर्मचारियों में सत्तर प्रतिशत इंजीनियंरिंग सवंर्ग के हैं और कुल वेतन बजट में नब्बे प्रतिशत हिस्सा उन्हीं का है.
‘आधे में अध घर, आधे में सब घर’ की कहावत को भी मात कर डालने वाली यह वस्तुस्थिति कार्यकम संवर्ग पर इस कदर भारी है कि पदोन्नतियों के अभाव में इंजीनियरिंग सवर्ग के आगे उनकी वरिष्ठता तो कहीं टिकती ही नहीं है, उनकी मेरिट की उपेक्षाकर कई निर्णायक शीर्ष पदों पर इंजीनियर बैठा दिए जा रहे हैं, जबकि न वे कार्यक्रमों के निर्माण की बारीकियां जानते हैं और न उनके स्तर से ही न्याय कर सकते हैं.
तिस पर अब ऐसी व्यवस्था कर दी गयी है कि आकाशवाणी केंद्रों पर दो निदेशक होते हैं: एक कार्यक्रमों का और दूसरा इंजीनियरिंग का और दोनों में जिस अधिकारी का वेतनमान ज्यादा होगा, वही केंद्र का निदेशन करेगा.
नियमित अंतराल पर पदोन्नतियों से लाभान्वित इंजीनियरिंग संवर्ग स्वाभाविक ही इसमें भी बाजी मार ले रहा है. इसके चलते आकाशवाणी में निदेशक (अभियांत्रिकी) तो भरपूर हैं लेकिन निदेशक (कार्यक्रम) गिनती के ही बचे है.
कार्यकम अधिकारियों की यूनियनें कहती हैं कि बात इतनी-सी ही नहीं है और आकाशवाणी में इन दिनों और भी ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जो सच पूछिये तो प्रसार भारती ऐक्ट का ही खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है, लेकिन उसकी ओर किसी भी अथाॅरिटी का ध्यान ही नहीं जा रहा.
उनके अनुसार प्रसार भारती अपने अस्तित्व में आने से पहले के नियमों को ही हरी झंडी दिखा देता तो भी ऐसी विडम्बनाएं नहीं पैदा होतीं. क्योंकि तब अराजपत्रित अधिकारी आठ साल की सेवा के बाद पदोन्नति के लिए अर्ह हो जाया करते और राजपत्रित अधिकारी तीन साल की सेवा के बाद. पांच साल बाद उन्हें सेलेक्शन ग्रेड मिल जाया करता और उनका वेतन भारत सरकार के डिप्टी सेक्रेटरी के बराबर हो जाता. उसी हिसाब से उनका ‘प्रोटोकाॅल’ भी बढ़ता और कार्यकुशलता भी.
आकाशवाणी के कैजुअल उद्घोषकों व प्रस्तोताओं में भी, जिनके पैनल में एक समय नियमित उद्घोषकों के मुकाबले तीन से चार गुना तक उद्घोषक शामिल थे, गहरा असंतोष व्याप्त है और वे खुद को वायदाखिलाफी और शोषण का शिकार बता रहे हैं.
उनकी शिकायत है कि नियमितीकरण में तो उनके साथ सौतेला व्यवहार किया ही जा रहा है और ड्यूटियां देने के मामले में भी सदाशयता नहीं बरती जा रही. ऐसा तब है जब कई न्यायाधिकरण उनके दावे को उचित मान चुके और आकाशवाणी महानिदेशालय को आदेश जारी करके कह चुके हैं कि इन उद्घोषकों का नई या पुरानी किसी भी नीति के अंतर्गत नियमितीकरण किया जाए.
आल इंडिया रेडियो कैजुअल एनाउंसर्स एंड कम्पेयर्स यूनियन के अध्यक्ष हरिकृष्ण शर्मा का दावा है कि इस सिलसिले में उन अदालती आदेशों की अवज्ञा भी की जा रही है, जो कैजुअल उद्घोषकों को राहत प्रदान कर सकते हैं.
दूसरे सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार अब आकाशवाणी ने कैजुअल उद्घोषकों के संवर्ग को मृत घोषित कर दिया है और उनसे मुक्ति पाने के लिए रि-स्क्रीनिंग की बात कही जा रही है. पहले परीक्षाएं पास कर नियुक्त हुए उद्घोषकों और प्रस्तोताओं को इस तर्क पर दोबारा लिखित परीक्षा, साक्षात्कार और स्वर परीक्षण के लिए बाध्य किया जा रहा है कि उम्र बढ़ने पर आवाज की क्वालिटी खराब हो जाती है.
इससे क्षुब्ध कैजुअल उद्घोषक पूछ रहे हैं कि नियमित उद्घोषकों के मामले में यह कसौटी क्यों नहीं लागू की जाती? उनकी लगातार ऑन एयर होने वाली आवाजों की क्वालिटी उनकी सेवानिवृत्ति तक क्यों खराब नहीं होती? उनका दोबारा परीक्षा क्यों नहीं ली जाती?
गौरतलब है कि कैजुअल दूरदर्शन एंकरों व न्यूज रीडरों की भी रि-स्क्रीनिंग नहीं होती. हां, कैजुअल उद्घोषक कुछ दिलचस्प वाकये भी याद दिला रहे हैं. पहला यह कि आकाशवाणी के अधिकारियों ने एक स्वरपरीक्षा में सुप्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन को भी फेल कर दिया था, जबकि आज उनकी आवाज में खूब विज्ञापन बजाये जा रहे हैं. और दूसरा यह कि उम्र बढ़ने पर भी लता मंगेशकर व भीमसेन जोशी सरीखी शख्सियतों की आवाज में रियाज या प्रैक्टिस से निखार ही आता गया था.
वे यह भी पूछ रहे हैं कि जिस आकाशवाणी को प्रधानमंत्री अपने मन की बात देशवासियों तक पहुंचाने का सबसे उपयुक्त माध्यम मानते हैं, वे और उनकी सरकार उसके ही अधिकारियों के असंतोष को लेकर इतने विमन क्यों हैं?
वे ‘आकाशवाणी पर’ बात करने आते हैं तो ‘आकाशवाणी’ की बात क्यों नहीं करते? क्यों नहीं समझते कि आकाशवाणी की पतीली में इस तरह के जो असंतोष खदबदा रहे हैं, उनका उबाल उसके पहले से ही खराब हाल को और खराब कर सकता है?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)