बंटवारे के बाद हमेशा के लिए बदल गया भारतीय ज़ायक़ा

बंटवारे के बाद नए ज़ायक़ों ने जगह बनानी शुरू कर दी. ‘तंदूरी’ दिल्ली का खाना बन गई और शाहजहानाबाद यानी पुरानी दिल्ली के मुग़लई व्यंजन थाली से बाहर होते गए. बंटवारे के पहले के कई व्यंजन अब भुलाए जा चुके हैं, लेकिन यह भी सच है कि उस प्रलयकारी अध्याय ने भारत का परिचय नए ज़ायक़ों से भी कराया.

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(फोटो साभार: travelkhana.com)

भीड़ से ठसाठस भरी रहने वाली और हर तरह के कारोबार से गुलज़ार दरियागंज गली के आख़िरी सिरे पर लोहे का एक पुराना भारी दरवाज़ा है. इसे थोड़ा धकेलकर भीतर दाख़िल होइए, तो आप ख़ुद को एक पुराने बगीचे में पाएंगे. यह बगीचा एक अहाते का हिस्सा है. इसके आगे ‘द टैरेस’ नाम की एक पुरानी औपनिवेशिक शैली की हवेली है, जो आपको अतीत में ले जाती है. यह ‘शहर’ में बची हुई आख़िरी ‘कायस्थ’ हवेली है.

‘शहर’ यानी किसी ज़माने का आलीशान शाहजहानाबाद (पुरानी दिल्ली), वह एकमात्र शहर जो यहां के बाशिंदों के लिए अहमियत रखता था.

कुछ साल पहले सर्दी की एक शांत दोपहर में, जब सूरज की किरणें बगीचे में हमारी कुर्सियों पर अठखेलियां कर रही थीं, मिसेज राजेश दयाल से यहीं मेरी आख़िरी बार मुलाक़ात हुई थी. 1930 से उनका पूरा जीवन यहीं गुज़रा था. मैं कायस्थ पाक-शैली (कुज़ीन) और संस्कृति पर अपनी किताब के सिलसिले में उनका इंटरव्यू करने गई थी.

‘मैं आज भी बूबी को याद करती हूं,’ हमारी बेतरतीब बातों के बीच किसी मोड़ पर उन्होंने बेहद शिद्दत के साथ कहा था. बूबी, बल्लीमरान की मुस्लिम बस्ती में रहने वाला एक रसोइया था, जिसका उस समय काफी जलवा हुआ करता था.

अपने चटोरेपन के लिए मशहूर कायस्थ लोग मीट खाने के शौकीन थे. वे बूबी को घर में होने वाली शादियों, संगीत और होली, दीवाली के मौकों पर ख़ास तौर पर खाना पकाने के लिए बुलाते थे.

बूबी यमुना के पास की मुलायम पिट्टी वाले मैदान में एक गड्ढा बनाता, उसमें गरम चारकोल बिछाता और मीट, मसाले और सब्ज़ियों के एक बड़े और भारीभरकम देग को इस गड्ढे के भीतर रखकर इसे मिट्टी से ढक देता.

काफ़ी कलाकारी से बनाए गए इस देसी ओवन से वह ‘शबदेग’ (पूरी रात पकाई जाने वाली डिश जिसमें धुएं वाली तरी में मीट और शलज़म मिलकर एक ही रंग-रूप ले लेते थे और चम्मच के छूने भर से टूट जाते थे) जैसा एक पर एक लज़ीज़ व्यंजन पेश करता.

‘वैसा शबदेघ खाना मुझे फिर कभी नसीब नहीं हुआ. यह डिश गुम हो गई.’ यह कहते हुए मिसेज दयाल की आवाज़ थरथरा उठी थी.

मिसेज दयाल, ‘मिसेज एलसीज़ टेबल’ (Mrs LC’s Table) किताब के छपने से पहले ही चल बसीं. उनकी मौत के साथ न जाने कितने पकवान, कितने तरह का खाना और उन्हें पकाने वाले लोगों की स्मृतियां भी समाप्त हो गईं.

जहां तक बूबी का सवाल है, कई दूसरे लोगों की तरह, उसे भी विभाजन ने इस तरह निगल लिया कि उसका नामोनिशान ही मिट गया.

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से लेकर 1947 में भारत के विभाजन तक के ख़ूनी वर्षों ने दिल्ली की पुरानी संस्कृति के ताने-बाने को तार-तार कर दिया. खान-पान की पुरानी संस्कृति भी इसका शिकार हुई.

यह एक छोटा मगर अहम नुकसान था. बेहद कलाकारी और जतन से बनाए जाने वाले व्यंजनों का स्थान पश्चिमी पंजाब के टमाटर से भरे दबंग ज़ायक़ों ने ले लिया.

सरहद की दूसरी तरफ़ से नए प्रवासी समुदाय के आने से नए ज़ायक़ों और खाना पकाने के नए तरीकों ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी. ‘तंदूरी’ दिल्ली का खाना बन गई और शाहजहानाबाद की मिली-जुली तहज़ीब की पैदाइश मुग़लई व्यंजन थाली से बाहर होते गए.

शाहजहानाबाद के कुछ शानदार मुग़लई व्यंजन आपको आज भी मिल जाएंगे- जाड़े के दिनों में पकाया जाने वाला मीट और शलजम के मिलन वाला शबदेग, मेवे से भरा मटनजान पुलाव, गोला कबाब, जिसमें असली कलाकारी सींक से कबाब को इतने माहिर तरीके से निकालने की है कि कीमे का एक पूरा गोला प्लेट में गिर जाए, शहर के शौकीन लोगों की पसंद स्पेशल मेरठ कुल्फी या सिगड़ी पर सेंक कर पकाया गया दिल के कबाब.

फारसी की जानकार और मुगल व्यंजनों पर ‘द एम्परर्स टेबल’ नामक किताब लिखने वाली सलमा हुसैन कहती हैं, ‘लेकिन इनमें से ज़्यादातर व्यंजन अब सिर्फ़ धुंधली और मिटती जा रही यादों में ही ज़िंदा हैं. किसी ज़माने में जामा मस्जिद के बाहर सिर्फ़ एक कबाबची हुआ करता था, जो दो दशक पहले तक गोला कबाब बनाया करता था. जब उसने अपनी दुकान लगानी बंद कर दी, तब मैंने उससे इसका कारण पूछा और उसका जवाब था, बीबी, अब वो पुराने लोग नहीं रहे. उसके नए ग्राहक सिर्फ सस्ते और सामान्य कबाब चाहते थे.’

दिल्ली का असली मुग़लई खाना शाहजहानाबाद के चार परंपरागत समुदायों के बीच नज़दीकी रिश्तों के नतीजे के तौर पर अस्तित्व में आई मिली-जुली तहजीब की देन था.

ये समुदाय थे- मुस्लिम कुलीन वर्ग, शिक्षित कायस्थ समूह, दरबार से ताल्लुक़ रखने वाले लोग और कारोबार और बैंकों के स्वामित्व वाले बनिया तथा खत्री.

खान-पान की यह परंपरा ढाई शताब्दियों में रफ़्ता-रफ़्ता विकसित हुई जिसमें हिंदुस्तान के आख़िरी सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र के देश निकाले के काफ़ी बाद तक मिलती रही सरपरस्ती का अहम योगदान था. लेकिन, बंटवारे ने सब कुछ को बदल डाला.

तंदूर (या तन्नूर, जैसा कि इसे अरबी में पुकारा जाता है) का जन्म मध्य एशिया में हुआ, जहां इसका इस्तेमाल आज भी रोटी को बेक करने के लिए किया जाता है.

पंजाब में भी तंदूर का शुरुआती इस्तेमाल इसी रूप में होता था. पंजाब के गांवों में सांझा चूल्हा की संस्कृति सामुदायिक तंदूरों के इर्द-गिर्द क़ायम हुई थी. जिसके चारों ओर औरतें ताज़ी रोटियां सेंकने के लिए ही नहीं, अपनी ज़िंदगी के छोटे-मोटे सुख-दुख बांटने के लिए भी जमा होती थीं.

पंजाब के हिंदू शरणार्थी दिल्ली जैसे बड़े महानगर में आए तो अपने साथ मिट्टी का तंदूर भी लेते आए. उनके साहस, जुझारूपन और उनकी कारोबारी बुद्धि का सांस्कृतिक रूप से अभिजात्य और नाज़ुक दिल्लीवालों से कोई मुक़ाबला नहीं था.

कारोबारों की बागडोर नए लोगों ने संभाल ली और दिल्ली के खान-पान पर तंदूरी का एक तरह से दबदबा क़ायम हो गया.

1947 में पेशावर से आए शरणार्थी कुंदनलाल गुजराल ने सबसे पहले दरयागंज में ‘मोती महल’ नाम का एक रेस्तरां खोला, जो ‘द टैरेस’ से ज़्यादा दूर नहीं था. गुजराल के एक परिचित और मोती महल के शुरुआती संरक्षको में से एक अनिल चंद्रा, जो दिल्ली के पुराने बाशिंदे हैं, बताते हैं, ‘दंगों ने इमारत को काफ़ी नुकसान पहुंचाया था. इसकी छत ग़ायब हो गई थी और इसके कुछ हिस्से ख़तरनाक तरीके से झूल रहे थे.’

इस इमारत में ही गुजराल ने अपना तंदूर जमाया और पुराने पेशावर की ईटरीज़ की तर्ज पर भुने हुए मुर्गे को नान के साथ बेचने लगे.

चंद्रा बताते हैं, ‘दिल्ली के पुराने निवासियों में, जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों थे, चिकन खाने का चलन नहीं था और जब तक युवा पीढ़ी नए ज़ायके के संपर्क में आई, तब तक इसको लेकर थोड़ा प्रतिरोध का भी रुख़ रहा… या थोड़ी दूरी भी बनाकर रखी गई.’

दाल मखनी, तंदूरी चिकन और नान अपनी जगह, मगर जल्द ही तरी (ग्रेवी) की मांग की जाने लगी. इस मोड़ पर गुजराल ने जो काफ़ी व्यावहारिक थे, बचे हुए तंदूरी चिकन (क्योंकि तब रेफ्रिजरेशन की सुविधा काफ़ी महंगी थी) को बटर, दही और टमाटर की ग्रेवी में इस्तेमाल करने का फैसला किया.

इस तरह मखनी ग्रेवी का जन्म हुआ और इसने हमेशा, हमेशा के लिए ‘भारतीय’ खाने और ज़ायके को बदल कर रख दिया.

सलमा हुसैन बताती हैं, ‘हालांकि, ऐसा नहीं था कि मुग़लई खाना पूरी तरह से पुराने शहर से ग़ायब हो गया. बंटवारे के बाद के शुरुआती दशकों तक फ्लोरा जैसे रेस्तरां अपने मुग़लई व्यंजनों के लिए मशहूर थे. इन रेस्तराओं के मालिक और हकीम (किसी ज़माने में पुरानी दिल्ली का सबसे मशहूर कैटरर) जैसे कैटररों ने बंटवारे के बाद दिल्ली में ही रहने का फैसला किया. कुछ कबाबची और कुल्फी और चाट वाले, जो विभाजन के बाद यहां-वहां बिखर गए थे, भी लौट आए.’

लेकिन, अब कारोबार पहले की तरह नहीं रहा. पुराने भद्र लोग, जा चुके थे. नया ज़ायका अपनी जगह बना रहा था और कारोबार करने के नए तरीके विकसित हो रहे थे. धीरे-धीरे खाने का पुराना कारोबार बंद होता गया.

इसके साथ दिल्ली में एंग्लो-इंडियन खाना भी गुम हो गया. कटलेट, चॉप और स्कोन (बिस्किट) आदि की जगह कनॉट प्लेस की सजे-धजे दुकानों में परोसे जाने वाले भारतीय नाश्तों (स्नैक्स) ने ले ली, जिनके मालिक पंजाबी परिवार थे.

यूनाइटेड कॉफी हाउस और क्वालिटी जैसे रेस्तरां कैफे के तौर पर 1940 के दशक की शुरुआत में अस्तित्व में आए थे, जिनके ग्राहक मुख्य तौर पर यूरोपीय लोग और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लुटियन दिल्ली में तैनात सैनिक हुआ करते थे.

बंटवारे के बाद, जब तंदूरी का राज कायम हो गया और पंजाबी जायके की स्वीकृति बढ़ती गई, इन जगहों में परोसे जाने वाले यूरोपियन और एंग्लो इंडियन खाने में भी बदलाव आया.

आज भी क्वालिटी और यूनाइटेड कॉफी हाउस में आपका सामना ख़ास किस्म के कॉन्टिनेंटल फूड से हो सकता है. लेकिन, इनके मेन्यू में दिखाई देने वाले पुराने फैशन वाले ‘आउ गैरटिन्स’ और चिकन ‘अ ला कीव्स’ वास्तव में 1960 के दशक की देन हैं, जब टेबलों पर कॉन्टिनेंटल खानों के दूसरे दौर का आगाज़ हुआ था.

ऐसा नहीं है कि बंटवारे के बाद खान-पान की संस्कृति में ऐसा बदलाव सिर्फ़ दिल्ली में ही आया. लखनऊ और मेरठ जैसी जगहों पर भी जहां अवध की मिली-जुली मगर अंतर्मुखी संस्कृति ने कुलीन वर्ग और रईस ज़मींदारों की खाने की मेजों को रंग-बिरंगे शानदार व्यंजनों से सजाया था, विभाजन के बाद बदलाव देखने को मिला.

प्रवासी ढाबा मालिकों के आने के बाद स्टेशन के नज़दीक की दुकानों पर काली मिर्च चिकन जैसी नई डिशें दिखाई देने लगीं.

बेहद जतन और कारीगरी से बनाई जाने वाली मलाई पान जैसी डिशें आज भुला दी गई हैं. शामी कबाब, पसंदे, मीट और सब्ज़ी की तरह-तरह की तरी कुछ घरों में ही सिमट कर रह गई, क्योंकि रईस मुस्लिम ज़मींदारों के चले जाने के कारण, इनके शौकीनों की संख्या काफ़ी घट गई.

खान-पान की दुनिया में हाल के समय में एक नया शब्द ख़ूब चर्चा में है- ‘उमामी’ (इसे नमकीन, मीठा, खट्टा और कड़वा के बाद स्वाद का पांचवां प्रकार कहा जा रहा है).

पश्चिमी दुनिया द्वारा इस पांचवें स्वाद की पहचान पाक-कला के लिए अनिवार्य मीट जैसे स्वाद के तौर पर किए जाने से काफ़ी पहले, पंजाबी ज़ायके में टमाटर को सम्मानित आसन दे दिया गया था. (टमाटर में प्राकृतिक तौर पर ग्लूटामेट पाया जाता है, जो उमामी स्वाद में योगदान देता है)

मसालों के सधे हुए इस्तेमाल और दही के साथ पकाए जाने वाले मुग़लई खाने की जगह टमाटर, प्याज और लहसुन की उमामी स्वाद से भरी गाढ़ी ग्रेवी ने ली और यह पंजाबी रेस्तराओं (विडंबना यह कि वे खुद को मुग़लई कहते थे) की हर एक डिश की पहचान बन गई.

बंटवारे के बाद भारतीय खान-पान का इतिहास इस अर्थ में बदल गया कि व्यंजनों की दुनिया में पहली बार भारतीय ग्रेवी नाम का एक विचार सामने आया.

भारत में जन्मा यह भारतीय खाना, जिसे ख़ासतौर पर पंजाबी स्वाद को ध्यान में रखकर आविष्कार किया गया था, पूरी तरह से रेस्तराओं की ईजाद था.

भारत जैसे देश में जहां, पकवानों में इतनी विविधता है कि हर 100 किलोमीटर पर कोई व्यंजन अपनी सूरत बदल लेता है, यह किसी विडंबना से कम नहीं है कि पंजाबी रेस्तराओं में ईजाद किया गया खाना भारत के भीतर ही नहीं, बाहर भी भारतीय खाने की पहचान बन गया.

विदेशियों को जिन्हें भारतीय खाने के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है, आज भी भारतीय खाने की पहचान पूरी तरह से इस मिलावट वाली ग्रेवी से ही करते हैं.

रेस्तराओं के कढ़ाई पनीर, बाल्टी मीट, बटर चिकन जैसे खानों का दबदबा आज तक देश के अंदर भी देखा जा सकता है. हालांकि, ऐसा लगता है कि पिछले कुछ समय से हम भारत के विभिन्न क्षेत्रों के व्यंजनों की फिर से खोज कर रहे हैं.

1980 और 1990 के दशक में भारतीय होटल चेन- ताज में अस्तित्व में आए कई रेस्तराओं की कल्पना में कैमिलिया पंजाबी का अहम योगदान रहा. अपनी किताब ‘50 ग्रेट करीज ऑफ इंडिया’ में वे लिखती हैं, ‘मेन्यू में भारत के क्षेत्रीय डिशों को जगह देने की कोशिशों को एक तरह से हमेशा ग्राहकों के विरोध का सामना करना पड़ा. ग्राहकों ने मेन्यू के पंजाबी डिशों का ऑर्डर करना जारी रखा. भारत में लाइफ-स्टाइल के तहत बाहर खाने वालों का बहुमत पंजाबियों का है… चूंकि देश लगभग हर भारतीय रेस्तरां की ग्राहकी में सबसे बड़ा हिस्सा इनका ही है, इसलिए रेस्तरां के मालिक अपने मेन्यू में आजमाए हुए पसंदीदा पंजाबी खाने से अलग कोई और प्रयोग करने से काफ़ी घबराते हैं.’

बाहर खाने की इस संस्कृति में नयी सहस्राब्दी में जन्मी पीढ़ी के साथ आख़िरकार बदलाव आ रहा है, लेकिन, आज़ादी के बाद एक देश के तौर पर हमारे जीवन में भारतीय रेस्तराओं के खाने की पहचान सबसे पहले दिल्ली में जगह बनाने वाला पंजाबी खाना ही रहा है.

निश्चित तौर पर विभाजन ने खान-पान की संस्कृति में दूसरे बदलावों को भी जन्म दिया. मसलन, मुंबई में कराची के कॉस्मोपॉलिटन से आने वाले प्रवासी अपने साथ शाम के समय लिए जाने वाले नाश्ते (स्नैक्स) की व्यापक संस्कृति लेकर आए.

कैमिला पंजाबी बताती हैं, ‘मुंबई में भेलपुरी से आगे बढ़कर चाट की संस्कृति सिंधियों के आने के बाद ही दिखाई दी. वे स्नैक्स के जबरदस्त शौकीन थे.’

अगर हम इस कहानी पर यकीन करें, तो इसका मतलब ये निकलता है कि चाट, जिसे उत्तर प्रदेश की मिली-जुली संस्कृति की पैदाइश कहा जा सकता है, घुमावदार रास्ते से भारत की कारोबारी राजधानी तक पहुंची.

बंगाल में हिल्सा (मछली) आपसी प्रतिद्वंद्विता की बड़ी वजह बन गई. पूर्वी बंगाल के प्रवासी अपने साथ खाना पकाने की ज़्यादा परिष्कृत विधि लेकर आए (जैसा कि माना जाता है).

उनके अंदर पद्मा नदी (पूर्वी बंगाल की गंगा, जिसे तब पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था) की इलिश के प्रति जबरदस्त नॉस्टेल्जिया का भाव था, जिसे गंगा की हिल्सा से बेहतर माना जाता है.

‘ओह! कलकत्ता’ नाम से रेस्तरां चेन चलाने वाले अंजन चटर्जी कहते हैं, ‘बांग्लादेश (की इलिश मछली) की गुणवत्ता अच्छी है. भारत में डिमांड-सप्लाई में अंतर के कारण इसका आकार भी घट रहा है. वे मछली को जल्दी पकड़ लेते हैं और इसका स्वाद भी उतना अच्छा नहीं है.’ ओह! कलकत्ता के मेन्यू ने पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के ज़ायकों में एक संतुलन बनाकर रखा है.

चटर्जी की पत्नी का संबंध पूर्वी बंगाल के परिवार से है, जबकि वे ख़ुद घोटी (पश्चिमी बंगाल से) हैं और पूर्वी हिस्से वालों की श्रेष्ठ कुकिंग का लोहा मानते हैं. (पाक-कला की प्रतिद्वंद्विता फुटबॉल की तरह गहरी हो सकती है).

चटर्जी बताते हैं, ‘कद्दू (घीया या लौकी) के पत्ते में लपेटी हुर्ह इलिश, जिसे आम के अचार के मसाले के साथ मैरिनेट किया जाता है और आधे पके चावल के भीतर रखकर फिर से भाप में पकाया जाता है, जैसे कुछ व्यंजन आज गुम हो गए हैं.’

सुखाई हुई मछली शुक्ती और सिलहट का स्पेशल अचार, मलाई चमचम जैसी मिठाइयां और कोमिला की भापा दोई और ढाका के पुराने मुस्लिम घरों की ‘दावतों’ के कोरमा और कच्चे गोश्त की बिरयानी आदि की आज बस यादें बची रह गई हैं.

हक़ीक़त ये है कि इन शानदार व्यंजनों में से कई आज बांग्लादेश में भी नहीं मिलते, जहां खाने की पुरानी संस्कृति का स्थान नई संस्कृति ने ले लिया है. लेकिन यह भी तो सच है कि बड़े पैमाने पर होने वाली उथल-पुथल का अंजाम ऐसा ही तो होता है.

ये हमें एक किसी मथनी में डाल देती हैं, जिसमें कुछ चीज़ों का नामोनिशान मिट जाता है, तो कुछ नई चीज़ें भी हासिल होती हैं. बंटवारे से पहले के कई व्यंजन अरसा पहले भुलाए जा चुके हैं, लेकिन यह भी सच है कि उस प्रलयकारी अध्याय ने भारत का परिचय नए ज़ायक़ों से भी कराया.

(अनूठी विशाल विभिन्न व्यंजनों और जायकों पर लिखती हैं.)

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