तीन बार प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी कुल मिलाकर 47 साल तक संसद के सदस्य रहे. वह 10 बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के लिए चुने गए.
नई दिल्ली: भाषाओं, विचारधाराओं और संस्कृतियों के भेद से परे एक कद्दावर और यथार्थवादी करिश्माई राजनेता. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रबुद्ध वक्ता और शांति के उपासक होने के साथ साथ हरदिल अजीज और मंझे हुए राजनीतिज्ञ भी थे. वह वास्तव में भारतीय राजनीति के ‘अजातशत्रु’ थे.
वाजपेयी, जिनका गुरुवार को 93 वर्ष की उम्र में निधन हो गया, केंद्र में पांच साल पूरे करने वाली गैर कांग्रेसी सरकार के पहले प्रधानमंत्री थे. 1996 में केंद्र की सत्ता में भाजपा की ताजपोशी वाजपेयी की कमान में ही हुयी थी.
हालांकि यह सत्ता मात्र 13 दिन की थी क्योंकि गठबंधन सरकार अन्य दलों का समर्थन जुटाने में विफल रही थी लेकिन वाजपेयी के करिश्माई व्यक्तित्व के बल पर ही भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन की सरकार 1998 में फिर सत्ता में लौटी और अजब संयोग कहिए कि 13 दिन के बाद इस बार 13 महीने में सरकार अविश्वास प्रस्ताव की अग्नि परीक्षा को पास नहीं कर पाई और गिर गई.
अक्टूबर 1999 भाजपा के लिए काफी शुभ रहा और वाजपेयी का करिश्मा इस बार भी चमत्कार करने में कामयाब रहा और वह फिर से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक सरकार (राजग) के प्रधानमंत्री बने.
इस बार उनकी सरकार ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया और स्वतंत्रता सेनानी से शुरू होकर एक पत्रकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता, संसद सदस्य, विदेश मंत्री, विपक्षी नेता तक का उनका राजनीतिक कैरियर एक ऐसे मोड़ पर आकर इतने गरिमामय तरीके से संपन्न हुआ कि वाजपेयी जन-जन के प्रिय बन गए.
अपनी पीढ़ी के अन्य समकालीनों की तरह ही वाजपेयी ने मात्र 18 साल की उम्र में स्वतंत्रता आंदोलन के जरिए 1942 में राजनीति में प्रवेश किया. उस समय देश में भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था.
जिंदगी भर कुंवारे रहे वाजपेयी पहली बार 1957 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से लोकसभा के लिए चुने गए थे. ये देश का दूसरा आम चुनाव था. संसद में अपने पहले ही भाषण से युवा नेता वाजपेयी ने अपने समकक्षों और वरिष्ठों का दिल जीत लिया.
उनका भाषण इतना सारगर्भित था कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक सम्मानित मेहमान के समक्ष उनका परिचय कुछ इस प्रकार दिया था, ‘ये युवा एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा.’
अटल बिहारी वाजपेयी 47 सालों तक संसद सदस्य रहे-दस बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के सदस्य के रूप में.
भारतीय राजनीति में वाजपेयी एक प्रमुख हस्ताक्षर बनकर उभरे और राजनीति के उतार-चढ़ावों के बीच उन्होंने ऐसी पद प्रतिष्ठा पाई कि न केवल उनकी अपनी पार्टी और सहयोगी दल बल्कि विपक्षी भी उनसे दिल खोलकर गले मिलते थे.
अंग्रेजी के वह धाराप्रवाह वक्ता थे लेकिन उनकी आत्मा हिंदी में बसती थी. जब वह हिंदी में अपने विशिष्ट अंदाज में लंबे अंतरालों के साथ भाषण देते थे तो लगता था उनकी जिह्वा पर देवी सरस्वती आ बैठी है.
अपनी भाषण कला और उदात्त विचारों ने उन्हें आम जन, राजनेताओं और विश्व नेताओं का एक ऐसा चहेता नेता बना दिया था जिसकी छाया में सभी विचारधाराएं, सभी वाद और सर्वधर्म विश्राम पाता था.
वह 1977 में मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री रहे. वह पहले नेता थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण दिया था.
मार्च 2015 में उन्हें देश के सबसे उच्च और प्रतिष्ठित सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. केंद्र में उनके छह साल के कार्यकाल को कुछ संकटों का भी सामना करना पड़ा.
1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण कर उसे अफगानिस्तान के कंधार ले जाने की घटना, साल 2001 में संसद पर हमला, साल 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक दंगे कुछ ऐसी ही घटनाएं थीं.
हालांकि उनकी सरकार ने देश की ढांचागत परियोजनाओं पर भी अपनी छाप छोड़ी और स्वर्ण चतुर्भुज राजमार्ग नेटवर्क सर्वाधिक सराहनीय रही जिसके माध्यम से भारत के चार प्रमुख महानगरों को 5,846 किलोमीटर लंबे सड़क नेटवर्क से जोड़ा गया.
विदेशों में एक महान राजनेता के तौर पर पहचान रखने वाले वाजपेयी का प्रधानमंत्री के रूप में 1998 से 1999 तक का कार्यकाल साहसिक कदम के लिए जाना जाता है.
भारत ने उनके नेतृत्व में मई 1998 में राजस्थान के पोखरण रेंज में सफल परमाणु परीक्षण कर दुनिया में अपनी धाक जमा दी. इस परीक्षण के कारण भारत को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा किंतु वाजपेयी के कुशल नेतृत्व में देश उन अड़चनों से पार पा गया. साथ ही उन्होंने भविष्य में ऐसे किसी परीक्षण पर स्वत: रोक का भी ऐलान किया.
इसके बाद शांति के मसीहा के रूप में वाजपेयी ने पाकिस्तान की ओर शांति का हाथ बढ़ाया और फरवरी 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच पहली बस में सवार होकर लाहौर पहुंचे. पड़ोसी के साथ शांति की ओर कदम बढ़ाने में उन्होंने पार्टी के आलोचकों की परवाह नहीं की. इस ऐतिहासिक यात्रा में देव आनंद जैसे अभिनेता उनके साथ गए थे. वहां प्रधानमंत्री ने तत्कालीन पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात की और उनकी इस मुलाकात को दोनों देशों के संबंधों में एक नए युग की शुरुआत बताया गया.
हालांकि पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ वाघा सीमा पर उनकी अगवानी करने नहीं आए और बहुत जल्द ही उनके न आने का कारण स्पष्ट हो गया था. पाकिस्तान ने दोहरा खेल खेलते हुए भारत पर करगिल युद्ध थोप दिया. वाजपेयी के कुशल नेतृत्व में देश की सेनाओं ने उसे करारा जवाब दिया. वाजपेयी के हौसले और कूटनीतिक कदमों के चलते पाकिस्तान को अपने घुसपैठिए वापस बुलाने पड़े.
देश में वाजपेयी की जय जयकार के नारे गूंज उठे. लाहौर शांति पहल विफल होने पर वाजपेयी ने 2001 में जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर सम्मेलन के जरिए एक और कोशिश की, लेकिन वह भी नाकाम रही.
वाजपेयी जी के राजनीतिक जीवन में एक और भी ऐतिहासिक पल था जब उन्होंने वर्ष 2002 में गुजरात में गोधरा कांड के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों पर अपना क्षोभ जाहिर किया था. उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के प्रधानमंत्री थे.
दंगों से वह इतने व्यथित हुए कि अपनी भावनाओं को छुपा नहीं सके और उन्होंने वह ऐतिहासिक बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार को ‘राजधर्म’ का पालन करना चाहिए. पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि गुजरात दंगे ‘संभवत: वाजपेयी सरकार पर सबसे बड़ा धब्बा थे.’ ये भाजपा को 2004 के आम चुनाव में भारी पड़ सकते थे.
राजग के चुनाव हारने के बाद वाजपेयी ने 2005 में राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लिया. उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर कभी कोई सवाल नहीं उठा. वह 1957 में पहली बार सांसद बने थे. वर्ष 2004 के आम चुनाव में उनकी पार्टी भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा. बाद में वाजपेयी का स्वास्थ्य खराब रहने लगा और धीरे-धीरे वह सार्वजनिक जीवन से दूर होते चले गए.
किशोरावस्था में उन्हें ब्रिटिश शासन का विरोध करने के कारण जेल भी जाना पड़ा. पहले वह साम्यवादी थे, लेकिन बाद में हिंदू राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ से जुड़ गए. उन्होंने 1950 के दशक के शुरू में आरएसएस की पत्रिका चलाने के लिए स्कूल छोड़ दिया था. 1942 से 1945 तक वह भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे.
वह भारतीय जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अनुयायी थे. मुखर्जी ने जब कश्मीर से संबंधित मुद्दों को लेकर आमरण अनशन किया तो उस समय वाजपेयी ने उनका साथ दिया. कमजोरी, बीमारी और जेल में रहने के कारण मुखर्जी का निधन युवा वाजपेयी के जीवन में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ.
कलम के भी धनी वाजपेयी राष्ट्रदूत पत्रिका तथा वीर अर्जुन समाचारपत्र के सम्पादक भी थे. अविवाहित रहे वाजपेयी ने जीवन के हर रंग को अपनी कविताओं में बखूबी उकेरा. उनकी कविता का मूल स्वर राष्ट्रप्रेम ही था. वाजपेयी को कम शब्दों में परिभाषित करने के लिए उनकी यह पंक्ति पर्याप्त हैं,
‘मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?’
10 बार लोकसभा, दो बार राज्यसभा के लिए चुने गए
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कुल मिलाकर 47 साल तक संसद के सदस्य रहे. वह 10 बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के लिए चुने गए.
वह 1984 में लोकसभा चुनाव हारे थे जब कांग्रेस के माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर में उन्हें करीब दो लाख वोटों से शिकस्त दी थी.
वाजपेयी ने 10वीं, 11वीं, 12वीं, 13वीं और 14वीं लोकसभा में 1991 से 2009 तक लखनऊ का प्रतिनिधित्व किया. दूसरी और चौथी लोकसभा के दौरान उन्होंने बलरामपुर का नेतृत्व किया, पांचवीं लोकसभा के लिए वह ग्वालियर से चुने गए जबकि छठीं और सातवीं लोकसभा में उन्होंने नयी दिल्ली का प्रतिनिधित्व किया.
वाजपेयी 1962 और 1986 में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए. मुंबई में पार्टी की एक सभा में दिसंबर 2005 में वाजपेयी ने चुनावी राजनीति से अपने को अलग करने की घोषणा की. वह करीब 47 सालों तक सांसद रहे.
वाजपेयी 1996 से 2004 के बीच तीन बार प्रधानमंत्री भी रहे. पहली बार 13 दिन के लिये, फिर 1998 और 1999 के बीच 13 महीनों के लिए और फिर 1999 से 2004 तक.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)