स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं के बाद अटल बिहारी वाजपेयी जब दीन-दुनिया से बेख़बर रहने लगे, तो क्या संघ परिवार के उन नेताओं में से ज़्यादातर ने, जो आज उनके लिए मोटे-मोटे आंसू बहा रहे हैं, कभी उनका हालचाल जानने की ज़हमत भी उठायी?
गहन शोक के क्षण आमतौर पर उससे संतप्त हृदयों के निर्मल व निष्छल उदगारों के लिए होते हैं. ऐसी ईमानदार अभिव्यक्तियों के लिए, जो दुख का पारावार न रह जाने पर सारे तटबंध तोड़कर फूट पड़तीं और बह निकलती हैं.
लेकिन इस बात का क्या किया जाये कि गत गुरुवार को भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी का निधन हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर यह जिम्मेदारी आ पड़ी कि वे उन्हें न सिर्फ अपनी बल्कि सवा सौ करोड़ देशवासियों की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करें तो वे उसे भी निष्छल होकर नहीं निभा पाये.
यहां तक तो ठीक था कि अपने श्रद्धांजलि लेख में खुद को भावविह्वल जताते हुए उन्होंने लिखा कि जो अटल बिहारी वाजपेयी उन्हें अंकवार में भर लेते थे और जिनके हाथ उनकी पीठ पर धौल जमाते थे, उनका मन है कि उनका न रहना अभी भी स्वीकार नहीं कर पा रहा और उसे लगता है कि वे अब भी पंचतत्वों में व्याप्त हैं.
जब भी कोई शोक सीमाएं लांघता है, ऐसे व्यामोह साथ लाता ही है, जो व्यक्ति के प्रकृतिस्थ होने तक उसे सताते रहते हैं. लेकिन अगली ही पंक्ति में उन्होंने लिखा कि मैं अटल जी के निधन के बाद भी उनकी आवाज अपने भीतर गूंजती हुई महसूस कर रहा हूं, तो पलटकर पूछने का मन हुआ कि ऐसा क्योंकर हो सकता है?
अटल जी की वह आवाज अब, उनके अनंत यात्रा पर निकल जाने के बाद, उन नरेंद्र मोदी के अंदर कैसे गूंज सकती है, जिन्होंने उनके इस संसार में रहते ही समूचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के साथ मिलकर उसे सुनना बंद कर दिया था!
स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं के बाद अटल जी के वे दिन शुरू हुए, जब वे इस संसार में रहते हुए भी दीन-दुनिया से बेखबर रहने लगे, तो कौन कह सकता है कि संघ परिवार के उन नेताओं में से ज्यादातर ने, जो आज उनके लिए मोटे-मोटे आंसू बहा रहे हैं, कभी उनका हालचाल जानने की जहमत भी उठायी?
इस दौरान अखबारों और चैनलों में छपी व चली उन खबरों में किंचित भी सच्चाई है, जिनमें कहा गया था कि अटल जी पूरी तरह अकेले पड़ गए हैं और कोई उनसे मिलने तक नहीं जाता, तो आज इन आंसुओं को मिमिक्री से ज्यादा अहमियत कैसे दी जा सकती है?
यह भी कैसे भूला जा सकता है कि गुजरात में 2002 के नरसंहार के वक्त राजधर्म निभाने की जो सीख उन्होंने वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री को दी थी, उसके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उसकी चर्चा तक गुनाह हो गई है और उसके कई मंत्री व मुख्यमंत्री अल्पसंख्यकों के खिलाफ आक्रामक रवैये व हिंसा का औचित्य सिद्ध करते नहीं लजाते.
देश के सबसे संवेदनशील सीमावर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर में जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत का जो पैगाम अटल ने दिया था और जिसे अब ‘अटल डाक्ट्रिन’ के नाम से जाना जाता है, उसको आगे बढ़ाना भी इस प्रधानमंत्री को, जिसका दावा है कि अटल जी की आवाज आज भी उसके भीतर गूंजती रहती है, कुबूल नहीं ही है.
प्रायः सारे राष्ट्रीय मामलों में उसका दृष्टिकोण यही रहता है कि उसकी पार्टी के निहित स्वार्थ कैसे सधेंगे और सत्ता दीर्घजीवी कैसे होगी, जबकि अटल जी ने 27 मई, 1996 को अपनी पहली सरकार के विश्वासमत प्रस्ताव पर चर्चा के जवाब में लोकसभा में कहा था, ‘सत्ता का खेल तो चलता रहेगा. सरकारें आयेंगी, जायेंगी. पार्टियां बनेगी, बिगड़ेंगी. मगर ये देश रहना चाहिए. इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए.’
क्या आज की तारीख में भारतीय जनता पार्टी या उसके महानायक नरेंद्र मोदी अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उन्होंने पिछले चार साल में अटल के इस राजनीतिक संदेश की अवज्ञा के लिए कुछ भी उठा रखा है?
इस बात में कोई दो राय नहीं कि आम तौर पर संघ की नीतियों व विचारों को नकारने वाले देशवासियों ने अटल जी को भरपूर स्नेह दिया और 2004 के लोकसभा चुनाव में चौथी बार सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया तो भी, यहां तक कि उनकी राजनीतिक पारी खत्म हो जाने के बाद भी, उनकी व्यक्तिगत स्वीकार्यता में कोई कटौती नहीं की.
लेकिन संघ परिवार तो 2004 से पहले यानी उनके प्रधानमंत्री रहते ही उनकी पारी खत्म करने के फेर में था, जिसके बाद उन्हें ‘न टायर्ड, न रिटायर्ड’ वाली बहुचर्चित टिप्पणी करनी पड़ी थी, जिसमें उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के ‘लौह नेतृत्व’ में ‘विश्वास’ जताया था.
गौरतलब है कि अटल जी प्रधानमंत्री रहे हों या विपक्ष के नेता, उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी आमतौर पर उन पर व्यक्तिगत आरोपों से बचा करते थे. बहुत हुआ तो ‘राइटमैन इन रांग पार्टी’ कह देते थे या यह कि उनकी सारी उदारता का लाभ अंततः उन्हीं शक्तियों को मिलता है, जो अनुदार हैं और सत्ता में आने के लिए जिनके इस्तेमाल का लोभ वे संवरण नहीं कर पाते.
लेकिन उनके प्रधानमंत्री रहते संघ परिवारियों की ओर से उन पर भारत के इतिहास का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री होने तक के आरोप लगाये गए. यह अटल जी का ही कलेजा था, भले ही वह 56 इंच का न रहा हो, कि मजदूर नेता दत्तोपन्त ठेंगड़ी के इस मर्मान्तक प्रहार के बावजूद उन्होंने संघ के प्रति अपनी निष्ठा पर कोई आंच नहीं आने दी.
अटल जी ने कहा था कि संसद को समाज का दर्पण होना चाहिए. अगर संसद से तथ्य छिपाये जायेंगे, अगर उसमें उन्मुक्त वाद-विवाद के लिए वातावरण नहीं होगा, अगर संख्या के बल पर बात गले के नीचे उतरवाने की कोशिश की जायेगी तो संसद राष्ट्र के हृदय का स्पन्दन नहीं रहेगी, एक संस्था मात्र रह जायेगी, न देश में कोई बुनियादी परिवर्तन ला सकेगी, न ही देश को अराजकता की ओर जाने से रोक सकेगी.
उनके इस कथन को आज की संसद के उस माहौल से मिलाकर देखिये, जिसमें संख्या बल यानी बहुमत के गुरूर में पागल भाजपा के सांसद विपक्ष को दुश्मन की तरह देखते और उसकी बोलती बंद कराने पर लगे रहते हैं, तो यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि वे अटल जी को जो श्रद्धांजलियां दे रहे हैं, उनमें कितनी श्रद्धा है और कितना तिल! यानी वह कितनी श्रद्धांजलि है और कितनी तिलांजलि?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ विचारकों में से एक और उसके मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के पूर्व संपादक देवेंद्र स्वरूप एक वाकया बताते हैं, जिसका जिक्र पत्रकार विजय त्रिवेदी ने अटल जी की जीवनी ‘हार नहीं मानूंगा’ में किया है.
यह कि एक बार अमेरिका जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में अटल बिहारी वाजपेयी के साथ कांग्रेस की नेता मुकुल बनर्जी भी थीं. एक सरकारी भोज में बीफ यानी गोमांस भी परोसा जा रहा था. बनर्जी वाजपेयी के बगल में ही बैठी थीं. उन्होंने वाजपेयी का इस ओर ध्यान दिलाया तो उनका कहना था-‘छोड़िये भी, ये गायें इंडिया की नहीं, अमेरिका की हैं.’
अगर आप उनके आज के उन ‘वारिसों’ से इस सहिष्णुता की उम्मीद नहीं कर सकते, जो गोरक्षकों के वेश में निर्दोषों पर गोहत्या की तोहमत लगाकर उनकी जान से खेलने लगते हैं और सत्तापोषित होने के कारण उनका बाल भी बांका नहीं होता, तो उन्हें उनका सच्चा वारिस क्योंकर मान सकते हैं? क्यों नहीं पूछते कि यह उनकी विरासत का संरक्षण है या ध्वंस?
अपनी कविताओं में ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन’ का उद्घोष करने वाले अटल जी अपने संसदीय क्षेत्रों में रोजा-अफ्तारों में तो शरीक होते ही थे, ईद मिलन समारोहों से भी परहेज नहीं करते थे.
टोपियां भी बेहद शौक से लगाते थे और एक वक्त पाकिस्तान से जियाउल हक द्वारा उपहार में दिया गया पठानी सूट पहनने में भी देर नहीं की थी. लेकिन अब भाजपा देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के रूप में ऐसा मुख्यमंत्री ले आई है, जो खुलेआम कहता फिरता है कि चूंकि वह हिंदू है, इस कारण ईद नहीं मना सकता.
कहे भी क्यों नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तथाकथित तुष्टीकरण के खात्मे के नाम पर अपने निवास में रोजा-अफ्तार की वह परंपरा तक तोड़ दी है, जिसका सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व था. ये प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों टोपियों से सायास परहेज बरतते हैं. किसी नाचीज का दिल टूट जाये तो टूट जाये, ये अपना परहेज नहीं तोड़ते.
ऐसे में किसी को तो पूछना चाहिए कि क्या यह छह अप्रैल, 1980 को भाजपा की स्थापना के वक्त अटल जी द्वारा उसके पूर्वावतार जनसंघ के विपरीत उसके दरवाजे मुसलमानों के लिए खोलने की मूल भावना का अपमान नहीं है?
मोदी-योगी के जाप के बीच भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्षता जैसे पवित्र मूल्य का जैसा निरादर इन दिनों चारो ओर होता दिखाई पड़ता है, क्या ये दोनों उसका जरा-सा भी उत्स अटल के काल में ढूंढ़ सकते हैं? नहीं, उस काल में अटल आमतौर पर खुद को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने की कोशिश करते ही दिखाई देते हैं और एक समय उनका मानना था कि धर्मनिरपेक्षता नहीं होती तो भारत ही नहीं होता.
ऐसे में अकारण नहीं कि कई बार लगता है कि अटल जी की स्वीकार्यता, विरासत के अवयवों और संदेशों को लेकर संघ परिवारियों को कभी प्रत्यक्ष तो कभी प्रच्छन्न ईर्ष्याएं सताती रही हैं. इसलिए और भी कि अटल, दिखाने के लिए ही सही, बार-बार उनकी पार्टी लाइन (आप चाहें तो इसे पारिवारिक लाइन पढ़ें) तोड़ते रहते थे और यही बात उन्हें उसकी ‘विचारधारा’ से बड़ा बनाती थी.
शायद अपने परिवार की इसी ईर्ष्या से, जो अब कृतघ्नता तक जाने को आतुर है, त्रस्त होकर एक बार अटल ने कहा था, ‘कभी-कभी मैं समझ नहीं पाता कि क्या बोलूं, किसके सामने बोलूं, जिन्हें सुनाना चाहता हूं, वे सुनते नहीं. जो सुनते हैं, वे समझ नहीं पाते और जो समझ पाते हैं, वे जवाब नहीं देते.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)